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कहानी- दो मोर्चों पर 2 (Story Series- Do Morchon Par 2)

पैसा कमाने की मशीन बन गई मैं. तबीयत ख़राब होने पर सहानुभूति की बजाय क्रोध दर्शाया जाता. बुरा तब लगता, जब रमन भी वही रवैया अपनाते. मुन्ना मुझ अकेले का तो नहीं, उसे ही संभाल लेते, तो भी थोड़ी राहत मिलती. कभी मैं उनके हाथ में ज़बर्दस्ती दे भी देती, तो यह कहकर तुरंत लौटा देते, “यह काम मेरे बस का नहीं.” मैंने अनेक बार प्यार से समझाने की कोशिश की, परंतु कुछ असर नहीं पड़ा. कभी सहायता का हाथ बढ़ाते भी तो डैडीजी टोक देते, “क्या महिलाओंवाले काम कर रहे हो?” दीदी को बचपन से ही अध्यापिका बनने का शौक था. आसपास के छोटे बच्चों को इकट्ठा कर और मां का दुपट्टा साड़ी की तरह लपेट उन्हें पढ़ाने का अभिनय करतीं. कभी बच्चे न जुटते, तो अपने गुड्डे-गुड़ियों एवं अन्य खिलौनों को पंक्तिबद्ध बिठाकर पढ़ाने लगतीं. मुझसे तीन वर्ष बड़ी थीं, मुझे तो वास्तव में ही होमवर्क इत्यादि में सहायता करतीं. यूं तो मां भी बीए पास थीं और बचपन में हमें वही पढ़ाती थीं, किन्तु आजकल के विषय यथा कंप्यूटर और विज्ञान में दीदी ही सहायता करती थीं. दीदी ने एमएससी करने के पश्‍चात बीएड किया और एक अच्छे से स्कूल में नौकरी भी करने लगीं. मां संतुष्ट थीं कि जैसा चाहा वैसा ही हुआ सब. दीदी विवाह पश्‍चात भी अपनी नौकरी क़ायम रखे थीं. मेरा ध्येय डॉक्टर बनने का था. प्रारंभ से ही मेरी विज्ञान में रुचि थी. मेहनत की और मेडिकल में दाख़िला भी पा गई. एमडी के अंतिम वर्ष में मेरा विवाह डॉ. रमन के साथ हो गया. यह तो बाद में पता चला कि उनके लिए विवाह का अर्थ कोई नेह बंधन नहीं, तौलकर की हुई तिज़ारत थी. रमन के पिता ने अपनी अति साधारण-सी नौकरी से बेटे को मेडिकल तो करवा दिया था, अब अपना एक नर्सिंग होम बनाना पिता-पुत्र का सपना था. लेकिन पूंजी का सख़्त अभाव था. दो कमरों का एक छोटा-सा फ्लैट, वह भी किराए का. एक कमरे में रमन के मम्मी-डैडी, एक में हम. मैं तो इससे भी तृप्त थी, परंतु इसमें उस सपने को पूरा करने की गुंजाइश नहीं थी. उसी योजना का हिस्सा था- एक डॉक्टर लड़की से विवाह करना. इसमें एक लाभ बाद में एक डॉक्टर का वेतन बच जाने का भी था. यह भी पढ़ेलघु उद्योग- इको फ्रेंडली बैग मेकिंग: फ़ायदे का बिज़नेस (Small Scale Industries- Profitable Business: Eco-Friendly Bags) एमडी समाप्त होते ही मुझे उसी अस्पताल में नौकरी भी मिल गई. स्त्री रोग विशेषज्ञ होने के कारण मुझे कई बार लौटने में देर हो जाती और कभी असमय भी जाना पड़ जाता. उस पर रमन के डैडी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया, “अस्पताल में भले ही तुम डॉक्टर हो, पर घर में बहू बनकर रहना होगा.” अर्थात् रसोई संभालना एवं भाग-भागकर सब की फ़रमाइशें पूरी करना मेरा कर्त्तव्य था. उस पर मम्मीजी का कहना था कि मेडिकल की लंबी पढ़ाई में उम्र यूं ही आगे खिसक जाती है, अत: बच्चे का जन्म अब और टाला नहीं जा सकता. सो एमडी पूरी करते ही यह मांग भी पूरी कर दी. पांच माह की छुट्टी तो मिल गई, किन्तु उसके बाद काम पर जाना शुरू करना ही था. बड़े-बड़े सपनों के बीच आया रखने की गुंजाइश नहीं थी. अस्पताल से लौटती, तो मुन्ने को पकड़ाकर मम्मीजी कहतीं, “लो संभालो इसे.” और जाकर लेट जातीं. कपड़े बदलने तक का समय न मिलता मुझे. मुन्ना तो दोपहर में अपनी नींद पूरी कर चुका होता. रसोई में ही उसे झूले में लिटा सब को चाय देती, स्वयं वहीं खड़े-खड़े पीकर रात के भोजन की तैयारी में जुट जाती. इमर्जेंसीवाले दिन प्रायः देर हो जाती, तो ताना सुनने को मिलता, “कहां लगा दी इतनी देर? मुन्ने ने थका दिया है.” पैसा कमाने की मशीन बन गई मैं. तबीयत ख़राब होने पर सहानुभूति की बजाय क्रोध दर्शाया जाता. बुरा तब लगता, जब रमन भी वही रवैया अपनाते. मुन्ना मुझ अकेले का तो नहीं, उसे ही संभाल लेते, तो भी थोड़ी राहत मिलती. कभी मैं उनके हाथ में ज़बर्दस्ती दे भी देती, तो यह कहकर तुरंत लौटा देते, “यह काम मेरे बस का नहीं.” मैंने अनेक बार प्यार से समझाने की कोशिश की, परंतु कुछ असर नहीं पड़ा. कभी सहायता का हाथ बढ़ाते भी तो डैडीजी टोक देते, “क्या महिलाओंवाले काम कर रहे हो?” मम्मी-डैडी तो चलो पुराने विचारवाले थे, परंतु रमन को तो उन्हें समझाना चाहिए था कि जब मैं कमाने में उनका पूरा साथ दे रही हूं, तो घर संभालने में उन्हें भी मेरा साथ देना चाहिए था. बेटा दो वर्ष का हो चुका है. एक बार सोचा कि उसे घर पर ही छोड़ जाऊं. शोकवाले घर में परेशान हो जाएगा, पर कोई आशा नहीं थी कि कोई हामी भरेगा, अत: चुपचाप उसे संग ले आई हूं. देर शाम तक लोगों का आना-जाना लगा रहा, अच्छा हुआ पड़ोसवाली आंटी पिछले दरवाज़े से चाय लाकर पिला गईं. खाना लाने की भी ज़िद कर रही थीं. बड़ों का तो कुछ खाने का मन ही नहीं और दीदी की दोनो बेटियां अपने घर पर हैं. मुन्ने के लिए आंटी खाना ले आई हैं और उसे खिला दिया है. पापा को भी उनके कमरे में लिटा दिया है. जगे हैं या सोए पता नहीं. आज की रात मैं एकदम अकेली बैठना चाह रही थी मां के पास. आज मुझे उनसे बहुत-सी बातें करनी हैं. usha vadhava         उषा वधवा

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