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कहानी- मन की कस्तूरी 3 (Story Series- Mann Ki Kasturi 3)

वह जाने को मुड़ी ही थी कि आगन्तुक की चिरपरिचित आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “कैसी हैं शैलीजी...?” जड़ बनी वह बस इतना ही कह पाई “आप?” हे भगवान, कल ही तो यह मेरे ख़यालों में आया था, आज साक्षात सामने खड़ा है, ये आदमी है या प्रेत? पंद्रह वर्षों बाद उसे यूं देखकर आतंकित हो उठी शैली कि कहीं वह फिर अपने प्रश्‍नपत्र का सबसे मुश्किल यक्ष-प्रश्‍न, जो आज भी उसके सामने मुंह बाए खड़ा है, लेकर खड़ा न हो जाए. पंद्रह साल पुरानी वो फांस आज भी उतनी ही गहरी चुभी थी जितनी तब. पर क्या फ़र्क़ पड़ता है, शैली ने सोचा, ‘जो बातें किसी समय में उसके लिए जीने-मरने का सबब हुआ करती थीं, आज औचित्यहीन, आई-गई-सी लगती हैं. बदलते समय के साथ स्त्री के जीवन की प्रासंगिकता और प्राथमिकता भी बदलती चली जाती है. तभी तो न वह कुएं में कूदी, न ही पेड़ पर लटकी. एम.एससी. जीव विज्ञान की डिग्री पर पंद्रह वर्षों की धूल लिए गृहस्थी की चारदीवारी में ‘गोल-गोल रानी, इत्ता-इत्ता पानी’ करती हुई आज भी वह कभी-कभी अनमना जाती है. ऐसा नहीं है कि गृहस्थी की चकरघिन्नी में कस कर शैली नाख़ुश है, वह इस मुग़ालते में भी नहीं रहती कि कलफ़ लगी साड़ी वाली स्त्री ही सर्वसुख संपन्न है. पति-बच्चों, इस घर को उसकी ज़रूरत है, वह इस घर की धुरी है और इन सबके बगैर वह स्वयं अधूरी है... लेकिन ये तमाम बातें बार-बार अपने आपको समझाने की ज़रूरत शैली को क्यों पड़ती है? क्यों वह अपने आहलाद, अपनी परिपूर्णता और अपने ‘मैं’ के बीच किसी पुल का निर्माण आज तक नहीं पर पाई? यह भी पढ़ें: शब्दों की शक्ति शाम गहराने के साथ शैली की ऊब व थकान और बढ़ गई. पर आज कबीर थके हुए बिल्कुल नहीं थे. “कंपनी के काम से कोई बंदा आया है, मैंने कल चाय पर बुलाया है... जनाब आप ही के शहर से हैं.” शैली को बहुत बुरा लगा, “तीन लाख की आबादी वाले मेरे शहर से ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा कोई भी आए, आप उसे न्योत लेंगे?” शैली भनभनाकर उठते हुए बोली. अगले दिन शाम मिस्टर बेनाम मायकेवाले को लेकर कबीर हाज़िर थे. काम-धन्धे की बातों में दोनों मशगूल थे. चाय का हल्का-फुल्का जो भी इंतजाम शैली ने किया था, मेज़ पर रख एक औपचारिक अभिवादन करते हुए वह जाने को मुड़ी ही थी कि आगन्तुक की चिरपरिचित आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “कैसी हैं शैलीजी...?” जड़ बनी वह बस इतना ही कह पाई “आप?” हे भगवान, कल ही तो यह मेरे ख़यालों में आया था, आज साक्षात सामने खड़ा है, ये आदमी है या प्रेत? पंद्रह वर्षों बाद उसे यूं देखकर आतंकित हो उठी शैली कि कहीं वह फिर अपने प्रश्‍नपत्र का सबसे मुश्किल यक्ष-प्रश्‍न, जो आज भी उसके सामने मुंह बाए खड़ा है, लेकर खड़ा न हो जाए. पर आश्‍चर्य... उसने कुछ भी नहीं पूछा.        पूनम मिश्रा

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