“हाय निशा, कैसी हो? यह क्या हाल बना रखा है? अपनी पत्नी का कुछ तो ध्यान रखा करो दामादजी.” मम्मी का चिर-परिचित अंदाज़ उसे अच्छी तरह से पता था. कुछ ही मिनटों में सारे घर में उनके ठहाके की आवाज़ गूंज रही थी. उनका नाम भी उनके व्यक्तित्व की भांति ही था- आनंदी! चारों ओर आनंद बिखेरनेवाली.
सुबह घड़ी के अलार्म की आवाज़ के साथ ही निशा की दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी. पति अमित तथा बच्चों के लिए नाश्ता बनाने, बच्चों को स्कूल भेजने तक वह चक्की की तरह पिसती रहती. अमित के ऑफ़िस जाने के बाद ही उसे सुस्ताने का समय मिल पाता. फिर रोज़मर्रा के कार्य निपटाते-निपटाते व़क़्त कब गुज़र जाता, पता ही नहीं चलता. अगले दिन फिर वही दिनचर्या, परंतु यह तो उसका कर्त्तव्य था, जिसका वह निर्वाह कर रही थी. निर्वाह, हां यही तो उसके जीवन में शेष था. सदैव अपने कर्त्तव्यों का ही तो निर्वाह करती आयी थी वह, परंतु इन कर्त्तव्यों के नीचे दबकर उसका अपना व्यक्तित्व कब और कहां खोता चला गया, वह ख़ुद नहीं जान पायी.
जीवन की यह अविरल धारा यूं ही पूर्ववत चलती रहती, यदि उसे मम्मी के आने की सूचना न मिलती. उस सूचना के मिलते ही उसकी सारी ज़िंदगी एक पल में जैसे ठहर-सी गयी थी. उसकी वही तिल-तिल पिसती हुई ज़िंदगी, उस पर मम्मी के आने की सूचना जैसे बोझ के ऊपर कोई और बोझ भी लाद दिया गया हो.
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हर रोज़ घर की साफ़-सफ़ाई करते हुए उसे कुछ ख़ास परेशानी नहीं होती थी, परंतु आज पता नहीं उसे क्या हो गया था. ऐसा लग रहा था जैसे किसी पराये के स्वागत की तैयारी करनी है, लेकिन.... लेकिन वह कोई परायी तो नहीं थी, उसकी अपनी मां थी. फिर यह घुटन क्यों? विचारों का सागर यूं ही घुमड़ता रहता यदि कॉलबेल का स्वर उसकी तन्द्रा भंग न करता.
“हाय निशा, कैसी हो? यह क्या हाल बना रखा है? अपनी पत्नी का कुछ तो ध्यान रखा करो दामादजी.” मम्मी का चिर-परिचित अंदाज़ उसे अच्छी तरह से पता था. कुछ ही मिनटों में सारे घर में उनके ठहाके की आवाज़ गूंज रही थी. उनका नाम भी उनके व्यक्तित्व की भांति ही था- आनंदी! चारों ओर आनंद बिखेरनेवाली.
मां के व्यक्तित्व के सम्मुख उसे स्वयं का व्यक्तित्व बहुत ही छोटा और फीका-सा प्रतीत होता था. शायद यही वजह थी कि मां के सामने बैठकर भी वह वहां नहीं थी. सबके होते हुए भी एक अजीब-सा अकेलापन महसूस कर रही थी.
- अंकुर सक्सेना
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