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कहानी- बिना चेहरे की याद 4 (Story Series- Bina Chehre Ki Yaad 4)

''जीवन में जो रंग हमें मिले हों, वे भले ही हमें पसंद न हों, लेकिन वे ख़ूबसूरत नहीं हैं, ऐसा नहीं है. हो सकता है ये हमारी पसंद के रंगों से भी अधिक ख़ूबसूरत हों. मानो तुम्हें आसमानी या नारंगी या बैंगनी रंग पसंद है. लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि पीला, हरा या लाल रंग सुंदर नहीं है. हो सकता है तुम्हारे जीवन में आसमानी रंग की बजाय बसंती पीला रंग अधिक जंचता हो. है ना? हो सकता है जीवन थोड़ा आसान हो जाए. ज़रूरत है बस रंगों को आपस में बेहतर ढंग से संयोजित करने की, उनकी विविधता के साथ अपने पसंदीदा रंगों को ख़ूबसूरती के साथ मिलाने की. कई बार विपरीत स्वभाववाले रंगों का कॉम्बिनेशन बहुत ही सुंदर प्रभाव उत्पन्न करता है.” …अगर दुनिया के सभी लोग आंख बंद करके अपनी यादों में अपनी ख़्वाहिशों का चेहरा सच्चे मन से देखने की कोशिश करेंगे, तो मेरा दावा है निन्यानवे प्रतिशत लोगों की यादें बिना चेहरे की होंगी. कुछ लोग तो याद ही नहीं कर पाएंगे, क्योंकि एक लंबी उम्र गुज़ारने के दौरान इंसान भूल ही जाता है कि उसके अतीत की ख़्वाहिश का चेहरा कैसा था? वह वर्तमान के चेहरे से मिलता भी है या बिल्कुल अलग था?... दो दिन मुक्तेश्वर और उसके आसपास घूमकर हम तीसरे दिन वापस नैनीताल आ गए. दोपहर को हम लोग स्थानीय बाज़ार में टहल रहे थे. अंजना ग्रुप के बीच में काफ़ी सहज लग रही थी. दो दिनों में उसके व्यक्तिगत जीवन का थोड़ा-बहुत परिचय पा गया था. सरस्वती की पुजारिन को लक्ष्मी का उपासक मिला. कोमल भावनाओं में खोई रहनेवाली को कठोर यथार्थवादी के साथ चलने को मजबूर होना पड़ रहा है. दोनों के मानसिक धरातलों में ज़मीन-आसमान का अंतर था, इसलिए तालमेल बिठाने में मुश्किलें हैं. यथार्थवादी अपने काम में इतना डूबा हुआ है कि जीवन की कोमलता उसे छू भी नहीं पाई है. स्वभाव और व्यवहार से किसका मन और जीवन छलनी हो रहा है, उसे इसका आभास तक नहीं है. पर समय-समय पर छलनी होते हुए मन की पीड़ा को सहते हुए अंजना आख़िर कैसे और कब तक जिए, कैसे सहे? “जीवन में बहुत सारे रंग होते हैं अंजना. कुछ रंग हमें पसंद होते हैं, कुछ नहीं. हम अपनी पसंद के रंगों को या यूं कहो फेवरेट रंगों को बड़े प्यार से स्वीकारते हैं, उन्हें सहेजते हैं, उनके साथ ही ख़ुश रहते हैं और जो रंग हमारी पसंद के नहीं होते हैं, उन्हें हम अस्वीकार कर देते हैं, क्योंकि वे हमारे मन को नहीं सुहाते. हमारे मन मुताबिक नहीं होते. हम उनके साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते और जीवनभर दुख पाते रहते हैं. यह भी पढ़ें: पति की ग़लत आदतों को यूं छुड़ाएं जीवन में जो रंग हमें मिले हों, वे भले ही हमें पसंद न हों, लेकिन वे ख़ूबसूरत नहीं हैं, ऐसा नहीं है. हो सकता है ये हमारी पसंद के रंगों से भी अधिक ख़ूबसूरत हों. मानो तुम्हें आसमानी या नारंगी या बैंगनी रंग पसंद है. लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि पीला, हरा या लाल रंग सुंदर नहीं है. हो सकता है तुम्हारे जीवन में आसमानी रंग की बजाय बसंती पीला रंग अधिक जंचता हो. है ना? हो सकता है जीवन थोड़ा आसान हो जाए. ज़रूरत है बस रंगों को आपस में बेहतर ढंग से संयोजित करने की, उनकी विविधता के साथ अपने पसंदीदा रंगों को ख़ूबसूरती के साथ मिलाने की. कई बार विपरीत स्वभाववाले रंगों का कॉम्बिनेशन बहुत ही सुंदर प्रभाव उत्पन्न करता है.” नैनी झील के पास बने बाज़ार में घूमते हुए मैं कहता रहा. पलभर को अंजना ठिठककर खड़ी हो गई और आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए बोली, “सर आप बॉटनी के प्रो़फेसर कैसे बन गए? आपको तो चित्रकार होना चाहिए था.” और हम दोनों ही खिलखिलाकर हंस दिए. “मैं अपने मन के रंगों और जीवन के रंगों में तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करूंगी सर. या फिर अपनी ख़्वाहिशों की प्राथमिकता में परिवर्तन करने की कोशिश करूंगी.” कुछ देर बाद गंभीर, पर स्थिर स्वर में अंजना मुझसे बोली. दूसरे दिन सुबह बरेली से हमारी वापसी की ट्रेन थी और तीसरे दिन हम भोपाल पहुंच गए. स्टूडेंट्स को बस से कॉलेज ले गए. वहां पर उनके पैरेंट्स आए हुए थे. सबको सुरक्षित घर की ओर रवाना करके अंत में हम स्टाफ़ मेम्बर्स भी आपस में विदा लेकर अपने घरों की ओर निकल पड़े. दूसरे दिन कॉलेज की छुट्टी थी. अंजना मुझसे विदा लेकर घर जाने लगी. मैं उसे देखकर सोचने लगा, अंजना आज भी अपनी याद को कोई चेहरा न दे पाने के अंतर्द्वंद्व में जी रही है. एक पीड़ा भोग रही  है. एक गहरी सांस लेकर मैंने मन ही मन कहा, अंजना की ख़्वाहिशों को उनका चेहरा मिल जाए, उसकी यादों को एक चेहरा मिल जाए. उसके जीवन के विविध रंगों का सुंदर तालमेल बन जाए. बिखरे रंग एक हो जाएं. मन ही मन उसे शुभकामनाएं देकर मैं अपने घर की ओर चल दिया. उसके लिए मैं इससे अधिक और कुछ कर भी तो नहीं सकता था. डॉ. विनिता राहुरीकर

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