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कहानी- बड़े पापा 2 (Story Series- Bade Papa 2)

नम्रता को याद आ रहा था कैसे बड़े पापा घर के सभी सदस्यों की ज़रूरतों का, उनकी सुविधाओं का ख़्याल रखते हैं. अपने लिए तो शायद ही कभी कुछ चाहा या मांगा हो. मेरे लिए तो वे मेरे पापा से भी बढ़कर हैं. वे सच में मेरे बड़े पापा हैं और वही मेरे जीवन के इतने बड़े पड़ाव पर मेरे साथ खड़े नहीं होंगे! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उन्हें होना ही होगा. इस दृढ़ निश्‍चय के साथ नम्रता उठी और बड़े पापा के कमरे में चली गई. वे खिड़की पर खड़े आकाश को निहार रहे थे. एक अजीब-सी तन्हाई और उदासी उनके चेहरे पर फैली थी. बात ग़लत भी नहीं थी. बड़े पापा का नम्रता से कुछ विशेष लगाव था, जो मौ़के-बेमौ़के ज़ाहिर हो ही जाता. बाकी बच्चों के साथ सख़्त कायदे-क़ानून से पेश आनेवाले बड़े पापा नम्रता की बात आते ही मोम की तरह पिघल जाते. इसका एक सबूत तो तब देखने को मिला था, जब नम्रता का आईआईटी में सिलेक्शन हुआ था. पूरा परिवार चाहता था कि नम्रता रुड़की आईआईटी में ही पढ़ाई करे. इस तरह वह घर में रहकर इंजीनियरिंग कर लेगी, मगर उसने मुंबई आईआईटी जाने की ज़िद पकड़ी थी. ऐसे में उसने अपने मन की बात बड़े पापा को बताई, तो वे सबको अपना फ़रमान सुनाते हुए बोले, “घर में यह सबसे समझदार बच्ची है, अगर इसने आईआईटी मुंबई जाने का फैसला लिया है, तो कुछ सोच-समझकर ही लिया होगा... इसे जाने दो.” यह सुनकर सब हैरान रह गए. बाकी बच्चे तो नम्रता के मुक़ाबले नासमझ ठहराए जाने पर ईर्ष्या से जल उठे. बड़े पापा के सपोर्ट से नम्रता आईआईटी मुंबई से पासआऊट होकर निकली और दिल्ली की एक कंपनी में जॉइन कर लिया. दूसरी बार उनका लगाव तब देखने को मिला, जब नम्रता ने अपने विजातीय सहकर्मी आयुष से प्रेमविवाह करने की ठानी. एक बार फिर पूरा परिवार उसके विरुद्ध हो गया. मगर बड़े पापा ने आयुष की छानबीन कराई, उसके परिवार से जाकर मिले और अकेले ही रिश्ता पक्का कर आए. घर आकर इतना भर कहा, “जिसमें बेटियों की ख़ुशी हो, वही करना चाहिए.” एक बार फिर उनकी बात सबको स्वीकारनी पड़ी. इन्हीं पूर्व अनुभवों ने नम्रता को आश्‍वस्त कर दिया था कि बड़े पापा उसका यह आग्रह भी मान लेंगे... मगर वह स्वयं अपने रोके की योजना कैसे बताती, सो यह ज़िम्मेदारी निर्मला बुआ के कंधों पर डाली गई. उन्होंने बड़े भाईसाहब से बात की और वे वाकई बिना किसी किंतु-परंतु के तैयार हो गए. साथ ही यह भी कह डाला, “ध्यान रहे, इंतज़ाम में कोई कमी न रह जाए, जो भी ख़र्च होगा उसकी मैं व्यवस्था कर दूंगा.” निर्मला ने सबको यह ख़ुशख़बरी सुनाई, तो उनके चेहरे खिल उठे. “बस, एक ही बात है, जो खटक रही है.” निर्मला बोली, तो सबके चेहरे पर प्रश्‍न चिह्न लग गया. “बड़े भाई साहब हमारे साथ मसूरी नहीं आ पाएंगे, कह रहे थे बिज़नेस में कुछ ज़रूरी डीलिंग चल रही है, तो किसी को तो देखनी पड़ेगी. तुम लोग जाओ, मैं यहां संभाल लूंगा.” “ओह! भाईसाहब भी ना, हमेशा ऐसा ही करते हैं. मुझे तो याद ही नहीं कि कभी वे हमारे साथ कहीं बाहर गए हों...” रामेश्‍वर के स्वर से नाराज़गी फूट रही थी. “वो भी क्या करें, सारा व्यापार वही तो संभालते हैं, कितने काम रहते हैं उन्हें,” कुसुम की बात दोनों भाइयों को तंज की तरह चुभ गई. बात सही भी थी. सारा बोझ बड़े भाईसाहब के कंधों पर डालकर सभी अपने संपन्न जीवन का आनंद उठा रहे थे. दोनों भाई सहयोग करते थे, मगर किसी सहायक से ज़्यादा नहीं. अपनी पत्नी और बच्ची को खोने के बाद बड़े भाईसाहब काम में डूब गए और दोनों भाइयों ने बजाय उन्हें उबारने के, अपने-अपने कंधे के बोझ भी उनके ऊपर डाल दिए और ख़ुद ज़िम्मेदारियों से मुक्त होते चले गए. “हमेशा की बात अलग थी, पर ये नम्रता के रोके की बात है. अगर नम्रता की जगह उनकी अपनी बेटी होती तो...” कहते-कहते नम्रता की मां रुक गई. यह भी पढ़ेमहिलाओं को क्यों चाहिए मी-टाइम? (Why Women Need Me-Time?) “अरे भाभी दुखी न हों. हम हैं ना. हम सब संभाल लेंगे. भाईसाहब वैसे भी कहीं आते-जाते नहीं हैं, इसलिए उनसे कुछ कहना-सुनना बेकार ही है. सालों से ऐसे ही चल रहा है और आगे भी ऐसा ही चलेगा. तुम उनके बारे में सोचकर जी छोटा मत करो. अब तो रोके की तैयारी के बारे में सोचो. स़िर्फ चार दिन बचे हैं.” मनमोहन के समझाने पर बड़े भाईसाहब के न चलने की बात को हमेशा की तरह सबने स्वीकार कर लिया. दिन तेज़ी से गुज़रने लगे. सभी अपनी-अपनी तैयारियों में जुटे थे, नम्रता भी. लेकिन इस बात से वह अंदर ही अंदर दुखी थी कि उसके रोके पर बड़े पापा साथ नहीं होंगे. आज रात जब वह सोने की कोशिश कर रही थी, तो बचपन से लेकर अब तक की वे समस्त मधुर स्मृतियां उसकी नज़रों के आगे तैरने लगीं, जो बड़े पापा से जुड़ी थीं. मां कहती थीं, उस एक्सीडेंट के बाद वे पहली बार तब मुस्कुराए थे, जब तुझे गोद में लिया था. तू जन्मी तो कहने लगे, ‘चलो कम से कम मेरी खोई हुई बिटिया तो वापस आई.’ उसका नम्रता नाम भी बड़े पापा का ही दिया हुआ था, जो उनकी अपनी बेटी का था. नम्रता को याद आ रहा था कैसे बड़े पापा घर के सभी सदस्यों की ज़रूरतों का, उनकी सुविधाओं का ख़्याल रखते हैं. अपने लिए तो शायद ही कभी कुछ चाहा या मांगा हो. मेरे लिए तो वे मेरे पापा से भी बढ़कर हैं. वे सच में मेरे बड़े पापा हैं और वही मेरे जीवन के इतने बड़े पड़ाव पर मेरे साथ खड़े नहीं होंगे! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उन्हें होना ही होगा. इस दृढ़ निश्‍चय के साथ नम्रता उठी और बड़े पापा के कमरे में चली गई. वे खिड़की पर खड़े आकाश को निहार रहे थे. एक अजीब-सी तन्हाई और उदासी उनके चेहरे पर फैली थी. नम्रता को आता देख वे थोड़े संयत हुए, “आओ बेटी.” “बड़े पापा, कल मेरे जीवन का इतना महत्वपूर्ण दिन है और आप ही की वजह से यह दिन आया है, पर आप ही वहां नहीं होंगे मुझे अपना आशीर्वाद देने के लिए.” “ये क्या कह रही हो बेटी, मैं वहां रहूं या न रहूं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, मेरा आशीर्वाद तो हमेशा ही तुम्हारे साथ है. वैसे भी, मैं नहीं तो क्या, बाकी सभी तो होंगे ही तुम्हारे साथ.” “बाकी सभी भले हों, मगर आप तो नहीं होंगे न और इस बात से मुझे फ़र्क़ पड़ता है. बहुत फ़र्क़ पड़ता है.” नम्रता आंखों में अनुग्रह लिए उदास स्वर में बोली. यह सुनकर बड़े पापा की आंखें भर आईं, स्वर रुंध गया. Deepti Mittal        दीप्ति मित्तल

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