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कहानी- बदलते समीकरण 2 (Story Series- Badalte Samikaran 2)

मासूम सूरत-चेहरे पर आंसुओं की लकीरों के साथ तनाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था. उसकी ऐसी हालत देखकर हम दोनों ही एक-दूसरे से नज़रें चुरा रहे थे. आज विनय को मेरी चिंता समझ में आ रही थी. पर अब कर भी क्या सकते थे. बार-बार यही प्रश्‍न मन-मस्तिष्क में घूम रहा था, क्या बच्चों पर विश्‍वास करना ग़लती करना है? उसने उसके कुछ मित्रों के घर फ़ोन किया, पर सब व्यर्थ. अब इंतज़ार करने के सिवाय कोई चारा भी नहीं था. विनय भी ऑफ़िस से आ गए थे. उसके न आने पर वे भी चिंतित थे. घड़ी की सुइयां खिसकती जा रही थी तथा उसके साथ ही हमारी चिंताएं बढ़ रही थीं. रात के दस बज चुके थे. समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें. बार-बार लड़के के साथ बाइक पर जाती उसकी तस्वीर आंखों के सामने घूम जाती. मन अनहोनी की आशंका से कांप उठता. कोई सूचना न पाकर सोचा जाकर पुलिस में कम्प्लेन करें. निकलने ही वाले थे कि फ़ोन की घंटी बज उठी. विनय ने फ़ोन उठाया. “शायद आप उस लड़की के पिता हैं जिसे मैं अभी शिवा नर्सिंगहोम में भर्ती करवा कर आया हूं. उसके बैग से निकली डायरी से आपका नंबर पाकर फ़ोन कर रहा हूं. उसकी हालत अच्छी नहीं है. आप शीघ्र आ जाइए.” किसी आदमी का स्वर था. विनय ने तुरंत गाड़ी निकाली तथा चल पड़े. मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे. क्या उसका एक्सीडेंट हो गया है. पता नहीं कितनी चोटें आई होंगी. कितनी बार कहा है स्कूटर धीरे चलाया करो पर मानती ही नहीं है. अस्पताल में घुसते ही सामने से एक आदमी आता मिला, बोला, “क्या आप लोग वही हैं, जिन्हें मैंने फ़ोन किया था.” “हां, पर उसे हुआ क्या है?” यह भी पढ़ेप्रतिबंधित दवाओं पर प्रतिबंध क्यों नहीं? (Banned Drugs Available In India) “वही जो नहीं होना चाहिए. वह तो हम अचानक उधर से गुज़र रहे थे वरना बचती ही नहीं. वह तो अपना काम करके इसका काम तमाम करना चाहता था, पर इसकी चीख सुनकर हम पहुंच गए. और वह भाग गया. कैसे मां-बाप हैं आप, जो बच्चों को इतनी छूट दे रखी है. आख़िर इसे उस लड़के के साथ उस सुनसान पार्क में जाने की ज़रूरत ही क्या थी? स्वयं ही गई होगी. कोई ज़बरदस्ती तो इसे वहां ले नहीं गया होगा.” सुनकर धक-सी रह गई. जिस बात का मुझे हमेशा से डर लगा रहता था, आख़िर वही हुआ. डॉक्टर से बात की तो वे बोले, “मेंटल शाक की स्टेट में है, रिकवर करने में थोड़ा समय लगेगा. अभी नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया है.” उसके कमरे में गए. मासूम सूरत-चेहरे पर आंसुओं की लकीरों के साथ. तनाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था. उसकी ऐसी हालत देखकर हम दोनों ही एक-दूसरे से नज़रें चुरा रहे थे. आज विनय को मेरी चिंता समझ में आ रही थी. पर अब कर भी क्या सकते थे. बार-बार यही प्रश्‍न मन-मस्तिष्क में घूम रहा था, क्या बच्चों पर विश्‍वास करना ग़लती करना है? पर यदि कोई किसी के विश्‍वास को ही भंग कर दे तो... क्या उसी लड़के ने उसके साथ यह कुकर्म किया है जिसके साथ वह स्कूटर पर बैठी जा रही थी...? कितनी ख़ुश नज़र आ रही थी वह. इस तरह का उसे अगर ज़रा भी अंदेशा होता, तो वह क्या उसके साथ जाती? सच ऐसी घटनाएं ऐसे झूठे और मक्कार लोगों के द्वारा होती हैं जो विश्‍वासपात्र होने का नाटक कर भोली-भाली युवतियों को अपने जाल में फांस कर ताउम्र तड़पने के लिए छोड़ देते हैं. साथ ही उनकी बर्बादी पर ख़ुश होकर, अपने पुरुषोचित्त अहंकार में मस्त, स्वयं को सर्वेसर्वा समझते हैं. अभी सोच ही रहे थे कि अख़बार और टीवी वाले आकर उनसे तरह-तरह के प्रश्‍न पूछने लगे. मीडिया पर उन्हें क्रोध आ रहा था, जो उनकी मुश्किलें और बढ़ा रहे थे. क्या इस तरह ढिंढोरा पीटकर उसे न्याय दिलवाया जा सकता है?  दिल पर हथौड़े बरस रहे थे. समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें? तभी महिला मुक्ति आंदोलन से जुड़ी महिलाएं दिव्या का हाल पूछने आ गईं... वे अपराधी को कड़ी-से-कड़ी सज़ा दिलवाना चाहती थीं. पर मैं सोच रही थी कि ये लोग क्या दिव्या को न्याय दिलवा पाएंगे? अपराधी को सज़ा दिलवाने में पीड़ित लड़की को जो-जो झेलना पड़ेगा, वह क्या मौत से भी बदतर नहीं होगा? मौत तो केवल एक बार आती है, पर यहां तो उसे रोज़ मरना होगा. रोज़ उस हादसे के साथ जीना होगा. कौन उसका हाथ थामेगा? और यदि दया दिखलाते हुए कोई साहस भी कर ले तो क्या गारंटी कि वह उसके दाग़दार दामन पर और छींटे नहीं उछालेगा? दिव्या का तो जीवन ही बर्बाद हो जाएगा. नहीं, वह अपनी बच्ची के साथ ऐसा कुछ नहीं होने देगी. एक बार जो हो गया, उसकी आग में और नहीं जलने देगी. वह उसे यहां से कहीं दूर ले जाएगी, जहां वह नया जीवन शुरू कर सके. इस हादसे को भूल सके. दिव्या को आंखें खोलते देख वह उसके पास गई. यह भी पढ़ेबचें इन पैरेंटिंग मिस्टेक्स से (Parenting Mistakes You Should Never Make) वह उसे देखकर रोने लगी, “ममा, मैं बहुत बुरी हूं. मैंने आपकी बात नहीं मानी... उसने मुझे धोखा दिया.” “नहीं बेटी, तू तो मेरी बहुत ही प्यारी बच्ची है. जो भी हुआ वह तेरे जीवन का एक हादसा मात्र था. उसे भूल जा. आज से नया जीवन शुरू कर. हादसे हर इंसान के जीवन में आते हैं. कुछ हादसे जीवन को कुछ सीख, नया आयाम दे जाते हैं... पर समझदार इंसान वही है जो इन हादसों से सबक लेते हुए आगे बढ़ता जाए, न कि कुंठित होकर बैठ जाए.” वह गोद में मुंह छिपाकर रो पड़ी थी. उसकी स्थिति देखकर हमने निर्णय किया कि उसे कहीं और रखकर पढ़ाया जाए. स्थान परिवर्तन से शायद उसे खोया आत्मविश्‍वास, आत्मबल मिल सके. हमारा सोचना ठीक निकला. हमने उसका दाख़िला दिल्ली के एक कॉलेज में करवा दिया. वहां उसकी मौसी रमा रहती थी, जिसके सानिध्य में उसे सदा अपनापन महसूस होता रहा था. वहां रह कर उसने एक नया जीवन शुरू किया. अब उसके जीवन का उद्देश्य पढ़ाई ही बन गई थी. दिव्या एकदम बदल गई. आख़िर उसकी मेहनत रंग लाई, ग्रेज्युशन उसने फर्स्ट डिवीज़न विद डिस्टिंक्शन के साथ किया.

- सुधा आदेश

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