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कहानी- गठबंधन 3 (Story Series- Gathbandhan 3)
“उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता और जब थोड़ी-बहुत कर सकता था तब...” शायना के तल्ख स्वर ने बात काट दी. लेकिन फिर ख़ुद को संयत करके अपना वाक्य भी अधूरा छोड़ दिया.
लेकिन जैसा शायना ने सोचा था, चाची ग़ुस्सा कर उठकर चली नहीं गईं. उसकी आंखों में झांककर बोली, “जब कर सकता था तो? क्या नहीं किया किसी ने? जो किया वो दिखाई नहीं देता तुम्हें? बोलो! ऐसा क्या था, जो हम कर सकते थे और हमने नहीं किया?” कमरे में स्तब्धता छा गई.
“उठकर नहा लो. आज केवल एक रस्म है. पंडितजी तुम्हारी कलाई पर कलावे की कुछ गांठें बांधेंगे, जो तुम्हारा दूल्हा खोलेगा.” रेहा मौसी ने दुलार से जगाते हुए कहा, तो अलसाई शायना यंत्रवत-सी नहाकर पूजा की चौकी पर बैठ गई.
“हमारे शास्त्रों में शादी की हर रस्म का कोई प्रतीक है. कोई मतलब है. ये गांठें मन की कुंठाओं और दुराग्रहों-पूर्वाग्रहों की प्रतीक होती हैं. ये दोनों की कलाइयों पर बांधी जाती हैं और शादी के बाद एक साथ छोड़े जाने से पहले मंदिर में बैठाकर दोनों से एक-दूसरे की गांठें खुलवाई जाती हैं. इसका मतलब है मन का मिलना शरीर के मिलने से पहले और ज़्यादा ज़रूरी है...” उफ़! आज पंडितजी शुरू हो गए. शायना का मन झुंझला उठा.
आज कोई कार्यक्रम नहीं रखा गया था, ताकि सबको थोड़ा आराम मिल जाए. घर में शांति थी. आन्या-मान्या पार्लर गई थीं, तो दिन में बड़ी-बूढ़ियां खाना लेकर उसके कमरे में आ धमकीं.
“सब कुछ इतना अच्छा मिला है, पर तुम्हारे चेहरे पर ख़ुशी क्यों नहीं है लाडो रानी?” चाची ने खाने के बाद बिना किसी लाग-लपेट के सीधा प्रश्न दाग दिया.
“ख़ुशियां तो सब मम्मी-पापा के साथ चली गईं.” फीकी मुस्कान के साथ फीका-सा उत्तर.
लेकिन चाची तो जैसे ज़ख़्म कुरेदने का संकल्प लेकर आईं थीं.
“देखो, हम सब तुम्हारे साथ हैं. कोशिश तो कर रहे हैं कि उनकी कमी...”
“उनकी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता और जब थोड़ी-बहुत कर सकता था तब...” शायना के तल्ख स्वर ने बात काट दी. लेकिन फिर ख़ुद को संयत करके अपना वाक्य भी अधूरा छोड़ दिया.
लेकिन जैसा शायना ने सोचा था, चाची ग़ुस्सा कर उठकर चली नहीं गईं. उसकी आंखों में झांककर बोली, “जब कर सकता था तो? क्या नहीं किया किसी ने? जो किया वो दिखाई नहीं देता तुम्हें? बोलो! ऐसा क्या था, जो हम कर सकते थे और हमने नहीं किया?” कमरे में स्तब्धता छा गई. शायना थोड़ी देर उन लोगों की उलाहनेवाली मुद्रा और सख़्त आंखों को पढ़ती रही फिर थोड़ी उग्र हो गई, “क्या नहीं किया? किया क्या आप लोगों ने? कुछ दिन मम्मी-पापा को देखने हॉस्पिटल आ गए. कुछ दिन खाना बनाकर घर भेज दिया. इसी को करना कहती हैं आप?”
“नहीं तो और किसे करना कहते हैं? हर समय नाक पर ग़ुस्सा रखनेवाली बिगड़ैल आन्या को अपने घर रखकर अपने बच्चों को बिगाड़ते या हर कक्षा में मुश्किल से पास होनेवाली मान्या को उत्तीर्ण कराने का सिरदर्द मोल लेते या तुम्हारे ससुरालवालों के आगे नाक रगड़ते कि...?”
शायना से और सुना न गया. वो फट पड़ी, “नाक रगड़ना? इतना ही तो कहा था उन्होंने कि कोई दो रिश्तेदार स्पष्ट शब्दों में कह दें कि वो दोनों बहनों की ज़िम्मेदारी ले रहे हैं.
... उनकी परवरिश के लिए मम्मी-पापा की पेंशन थीं, शिक्षा और शादी के लिए उनके बीमे और भविष्यनिधि के पैसे थे, रहने के लिए हमारा अपना घर था... ज़िम्मेदारी में था क्या जो...
करना तो उसे कहते जब वो आर्थिक सहायता मिलती, जिसके लिए इतनी उम्मीद से गिड़गिड़ाई थी मैं सबके आगे कि मम्मी-पापा को प्राइवेट अस्पताल में शिफ्ट करना चाहती हूं. आज भी लगता है अगर... पर वो तो कोरी भावुकता थी आप सबके लिए...” शायना फफक पड़ी. फिर न जाने कितनी देर आंसुओं का सैलाब गिले-शिकवों और मन में जमें अवसाद की मिट्टी को बहाता रहा. हर मोड़ पर महसूस किया एकाकीपन शब्दों में ढलता रहा. सब औरतें चुपचाप सुनती रहीं, सुनती रहीं...
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आख़िर शायना थक गई. अब की बुआ आगे बढ़ीं और प्यार से उसकी ठुड्डी पकड़कर चेहरा ऊपर उठा दिया. "बस? और कुछ? कोई गांठ रह गई हो, तो वो भी खोल ले लाडो. हम सब बैठे हैं यहीं."
“ले, पहले पानी पी ले.” कहकर मामी ने ठंडे पानी का ग्लास आगे किया, तो शायना ने चकित-सी पलकें उठाईं. देखा, सबकी आंखों में अपनापन था और होंठों पर हमदर्द मुस्कान. इतनी जली-कटी सुनने के बाद भी? शायना का आश्चर्य थोड़ा बढ़ गया.
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें...
भावना प्रकाश
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