संध्या को लगा, पूरा घर जैसे घूम रहा है. उसने दीवार का सहारा न लिया होता, तो शायद चक्कर खाकर गिर ही पड़ती. लड़खड़ाती हुई वो बाथरूम में चली गई और दरवाज़ा बंद करके नल खोल दिया, ताकि पानी के शोर में कोई उसका रुदन सुन न सके. आज तक उसे लगता था, बच्चे उसके सान्निध्य में ख़ुश हैं. लेकिन आज पता चला कि उसे साथ रखना उनकी विवशता है. तो क्या प्रिया का उससे स्नेह रखना, उसकी ज़रूरतों का ख़याल रखना, ये सब दिखावा है? इसमें लेशमात्र भी सच्चाई नहीं. उसे लगता था विनीत और प्रिया के साथ उसका शेष जीवन आराम से कट जाएगा, पर नियति हमेशा से ही उसके साथ अजीब खेल खेलती रही है. वो सोचती कुछ है और होता कुछ और है.
संध्या अपने बेटे विनीत और बहू प्रिया के साथ फ़िल्म देखकर घर लौटी, तो बहुत ख़ुश थी. उस दिन शनिवार था. बेटे-बहू की छुट्टी थी. दोपहर में उसने अपने हाथों से बेटे-बहू की पसंद का लंच तैयार किया था. विनीत फ़िल्म की टिकट ले आया था. शाम को तीनों फ़िल्म देखने गए और रात का खाना भी बाहर ही खाया. फ़िल्म बहुत अच्छी थी. रास्तेभर कार में तीनों फ़िल्म पर चर्चा करते रहे. संध्या को लगा, प्रिया कुछ चुप-चुप-सी थी. उसने कारण जानना चाहा तो प्रिया ने कहा, “कुछ ख़ास नहीं मम्मी. बस, थोड़ा सिरदर्द है.”
अगले दिन रविवार था, सो प्रिया और विनीत देर तक सोते रहे. आदत के मुताबिक संध्या जल्दी उठ गई. चाय पीकर उसने रात में भिगोई दाल पीस ली और झटपट दही वड़े बना लिए. शाम को घर में पार्टी थी. विनीत और प्रिया के कलीग्स आनेवाले थे. जब भी बेटे-बहू के कलीग्स घर में आते हैं, संध्या का वो दिन बहुत अच्छा कटता है. वो देर तक उनसे बातें करती. नौ बजनेवाले थे. पर्स उठाकर वह दूध लेने चली गई. सोसायटी के गेट के बाहर ही दुकान थी. दूध लेकर वो वापस लौटी, तो उसे लगा विनीत और प्रिया जाग चुके हैं. वो उनके कमरे की ओर बढ़ी, तभी प्रिया की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वह विनीत से कह रही थी, “मम्मी को यहां आए एक साल हो चुका है. जब से मम्मी यहां आई हैं, क्या हम लोग कभी भी अकेले कहीं गए हैं? हर व़क़्त, हर जगह मम्मी साथ होती हैं. क्या मेरा मन नहीं करता, कभी बस मैं और तुम...?”
“कैसी बातें करती हो प्रिया? तुम जानती हो, पापा के जाने के बाद मम्मी कितनी टूट गई थीं. अभी तो वो ज़रा संभली हैं और तुम ऐसी बातें कर रही हो.”
“प्लीज़ विनीत, मुझे ग़लत मत समझो. मुझे मम्मी के दुख का एहसास है, तभी तो मैंने इतने दिनों से तुमसे कुछ नहीं कहा. साथ ही मैं यह भी मानती हूं कि जितना मम्मी मेरा ख़याल रखती हैं, उतना कोई सास नहीं रख सकती. लेकिन विनीत, तुम ये क्यों नहीं समझते कि हमें भी प्राइवेसी की ज़रूरत है. रिश्ते में कुछ बैलेंस तो तुम्हें रखना ही चाहिए.”
“अब मैं भी क्या करूं प्रिया? मम्मी का कोई सर्कल भी तो नहीं है, जिसमें वो बिज़ी रह सकें.”
“अपना सर्कल वो बनाना ही कब चाहती हैं? हमारी सोसायटी की कितनी बुज़ुर्ग महिलाएं सुबह-शाम पार्क में आकर बैठती हैं, मम्मी चाहें, तो उनसे मेलजोल बढ़ा सकती हैं. लेकिन वो अकेले कहीं जाना ही नहीं चाहतीं.”
“धीरे बोलो प्रिया, मम्मी कहीं सुन न लें.”
“मम्मी दूध लेने गई हैं.” प्रिया निश्चिंतता से बोली. संध्या को लगा, पूरा घर जैसे घूम रहा है. उसने दीवार का सहारा न लिया होता, तो शायद चक्कर खाकर गिर ही पड़ती. लड़खड़ाती हुई वो बाथरूम में चली गई और दरवाज़ा बंद करके नल खोल दिया, ताकि पानी के शोर में कोई उसका रुदन सुन न सके.
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आज तक उसे लगता था, बच्चे उसके सान्निध्य में ख़ुश हैं. लेकिन आज पता चला कि उसे साथ रखना उनकी विवशता है. तो क्या प्रिया का उससे स्नेह रखना, उसकी ज़रूरतों का ख़याल रखना, ये सब दिखावा है? इसमें लेशमात्र भी सच्चाई नहीं. उसे लगता था विनीत और प्रिया के साथ उसका शेष जीवन आराम से कट जाएगा, पर नियति हमेशा से ही उसके साथ अजीब खेल खेलती रही है. वो सोचती कुछ है और होता कुछ और है. पता नहीं क्या लिखा है उसके हाथ की इन आड़ी-तिरछी लकीरों में कि सुख हमेशा उससे दो क़दम आगे चलता है.
जतिन का उसे यूं असमय छोड़कर चले जाना इस बात का प्रमाण है कि उसकी क़िस्मत में सुख है ही नहीं. जतिन जब तक नौकरी में थे, बेहद व्यस्त रहते थे. उनके साथ व़क़्त गुज़ारने की, अपने सभी अधूरे अरमान पूरे करने की ख़्वाहिश लिए वह उनके रिटायरमेंट की प्रतीक्षा कर रही थी. जतिन रिटायर हुए, पर अधिक दिनों तक संध्या का साथ न निभा सके. दो माह बाद ही मौत के क्रूर हाथों ने उन्हें उससे छीन लिया. स्तब्ध-सी संध्या फटी-फटी आंखों से बस देखती रह गई थी.
कब पूना से विनीत और प्रिया आए, कब जतिन का अंतिम संस्कार हुआ, उसे कुछ पता नहीं चला. होश तो तब आया, जब सब कुछ समाप्त हो चुका था. रिश्तेदार जा चुके थे. विनीत और प्रिया ने उसे अपने साथ पूना ले जाना चाहा, लेकिन वह नहीं मानी. पिछले बीस वर्षों से वह उस घर में रह रही थी. वहां की आबोहवा में जतिन की सांसें रची-बसी हुई थीं. कितनी यादें जुड़ी हुई थीं उस घर के साथ. इन्हीं यादों के सहारे वो अपना शेष जीवन गुज़ारना चाहती थी, पर अकेले रहना इतना सहज भी नहीं था.
सूना घर उसे काट खाने को दौड़ता. अकेले के लिए खाना बनाने की भी उसकी इच्छा नहीं होती थी.
उधर मां की चिंता में विनीत भी अपने काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा था. कुछ दिनों में ही वह बीमार पड़ गई, तब विनीत और प्रिया ने उसकी एक नहीं सुनी.
रेनू मंडल
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