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कहानी- लम्हे 3 (Story Series- Lamhe 3)

मुझे नहीं पता कि मैं क्या-क्या बोली, कितना बोली और कब वो मुझसे सटकर बैठ गया और उसकी एक बांह मुझे लपेटकर मेरे कंधे थपथपाने लगी. मैं तो बस अपनी दोनों हथेलियों में मुंह ढांपकर रोती ही चली जा रही थी. होश आया, तो नज़दीकियों के एहसास से संकोच हो आया. मैंने अपने आंसू पोंछे, तो लगा शरीर का सारा पानी बह गया है. मेरा गला बुरी तरह सूख रहा था. मैंने थूक गटककर कुछ नमी लाने का प्रयास किया. “आई एम सॉरी, मैं कुछ ज़्यादा ही...” मेरे मुंह से निकला. वो मुस्कुराकर उठ गया. “आजकल हम लोग उस नदी पर बांध बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. प्राकृतिक प्रवाहों पर दीवारें तो बननी ही नहीं चाहिए. जानती हैं, हम बांध बनाए जाने का विरोध क्यों करते हैं? लोग नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोक देते हैं अपनी कृत्रिम ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, लेकिन जब वो ख़ुद को बांधे जाने का दबाव सहन नहीं कर पाती, तो सारे बंधन तोड़ देती है. और उस समय जो तबाही आती है, वो कई गुना बड़ी होती है, क्योंकि बंधन के कारण उसका वेग कई गुना हो गया होता है.” कहकर उसने वक्ता का माइक ख़ामोशी के लिए खाली कर दिया और एक सम्मोहक मुस्कान के साथ मेरी ओर देखने लगा. “मगर बाढ़ तो वहां भी तबाही लाती है, जहां बांध नहीं बनाए जाते. हर नदी ख़ुद भी तो कभी-न-कभी किनारे तोड़ती  है.” “नहीं, नदी कभी किनारे नहीं तोड़ती. हमने उसके किनारों को ग़लत परिभाषित किया होता है. आपने वो मुहावरा सुना है- ‘डोंट टेक मी फॉर ग्रॉन्टेड’ नदी बस उतना ही कह रही होती है. अब बताइए अगर कोई किसी ट्रेन में आरक्षण कराए और दिन के समय किसी और को अपनी सीट के थोड़े हिस्से पर बैठ जाने दे, तो क्या रात को लेटने के लिए अपनी सीट खाली करने को कहना उसका अधिकार नहीं है? इसी प्रकार अतिक्रमण हमने किया होता है उसकी सीमाओं का, जिस जगह हमने अपनी सुविधा के सामान बनाए होते हैं, वो दरअसल, उसकी ही भूमि होती है. इसे ‘भाखर भूमि’ कहा जाता है. उस पर अति ये कि हम उसकी सुधार परियोजनाओं के नाम पर उसे अपने हिसाब से ढालने या सुंदर बनाने की कोशिश करते जाते हैं. कहीं उसके तट पक्के कर दिए, तो कहीं घाट बना दिए, तो कहीं आरती उतारनी शुरू कर दी. अरे भाई! वो यूं ही बहुत ख़ूबसूरत है और तृप्त भी. उसे न हमारे दिए कृत्रिम प्रसाधनों की ज़रूरत है और न ही आरती की. इन सबसे उसका दम सबसे ज़्यादा घुटता है. हम उसके किनारों का सम्मान कर लें, उसे उसका स्पेस दे दें, उतना ही बहुत है उसके लिए. वो तो उसके पास भाषा नहीं है, नहीं तो...” “भाषा होती भी तो क्या कर लेती? हमारे पास तो भाषा है, फिर भी क्या हम दूसरों को उनके अतिक्रमण के लिए आगाह कर पाते हैं? क्यों बनाने देते हैं हम ये कृत्रिम दीवारें? क्यों करने देते हैं अतिक्रमण? क्यों नहीं जीने देते लोग किसी को सहजता से, चैन से? न एक-दूसरे को न... न...” मुझे लग रहा था मैंने उसकी सीधी-सी बात का अर्थ अपने ऊपर लेकर क्यों उसे उलझन में डाल दिया है, पर अपने आवेगों को संभालना अब मेरे नियंत्रण से बाहर हो चुका था. मैं फूट-फूटकर रो पड़ी. जाने कितनी देर, नहीं जाने कितने युगों तक. एक मध्यम वर्ग के संयुक्त परिवार के सख़्त बंधनों में पली लड़की. उसके रूप पर रीझकर एक उच्च वर्ग के लड़के का उससे शादी करना. पति का विपरीत स्वभाव. पति की उसके स्वभाव से सारी सहजता, सरलता, औदार्य निकालकर अभिजात्य वर्ग के बनावटीपन में ढालने की निर्मम कोशिश. उफ़़्फ्! उस परिवेश में ढलने की कंटीली बाध्यता, न ढल सकने पर मिलनेवाले तानों की चुभन, व्यावसायिक पार्टियां, मांस-मदिरा, शोर-शराबा, जो कुछ भी मुझे पसंद नहीं, उसे नकली मुस्कान ओढ़कर करते जाने की मजबूरी और कुछ भी मन का न कर पाने की कसक. मुझे नहीं पता कि मैं क्या-क्या बोली, कितना बोली और कब वो मुझसे सटकर बैठ गया और उसकी एक बांह मुझे लपेटकर मेरे कंधे थपथपाने लगी. मैं तो बस अपनी दोनों हथेलियों में मुंह ढांपकर रोती ही चली जा रही थी. यह भी पढ़ेजानें प्यार की एबीसी (The ABC Of Love) होश आया, तो नज़दीकियों के एहसास से संकोच हो आया. मैंने अपने आंसू पोंछे, तो लगा शरीर का सारा पानी बह गया है. मेरा गला बुरी तरह सूख रहा था. मैंने थूक गटककर कुछ नमी लाने का प्रयास किया. “आई एम सॉरी, मैं कुछ ज़्यादा ही...” मेरे मुंह से निकला. वो मुस्कुराकर उठ गया. ट्रे में पानी की बड़ी बोतलें, ग्लास और दो बड़े प्यालों में कुछ था. “पानी पी लीजिए, फिर कुछ खा भी लीजिए. मैं अच्छा कुक तो नहीं हूं, पर भूख लगी होगी.” कहकर वो बेड के पासवाली सेटी पर बैठ गया. सहसा मुझे जोंक याद आईं. वो मेरी आंखों में डर पढ़कर ही हंस दिया, “बारिश बंद हो गई है और जोंक अपने घर जा चुकी हैं.” मैंने खिड़की से बाहर झांका. बारिश रुक गई थी, लेकिन तीव्र गति से उमड़ते बादल जाने कहां भागे जा रहे थे. कभी चांद को ढंक लेते, तो कभी चांदनी कमरे में झिटक आती. मुझे लगा मेरा मन दृश्य बनकर बाहर पसर गया था. ‘ये क्या हो गया था मुझे? bhavana prakash  भावना प्रकाश

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