कहानी- आंखें बोलती हैं 1 (Story Series- Aankhen Bolti Hain 1)
“क्यों इतना खून जला रही हो गुड़िया. ऐसा क्या ग़ज़ब हो गया? वो भी इंसान है, बाल-बच्चोंवाली है. क्या उसे कोई ज़रूरी काम नहीं हो सकता? काम का क्या है. वापस आकर हम दोनों निपटा लेंगे. चल अब तू शांत हो जा. मैं तेरे लिए अदरक की चाय बनाती हूं. उसे पीकर रिलैक्स हो और आराम से तैयार हो जा.” मां के समझाने पर रूबी उखड़े मन से ही सही, मगर मुस्कुरा पड़ी.
रूबी बर्तन ऐसे मांज रही थी जैसे कुछ खुन्नस निकाल रही हो... ज़ोर-ज़ोर से बर्तन पटकने की आवाज़ें, एक-आध हाथ से छूटकर गिर जाने की टनटनाहट, धीमी-धीमी बड़बड़ाहट की गुनगुन, झल्लाए तेवर और तेज़ी से चलते हाथ. रूबी का हाल वही था, जो अक्सर कामवाली बाइयों के अचानक से न आने की ख़बर सुन किसी भी गृहस्थन का हो जाता है और सोने पर सुहागा तब होता है, जब घर में मेहमान भी आए हुए हों.
कितना भी पहले बोलकर रखो इन लोगों को, मगर ठीक ऐन टाइम पर छुट्टी मारती हैं. दो महीने से बोल रखा था चंदा को, मई के पहले दो हफ़्ते कोई छुट्टी मत लेना, मां आ रही हैं. वैसे भी मां मेरे पास नहीं आतीं. बड़ी मुश्किलों से राज़ी किया था कि कभी तो बेटी के पास भी रह जाया करो. बच्चे भी बोलते हैं, सबकी नानियां आती हैं, एक हमारी ही नहीं आती. तब जाकर पूरे पांच साल बाद आई हैं. सोचा था, उनके आने पर चंदा से कुछ एक्स्ट्रा काम करा लिया करूंगी, ताकि उन्हें ज़्यादा समय दे सकूं, कुछ घुमा-फिरा सकूंगी. मगर ये महारानीजी तो अपना काम करने से भी रही. घर कितना गंदा पड़ा है, बर्तन भी मुझे ही मांजने पड़ रहे हैं... बड़बड़ाते हुए रूबी की नज़र बार-बार घड़ी की ओर जा रही थी. घड़ी की सुइयों के साथ उसके हाथों की गति भी बढ़ रही थी. ओह! कितना लेट हो गया. लगता है आरती तक ही पहुंच पाएंगे.
रूबी की मम्मी निर्मलाजी अपने गृहनगर बरेली से बाहर कम ही आती-जाती थीं. वे अधिकतर पूजा-पाठ और सेवा कार्यों में ही व्यस्त रहतीं. मुंबई तो जैसे उन्हें दुनिया का दूसरा कोना लगता, इसलिए बेटी-दामाद के लाख आग्रह के बाद भी उन्हें टाल दिया करती थीं. वैसे भी मुंबई की भागती-दौड़ती ज़िंदगी और उमस उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी. फिर भी इस बार आ गई थीं. रूबी बहुत कोशिश करती कि उन्हें कहीं घुमा लाए, मगर भीड़ से उनका जी घबराता था.
आज पास की ही सोसायटी में रूबी की एक पुरानी परिचिता स्मिता के यहां गृहप्रवेश की पूजा चल रही थी. निर्मलाजी वहां जाने के लिए तैयार हो गईं. रूबी ने वहां समय से पहुंचना तय किया था, मगर सुबह उसकी बाई चंदा का फोन आ गया कि उसे बहुत ज़रूरी काम से गांव जाना पड़ रहा है, अतः वह दो दिन काम पर नहीं आ पाएगी. फोन सुनकर रूबी का जो हाल हुआ, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता. उसे वही समझ सकता है, जो ऐसी मुसीबत से गुज़रा हो.
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रूबी का मन तो किया आज ही निकाल बाहर करे चंदा को, पर कैसे? आज से पहले तो उसने ऐसा धोखा कभी नहीं दिया. पैसे तो काट ही लूंगी, पर कैसे काट सकती हूं. महीने की दो छुट्टियां तो मान्य हैं. मगर कुछ मां के आने का तो लिहाज़ करती... उसकी बड़बड़ जब निर्मलाजी के कानों में पहुंची, तो वे रूबी को समझाने आ गईं.
“क्यों इतना खून जला रही हो गुड़िया. ऐसा क्या ग़ज़ब हो गया? वो भी इंसान है, बाल-बच्चोंवाली है. क्या उसे कोई ज़रूरी काम नहीं हो सकता? काम का क्या है. वापस आकर हम दोनों निपटा लेंगे. चल अब तू शांत हो जा. मैं तेरे लिए अदरक की चाय बनाती हूं. उसे पीकर रिलैक्स हो और आराम से तैयार हो जा.” मां के समझाने पर रूबी उखड़े मन से ही सही, मगर मुस्कुरा पड़ी.
दोनों जब पूजा में पहुंचे, तो आरती ही चल रही थी. रूबी को पूजा हॉल में प्रवेश करते हुए बड़ी शर्म महसूस हुई. जब कोई उसके घर ऐसे सीधे आरती में पहुंचता था, तो वह मन ही मन चिढ़ती थी, ‘लो आ गए सीधा प्रसाद खाने...’ और अब वही ऐसे आई है, स्मिता क्या सोचेगी.
आरती के बाद भोजन का आयोजन था और उसके कुछ देर बाद सुंदरकांड शुरू होना था. भोजन के लिए बाहर एक अलग पंडाल की व्यवस्था थी. स्मिता को बधाई और गिफ्ट देकर रूबी और निर्मलाजी ने लंच की प्लेट लगाई और पंडाल के एक कोने में सही जगह देखकर बैठ गए. खाना खाते हुए यूं ही रूबी की नज़र हवा से हिल रहे पर्दों के बाहर चली गई, तो वह चौंक पड़ी... ‘अरे ये क्या, चंदा यहां.’ बाहर उसकी बाई चंदा बैठी बर्तन मांज रही थी. यह देख रूबी के भीतर यकायक जो ज्वालामुखी फूटा, यदि उसका लावा बाहर आ जाता, तो चंदा के साथ-साथ सभी बर्तन-भांडे भी बहाकर ले जाता, मगर रूबी कैसे बहने देती. सामने उसकी मां जो बैठी थी. मां के सामने अपनी छवि कैसे ख़राब होने देती कि उसकी इतनी समझदार, मैच्योर, टफ बेटी एक बाई के धोखे से हिल गई.
ख़ैर, रूबी ने जैसे-तैसे ख़ुद को संभाला और प्लेट में बचा खाना लगभग निगला और स्मिता के पास जाकर बातचीत करने लगी. “यार स्मिता, एक बात तो बता, ये जो मेड बाहर बर्तन मांज रही है, ये तेरी परमानेंट मेड है क्या?”
“अरे नहीं, ये मेरी मेड की पहचानवाली है. मुझे दो दिन के लिए एक्स्ट्रा कामों के लिए एक मेड चाहिए थी, तो वह इसे ले आई. भली औरत है, सुबह से चुपचाप काम कर रही है. जो बोलो कर देती है.”
दीप्ति मित्तल
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