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कहानी- बदलाव की आहट 1 (Story Series- Badlav Ki Aahat 1)

मैं किस बूते पर अपनी जीवनगाथा लिखने की ज़ुर्रत कर रही हूं? मैं एक सामान्य-सी गृहिणी! और एक गृहिणी के जीवन में आख़िर ऐसा होता ही क्या है, जिसे लिखा जाए. किसे रुचि होगी उसे जानने की? पर शायद यह पूर्ण सत्य नहीं है. कितना भी सामान्य व्यक्ति क्यों न हो, उसके जीवन की एक कहानी होती ज़रूर है. सब की अपनी अलग-अलग.   कहते हैं अमृता प्रीतम के सामने जब किसी ने अपनी आत्मकथा लिखने का सुझाव रखा, तो वह हंस कर बोलीं, "मेरी कहानी तो इतनी संक्षिप्त है कि एक रसीदी टिकट के पीछे ही पूरी लिख ली जाए." तो फिर मैं किस बूते पर अपनी जीवनगाथा लिखने की ज़ुर्रत कर रही हूं? मैं एक सामान्य-सी गृहिणी! और एक गृहिणी के जीवन में आख़िर ऐसा होता ही क्या है, जिसे लिखा जाए. किसे रुचि होगी उसे जानने की? पर शायद यह पूर्ण सत्य नहीं है. कितना भी सामान्य व्यक्ति क्यों न हो, उसके जीवन की एक कहानी होती ज़रूर है. सब की अपनी अलग-अलग. एक बात और, कब सामान्य-सी चलती ज़िंदगी की गाड़ी एक अप्रत्याशित मोड़ ले कर मुड़ जाए यह कौन जानता है? हमारी बेटी वैदेही का तीसरा जन्मदिन है आज. मैंने उसे पारिवारिक आयोजन तक ही सीमित रखने की सोची थी. उसकी छोटी बुआ शहर में ही रहती हैं, जिसके बच्चों के साथ वैदेही की बनती भी ख़ूब है. उन्हें बुला लेंगे और कहीं घूम आएंगे. परन्तु अपने पापा की लाडो का जन्मदिन ऐसे साधारण तरीक़े से कैसे मन जाता? कपिल ने कहा, "ज़रूरी नहीं कि राजा की बेटी ही राजकुमारी हो, मेरे लिए तो यही मेरी राजकुमारी है और उसी धूमधाम से मनाया जाएगा इसका जन्मदिन भी." सिर्फ़ अपने लोगों से ही प्यार नहीं करते कपिल. एक अंतहीन ख़ज़ाना ही है प्यार-मोहब्बत का उनके पास. बांटकर भी जो क्षय नहीं हो सकता. परायों में भी बंटता है, तो मैं और वैदेही तो उस ख़ज़ाने के पूरे हक़दार थे. बच्चे यूं भी कपिल को बहुत प्यारे हैं. राह चलते कोई बच्चा दिख जाए, तो एक मधुर मुस्कान उसके हिस्से भी आ जाती हैं. बुआ के बच्चे वैदेही की हमउम्र हैं. बेटी एक वर्ष छोटी और बेटा वर्षभर बड़ा. आस-पड़ोस के, अन्य परिचितों के सब बच्चों को बुलाया गया वैदेही का जन्मदिन मनाने. जो बच्चे छोटे थे उनके मम्मी-पापा भी संग आए. ख़ूब धमाचौकड़ी मची- आनन्द और उत्साह से भरी. पर आठ बजते-बजाते बच्चे उनींदे होने लगे और एक-एक करके घर लौटने लगे, तो वैदेही उदास हो गई, विशेषकर बुआ के बच्चों के जाने के पश्चात तो और भी. किन्तु दूसरे दिन छुट्टी नहीं थी, तो किसी को रोकते भी कैसे? सब के जाने पर बिखरा सामान समेटने में बारह बज गए. अब तक उत्साह के कारण थकावट का पता नहीं चल रहा था, जो अब महसूस होने लगी. यूं तो वैदेही मेरी बगल में रखी बेबी कॉट में अलग ही सोती है, पर आज मेरे पास पलंग पर खिसक आई, तो पापा ने उसे उठाकर हम दोनों के बीच ही लिटा दिया. यह भी पढ़ें: कोविड-19 में पिता बने पुरुषों की दिल को छू लेनेवाली आपबीती… (#Fathers Day Special: Fathers Heart Touching Story…) "पापा सुनो न..." एक-दो बार दोहराने के बाद बोली, "जैसे बुआ के घर दो बच्चे हैं, वैसे हमारे घर क्यों नहीं हैं पापा? हमारे घर भी दो बच्चे होने चाहिए." पापा अपनी लाड़ों की बात कैसे न मानते. मुस्कुराते हुए पूछा, "अच्छा यह बताओ तुम्हें भाई चाहिए या बहन?" "कोई भी हो, पर मेरे जितना बड़ा होना चाहिए. जो मेरे साथ खेल सके." उसने अपनी बालबुद्धि का उचित प्रयोग कर निर्णय सुनाया. अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें... Usha Wadhwa उषा वधवा अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES

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