“सुनिए, सुनिए... शुक्ला गैंग पूरी प्लानिंग कर चुका है. रस्म मसूरी के एक रिसॉर्ट में होगी. लड़केवाले भी वहीं आ जाएंगे. सभी वहां दो दिन रुकेंगे. ख़ूब नाच-गाना, धमाल-मस्ती होगी. इस तरह से हमें अपने जीजाजी के और जीजाजी को जिज्जी के साथ व़क्त बिताने का भरपूर मौक़ा मिलेगा...” कहते हुए उसने नम्रता की तरफ़ आंख मारी, तो वह थोड़ी लजा गई.
शुक्ला विला से असमय आ रही हंसी-ठिठोली की आवाज़ से पूरा मोहल्ला जान गया था कि परिवार में फिर महफ़िलों का दौर चल पड़ा है. बच्चों का तेज़ म्यूज़िक बजाकर डांस करना... बड़ों का हा-हा, ही-ही करते हुए कभी लॉन में, कभी टैरेस पर, कभी बैठक में ज़ोर-ज़ोर से गप्पे लड़ाना, समय-बेसमय चाय का दौर चलना... ताश की बाज़ी सजना... नौकरों का भाग-भागकर काम करना... पिछले दो दिनों से वहां यही सीन चल रहा था.
ऐसा दृश्य हर साल गर्मियों की छुट्टियों में उत्पन्न हो जाता था. जब इस कोठी की दोनों बेटियां अपने-अपने बाल-बच्चों संग छुट्टियां बिताने मायके आती थीं, तब इस कोठी की रौनक़ देखने लायक होती थी, मगर इस बार ये रौनक़, ये उत्साह कुछ ज़्यादा ही उफ़ान पर था और हो भी क्यों न, कारण भी तो बड़ा था.
शुक्ला विला की नींव स्वर्गीय सीताराम शुक्लाजी ने रखी थी, जो रुड़की शहर के
जाने-माने कपड़ा व्यापारी थे. उन्हें और उनकी पत्नी को गुज़रे कई साल हो गए. उनके तीन बेटों कृष्णचंद्र, रामेश्वर और मनमोहन एवं दो बेटियों निर्मला और कुसुम के बचपन, जवानी, शादी-ब्याह, बहू-दामादों, नाती-पोतों के आगमन का साक्षी बना था यह शुक्ला विला. आज उसी के आंगन में मंझले बेटे रामेश्वर की बड़ी संतान और नई पीढ़ी की अग्रजा 23 वर्षीया नम्रता की शादी के चर्चे चल रहे थे.
शुक्ला परिवार की नई पीढ़ी में नम्रता सहित कुल 9 किशोरवय बच्चे थे. सभी का आपस में बहुत प्रेम था. जब भी मिलते, ख़ूब धमाचौकड़ी मचाते. उन सभी को सम्मिलित रूप से ‘शुक्ला गैंग’ के नाम से संबोधित किया जाता था. यह गैंग थोड़ी और बड़ी होती अगर बड़े भाई कृष्णचंद्र की पत्नी और दुधमुंही बच्ची की एक कार दुर्घटना में असमय मृत्यु न हुई होती. कार वे ही चला रहे थे, किन्तु ईश्वर ने उन पर थोड़ी दया दिखाई. चोटें बहुत थीं, मगर प्राण बच गए थे. वे स्वयं को इस दुर्घटना का दोषी मानकर ग्लानि के ऐसे भंवर में उलझे कि सालों बाद भी नहीं उबरे थे. इस घटना के बाद उन्होंने स्वयं को बस अनवरत श्रम की भट्ठी में झोंक दिया था. उनकी निरंतर मेहनत का ही परिणाम था कि पिता का बिज़नेस दिन दूनी, रात चौगुनी तऱक्क़ी कर रहा था.
कृष्णचंद्र ऐसे हंसी-ठट्टों, गप्पों की महफ़िलों का कभी हिस्सा न बनते. काम से घर लौटकर सबका संक्षिप्त हालचाल पूछते और चुपचाप खाना खाकर सीधा अपने कमरे में चले जाते. वहां भी देर रात तक व्यापार के अकाउंट्स ही निपटाते रहते. परिवार में उनका एक कड़क अनुशासित पिता के समान दबदबा था और हो भी क्यों न, छोटे भाई-बहनों की शादियां, रोज़गार आदि सभी ज़िम्मेदारियां उन्होंने ही उठाई थी. भाई-बहन उन्हें ‘बड़े भाईसाहब’ और बच्चे ‘बड़े पापा’ कहकर संबोधित करते.
आज भी कुछ ऐसा ही हुआ. उनके घर में आते सभी शालीनता की मूर्ति बनकर बैठ गए. उन्होंने सबके हालचाल पूछे, खाना खाया और अपने कमरे की तरफ़ रुख कर लिया. उनके जाते ही सभी मिल-बैठकर चार दिन बाद होनेवाली रोके की रस्म की प्लानिंग करने लगे.
शुक्ला गैंग डेस्टिनेशन वेडिंग की तरह डेस्टिनेशन रोके की ज़िद पर अड़ा था. निर्मला की बेटी नव्या बोली, “सुनिए, सुनिए... शुक्ला गैंग पूरी प्लानिंग कर चुका है. रस्म मसूरी के एक रिसॉर्ट में होगी. लड़केवाले भी वहीं आ जाएंगे. सभी वहां दो दिन रुकेंगे. ख़ूब नाच-गाना, धमाल-मस्ती होगी. इस तरह से हमें अपने जीजाजी के और जीजाजी को जिज्जी के साथ व़क्त बिताने का भरपूर मौक़ा मिलेगा...” कहते हुए उसने नम्रता की तरफ़ आंख मारी, तो वह थोड़ी लजा गई.
“नहीं-नहीं, ऐसा अच्छा लगता है क्या? रोके की रस्म तो घर पर ही होनी चाहिए...” कुसुम बोली.
“बस-बस मौसी, आप हमारी प्लानिंग की यूं बखिया मत उधेड़ो... इस बार हम बच्चों की चलेगी, आप बड़ों की नहीं. पिछले दो सालों से आप लोग हमें गर्मियों में घुमाने के नाम पर तीर्थयात्राएं करा रहे हैं और हम कुछ नहीं बोले, लेकिन इस बार नहीं. हमारी नम्रता दी का रोका हमारे हिसाब से ही होगा.” नव्या की बात को सभी बच्चों ने ज़ोरदार तरी़के से सपोर्ट किया.
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“अरे, अरे... रुको ज़रा, प्रोग्राम अकेले हमारा थोड़े ही है, लड़केवालों की भी तो सहमति चाहिए... उनसे भी तो बात करनी पड़ेगी...” नम्रता के चाचू मनमोहन ने अपना पक्ष रखा.
“आपको वो सब सोचने की ज़रूरत नहीं मामू, हमने जीजाजी से बात कर ली है, वे भी हमारे इस आइडिया से ख़ुश हैं और हां, हम रिसॉर्ट मैनेजर और ईवेंट प्लानर से भी बात कर चुके हैं. सब कुछ फाइनल है, आपको तो बस किराए और कैश का इंतज़ाम करना है, बाकी सब हम संभाल लेंगे...” नव्या पूरे शुक्ला गैंग की तरफ़ से हाथ नचाते हुए बोली.
सब बड़े सिर पकड़कर बैठ गए, “बाप रे, आजकल के बच्चे रॉकेट से भी तेज़ हैं...” कुसुम मौसी के कमेंट पर नव्या तपाक से बोली, “सही पकड़े हैं...” तो सब हंसने लगे.
“ठीक है, ठीक है, हमें कोई आपत्ति नहीं, पर एक बार ज़रा अपने बड़े पापा से भी पूछकर देख लो, कनवेंस मैं संभाल लूंगा, मगर कैश तो वहीं से निकलवाना है.” नम्रता के पिता रामेश्वर बोले.
उनका नाम आते ही सबको जैसे सांप सूंघ गया. “बड़े पापा क्यों मना करने लगे. मुझे पूरा यक़ीन है, उन्हें इसमें कोई आपत्ति न होगी...” नम्रता का स्वर आश्वस्त था.
“हां... हां दी, उन्हें भला क्या आपत्ति होने लगी, अगर उनकी लाडली भतीजी की बात हो, तो सारी आपत्तियां-विपत्तियां हवा हो जाती हैं. ये सब तो हम बाकी बचे-खुचे प्राणियों के समय ही निकल-निकल के आती हैं.” नम्रता के चचेरे भाई राघव की बात पर जब पूरे शुक्ला गैंग ने हां में हां मिलाई, तो नम्रता चिढ़कर मुंह फुलाकर बैठ गई.
दीप्ति मित्तल
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