“क्या मुझे अपनी ख़ुशियां पाने का हक़ नहीं...? किसी भी दबाव से परे....किसी के हस्तक्षेप से अलग... जीवन को अपने ढंग से जीना ही आनंद देता है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना.... मैं शायद तुम्हारे लिए बना ही नहीं था. तुम्हें पत्र लिखने का उद्देश्य यही है कि तुम भी आज से स्वतंत्र हो... मैंने तुम्हें हर बंधन से मुक्त किया.”
मानसी कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर ढह-सी गयी. आंखों के सामने घना अंधेरा छा गया था.
फिर सब कुछ अनचाहा घटता गया. पगफेरे की रस्म के लिए भाई के साथ मायके आयी मानसी फिर लौटकर ससुराल नहीं गयी. ससुरालवालों ने मानसी की विदाई पर ज़ोर डाला था, पर आंतरिक पीड़ा से विकल, रोती-बिलखती बेटी की दशा ने पिता के हृदय को वेदना की ज़ंजीर से बांध लिया था. “नहीं, मेरी मानसी अब तभी वहां जाएगी, जब प्रभात आदर-सम्मान के साथ इसे वहां ले जाएगा...अन्यथा नहीं.” उन्होंने कहा तो मानसी के जेठ विफर कर बोल पड़े थे, “प्रभात का ग़ुस्सा आज नहीं तो कल ठंडा हो ही जाएगा... वो ख़ुद ही वापस लौट आएगा. क्या तब तक बेटी को घर पर बिठाएंगे? समाज क्या कहेगा? आपके साथ-साथ हमारी भी बदनामी होगी.”
“मैं इन ओछी बदनामियों की परवाह नहीं करता. मानसी प्रभात के साथ ही वहां जाएगी. ये मेरा आख़री फैसला है...” कहते-कहते मानसी के पिता क्रोध और वेदना की मिली-जुली अभिव्यक्ति के कारण हांफ से उठे थे.
इस घटना के बाद मानसी के जीवन में जैसे सुख का प्रवेश निषेध हो गया. ज़िंदगी कभी-कभी ऐसा दर्द दे जाती है, जिसे सह पाना बेहद कठिन होता है. और ये दर्द हथेली पर उगे उस फोड़े से कम पीड़ादायक नहीं होता, जो अपनी टीस से सर्वांग को सिहरा देता है. मानसी जानती थी कि ज़िंदगी बहुत बड़ी नियामत है, इसे यूं ही गंवा देना अच्छी बात नहीं है, पर पीड़ा की अधिकता के कारण आंसू बेइख़्तियार आंखों से बहने लगते थे.
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उसे धैर्य बंधाती मां भी फूट-फूट कर रो पड़ती थी. बेटी को बार-बार पति के पुनरागमन का विश्वास दिलाती मां भीतर-ही-भीतर किसी अनहोनी की आशंका से भी कांप उठती थी. अगर प्रभात नहीं लौटा तो... कैसे काटेगी मानसी पहाड़ जैसा जीवन? ये प्रश्न मां के हृदय को वेदना से मथ डालता था.
दरवाज़े पर होनेवाली हर आहट पर, हर दस्तक में मानसी प्रभात को तलाशती रहती. मन बार-बार कहता, वो ज़रूर आएंगे, पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. एक दिन मानसी को प्रभात का पत्र मिला. पढ़कर वो हतप्रभ रह गयी. सारी आशाएं पल भर में मिट्टी के ढेर की तरह ढह गयीं. उसकी दशा ठीक उस परकटे परिंदे की तरह हो गयी जो उड़ने की अदम्य लालसा लिए पेड़ की डाल पर बैठा ही था कि बहेलिये ने उसके पंख कतर डाले. प्रभात ने बिना किसी संबोधन के लिखा था-
“मैं जानता हूं.... तुम्हारे साथ अच्छा नहीं हुआ. पर मैं खुद को दोषी नहीं मानता. अपने भीतर समाहित ‘मैं’ का भी कुछ मूल्य होता है या नहीं? मैं कहीं और शादी करना चाहता था, पर मां के दबाव के कारण तुम से शादी करनी पड़ी. क्या मुझे अपनी ख़ुशियां पाने का हक़ नहीं...? किसी भी दबाव से परे....किसी के हस्तक्षेप से अलग... जीवन को अपने ढंग से जीना ही आनंद देता है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना.... मैं शायद तुम्हारे लिए बना ही नहीं था. तुम्हें पत्र लिखने का उद्देश्य यही है कि तुम भी आज से स्वतंत्र हो... मैंने तुम्हें हर बंधन से मुक्त किया.”
मानसी गश खाकर गिर पड़ी. मां ने उसके हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ी तो वो भी सन्न रह गयी. इस अप्रत्याशित घटना से अवाक रह गए मानसी के पिता और बड़े भाई क्रोध से भरे उसके ससुराल पहुंचे. चिट्ठी पढ़कर प्रभात के घर में भी सबको सांप सूंघ गया. दूसरे ही दिन मानसी और प्रभात के पिता मुंबई के लिए निकल गए, जहां एक फर्म में प्रभात कार्यरत था. पर निराशा ही हाथ लगी. एक सहकर्मी से पता चला कि प्रभात ने ये नौकरी छोड़ दी है और अपनी पत्नी के साथ कहीं और चला गया है.
पत्नी के साथ...? ये दूसरा वज्रपात था, जिसे सुनकर मानसी के पिता संज्ञाशून्य से हो गए. किसी तरह घर तो लौट आए, पर सप्ताह भर के भीतर ही हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी. बेटी की पीड़ा सहन करने में असमर्थ पिता ने दुनिया से ही विदा ले ली थी. मानसी पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. जिस पिता की प्रेरणा से उसमें जीने की उमंग पैदा हुई थी, वो उसे मंझधार में छोड़ गए थे. मानसी टूट गयी थी. दुख और अपमान की पीड़ा का दंश सर्पदंश से कम होता है क्या?
अपनी सारी पीड़ा को आत्मसात कर मानसी मां की सेवा में लग गयी थी. समय अपनी गति से चलता गया. धीरे-धीरे पंद्रह साल गुज़र गए. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मानसी स्थानीय कॉलेज में प्रवक्ता बन गयी थी. दोनों भाइयों ने शादी करके घर बसा लिया था. इन पंद्रह वर्षों में बहुत कुछ बदल गया था. सबकी ज़िंदगी एक ढर्रे पर गतिमान थी. पर मानसी? क्या-क्या नहीं भोगा था उसने इन वर्षों में. तिल-तिल कर जली थी वो... सब कुछ सहा था उसने... भाभियों के व्यंग्य-ताने... भाइयों की अवहेलना...मां की पीड़ा... नौकरानियों से भी बदतर स्थिति...समाज के लोगों की प्रश्नवाचक निगाहें... जो उसके मन को तार-तार कर देती थीं... सब कुछ झेलती रही वो, उस दिन की प्रतीक्षा में, जब उसे एक पहचान मिली.
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जिस दिन उसे कॉलेज में व्याख्याता का पद मिला वो दिन उसके लिए अविस्मरणीय बन गया. उसने ज़िंदगी से जूझकर अपनी मंज़िल पायी थी. जो लोग ताने देते नहीं थकते थे, उन्हें अब मानसी कर्मठ और जीवट लगने लगी थी. कभी-कभी मानसी के अधरों पर एक विद्रूप-सी मुस्कान आकर ठहर जाती. वो सोचती, समाज के लोगों के विचार कितने क्षणभंगुर होते हैं. समय, परिस्थिति और विचारधारा का अटूट संबंध है... शायद तभी समय और परिस्थिति विचारधारा को बदल कर रख देती है.
डॉ. निरूपमा राय