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कहानी- लव में थ्रिल 4 (Story Series- Love Mein Thrill 4)
चार दिन बाद मैं पगलाया सा सौम्या के घर के बाहर खड़ा हुआ डोरबैल बजाने की हिम्मत जुटा रहा था. तभी ऊपर बालकनी से सौम्या ने मुझे देख लिया. वो भागकर बाहर आई और मुझे अपने घर की एक तरफ़ धकेल दिया. शायद वो मुझे अपने घरवालों की नज़रों से बचाना चाहती थी.
अब कुछ कहने-सुनने की हिम्मत नहीं बची थी, अब बस एक ही उम्मीद बाकी थी, चाचाजी. मन-ही-मन सोचने लगा आज ही चाचाजी से सौम्या के लिए अपनी बात चलाने को कहूंगा. चार दिन ही बचे हैं वीकेंड आने में... अगर उससे पहले कुछ हो जाए तो...
मैं एक ज़रूरी काम का बोल वहां से उठ गया और घर आकर सबसे पहले चाचाजी को फोन किया. मैंने उनको बिना लाग लपेट के सारी बात बता दी और साथ ही ये भी कह दिया मेरी ज़िंदगी की नैया अब उनके हवाले है... इतना कहते ही उनकी तरफ़ से जो झाड़ पड़ी उसे क्या बताऊं...
“आज मजनूं बने बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो और जब इसी लड़की का फोटो और बायोडेटा भिजवाया था, तब क्या हुआ था... तब तो नज़रभर देखना गवारा नहीं था तुम्हें?”
“क्या... सौम्या की फोटो और बायोडेटा!” ये बात सुन मेरे ऊपर जैसे बिजलियां गिर पड़ी. ऐसा पाप, ऐसा गुनाह मुझसे कब हो गया? और इसके लिए मैं किसी और को दोषी भी तो नहीं ठहरा सकता था... कितनी बार मैं घरवालों के जुटाए फोटो-बायोडेटा को मनगढंत बातें बनाकर बिना देखे ही मना कर दिया करता था... गुनाह तो मुझसे हुआ है, मगर क्या इसकी कोई माफ़ी, कोई प्रायश्चित नहीं है? मैं अपनी इगो ताक पर रख मिन्नतों पर उतर आया, तब जाकर चाचाजी का सुर थोड़ा नरम हुआ.
“देखो बेटा, मैं उसका रिश्ता लेकर आया था और तुम्हारी ना होने पर मैंने उन्हें बहाने बनाकर मना किया और अब जहां उसकी बात चल रही है ना, वो भी मेरा ही सुझाया हुआ रिश्ता है... बहुत भले लोग हैं, लड़का भी हीरा है... अब मैं कुछ नहीं कर सकता. हां, बस इतना कर सकता हूं कि कोई और अदद लड़की नज़र में आए, तो तुम्हारी बात वहां बात चला दूं... वो भी तब जब तुम्हारे दिमाग़ ठिकाने हों…”
चाचाजी ने मेरे मन का बोझ बढ़ाकर फोन रख दिया. कभी सुना था प्रेम सुख का रूप धरे दुख का नाम है, आज इसे महसुस भी कर लिया था. मेरी रातों की नींद, दिन का चैन इस एकतरफ़ा इश्क़ की बलि चढ़ चुके थे. अब इतना तय था कि जो करना था मुझे ही करना था. मैंने निश्चय किया, चाचाजी चाहे जो सोचे और सौम्या कुछ भी कहे, मैं एक कोशिश तो ज़रूर करूंगा.
चार दिन बाद मैं पगलाया सा सौम्या के घर के बाहर खड़ा हुआ डोरबैल बजाने की हिम्मत जुटा रहा था. तभी ऊपर बालकनी से सौम्या ने मुझे देख लिया. वो भागकर बाहर आई और मुझे अपने घर की एक तरफ़ धकेल दिया. शायद वो मुझे अपने घरवालों की नज़रों से बचाना चाहती थी. मैंने उसे नहीं बताया कि मैं डोरबैल बजा चुका हूं.
“यहां क्या कर रहे हो... मेरा पीछा...?” उसकी घबराई आंखों में ढ़ेरो सवाल थे.
“नहीं तुमसे नहीं, तुम्हारे पापा से मिलने आया हूं.” मैंने सहजता से जवाब दिया.
“क्यों?”
“तुम्हारा हाथ मांगने, यही तरीक़ा पसंद है ना तुम्हें... अरेंज मैरिजवाला”, मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा. वो कुछ देर के लिए सन्न खड़ी रह गई.
“तुम जानते हो ना कल कोई मुझसे मिलने आ रहा है...”
“जानता हूं, इसीलिए तो मैं आज पहले आ गया."
“मगर तुम ये नहीं जानते, मैं भी उसको पसंद करती हूं और उसी से शादी करने का इरादा किया है...”
“क्या!”, सौम्या ने जैसे मेरे दिल पर खंजर भौंक दिया था. मैं इस वार से संभल भी ना पाया था कि किसी ने भीतर से दरवाज़ा खोला. उसके पापा थे. मुझे सौम्या के साथ खड़ा देख थोड़ा अचकचा गए.
“तुम...” शायद मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे.
“पापा, ये शुक्ला अंकल के भतीजे... नोएडावाले...” सौम्या ने हिचकते हुए कहा, तो उसके पापा के माथे पर सलवटे पड़ गईं.
“ओह... हां, मगर तुम तो कल आनेवाले थे, परिवार से कोई नहीं आया?” कहते हुए वे मेरे अगल-बगल झांकने लगे. मैं चकरा-सा गया... कल... मैं... कैसे? क्या कल मेरा परिवार ही यहां आ रहा था, सौम्या से मिलने... हमारी शादी के लिए? देखा तो सौम्या मुस्कुरा रही थी.
“बाहर क्यों खड़े हो बेटा, आओ... अंदर आओ” कहकर उसके पापा अंदर चले गए.
मैं सौम्या के कानों में फुसफसाया, “तुम्हें पता था ये सब...”
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“हां पता था, मगर तुम्हें लव मैरिजवाला थ्रिल चाहिए था ना, बस थोड़ा-सा वही झटका देने की कोशिश की थी, ताकि आगे चलकर दिल में कोई मलाल ना रहे...”
“और अगर मैं ना आता तो...”
“तो मैं आ जाती”, सौम्या ने शरारत से हंसकर मेरी बांह थाम ली.
“बहुत हो गया थ्रिल... अब सीधा शादी”, कहते हुए मैंने अपने कान पकड़ लिए. शादी की डेट अभी फिक्स नहीं हुई, मगर इतना ज़रूर फिक्स है कि अगले वैलेंटाइन डे पर मैं अकेला नहीं रहूंगा... मैं भी लाल शर्ट पहन, हाथों में लाल गुलाब लिए इतराऊंगा अपनी वेलेनटनिया के साथ...
दीप्ति मित्तल
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