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कहानी- बदचलन 4 (Story Series- Badchalan 4)

उसकी बात सुनकर रोमांच से मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पक्का यक़ीन हो गया कि वह मुझे निमंत्रण दे रही है. अचानक, पता नहीं कैसे, मेरा हाथ उसकी ओर बढ़ गया और उसके हाथ को मैंने नरमी के साथ पकड़ लिया. उसने भी विरोध नहीं किया. “क्या सचमुच ऐसी अफ़वाह है...?” मैंने उसका हाथ धीरे से दबा दिया. हालांकि अंदर ही अंदर मैं डर से कांप भी रहा था. वह हंस दी, पर इस बार उसकी हंसी फीकी-सी थी. पहली बार मुझे उसकी हंसी में व्यंग्य की गंध आई. मेरे चरित्र और कामदेव के बीच लंबे समय तक संघर्ष चलता रहा. फिर मैंने महसूस किया कि कामदेव चरित्र पर भारी पड़ रहे हैं. कुछ बातें न चाहते हुए भी मैं कर रहा था. मसलन, जब भी वह घर आती, तो मैं अपने दरवाज़े पर खड़ा रहता. आते-जाते उसका कोई ना कोई अंग मुझसे ज़रूर छू या टकरा जाता. इससे मुझे सुख मिलता. मुझे अपने ऊपर दया आने लगी कि मैं स्पर्श-मनोरोगी होता जा रहा हूं. छू जाने पर उसका विशेष ढंग से हंसना और पलक झपकाना मेरी धड़कन बढ़ा देता. इन सब हरकतों से मुझे लगता, वह लिफ्ट दे रही है. इसके बावजूद मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि कुछ कहता. मैं हरदम यही सोचता, काश! वही पहल करती, लेकिन वह आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी. मेरी इस हालत के लिए रामू मास्टर ज़िम्मेदार थे. एक दिन रामू मास्टर मेरे घर आए हुए थे, उसी समय वह भी आ गई और सोफे पर बैठकर अख़बार देखने लगी. रामू मास्टर के चेहरे पर अर्थ भरी मुस्कान थी. थोड़ी देर बाद वह चले गए. मैं भी एक किताब निकाल कर पन्ने पलटने लगा. कमरे में नीरवता पसरी थी. मैं सोच रहा था, हमारे बीच अब तो कुछ होना ही चाहिए. “यह आदमी आपके यहां बहुत ज़्यादा आता है क्या...?” अचानक वह बिना किसी भूमिका के बोली. “हां, आ जाते हैं कभी-कभार.” “आपको पता है, हमारे बारे में ये लोग क्या चर्चा करते हैं...” “तुम्हीं बताओ न...! क्या चर्चा करते हैं...?” मैं जानने को उत्सुक हो गया. “फ़िलहाल तो यह चर्चा है... ” वह थोड़ा रुककर बोली, “कि मैं आपसे भी पट गई हूं.” उसकी बात सुनकर रोमांच से मेरे रोंगटे खड़े हो गए. पक्का यक़ीन हो गया कि वह मुझे निमंत्रण दे रही है. अचानक, पता नहीं कैसे, मेरा हाथ उसकी ओर बढ़ गया और उसके हाथ को मैंने नरमी के साथ पकड़ लिया. उसने भी विरोध नहीं किया. “क्या सचमुच ऐसी अफ़वाह है...?” मैंने उसका हाथ धीरे से दबा दिया. हालांकि अंदर ही अंदर मैं डर से कांप भी रहा था. वह हंस दी, पर इस बार उसकी हंसी फीकी-सी थी. पहली बार मुझे उसकी हंसी में व्यंग्य की गंध आई. “तुम हंसी क्यों...?” अबकी बार मैंने उसका हाथ सहलाते हुए पूछा. “यही कि आपको लेकर भी मैं गच्चा खा गई.” उसकी आवाज़ बहुत कठोर थी, बेहद निर्मम. “मतलब...?” मुझे उसकी बात से धक्का लगा. जवाब देने की जगह उसने अपना हाथ तेज़ी से खींच लिया. “मतलब कि आप भी ठहरे एक साधारण पुरुष, जिसे औरत चाहिए! है ना! आपके अंदर भी वासना की आग में जलता मर्द देख रही हूं, जो मुझे पाने की जुगत में है. सोचा था, मोहल्ले में तमाम चरित्रहीन लोगों के बीच कोई ऐसा भी है, जिसे अपना मान सकती हूं, दोस्त कह सकती हू्ं. उसके पास सुरक्षित महसूस कर सकती हूं, लेकिन साफ़ दिख रहा है कि आपकी भी नज़र मेरे जिस्म पर है. आज यक़ीन हो गया कि दुनिया के सारे मर्द एक जैसे होते हैं. औरत के भूखे, विवेकहीन, असामाजिक. स्त्री की लाचारी का फ़ायदा उठाना चाहते हैं. मौ़के की तलाश में रहते हैं. दोस्ती और हमदर्दी का ढोंग रचते हैं, जबकि होते हैं सब के सब बलात्कारी. मास्टर ने भी मुझे पाने की कोशिश की. सफल न हुआ, तो मैं चरित्रहीन हो गई. बदनाम कर दिया.” वह फूट-फूटकर रोने लगी. मुझे तो काटो तो ख़ून नहीं... जैसे किसी ने आसमान से खींचकर ज़मीन पर ला पटक दिया हो. हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
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