‘’तुम्हारी साहित्यिक अभिरुचि से मैं सदा से ही वाकिफ़ रहा हूं. यह भी जानता हूं कि मेरी और परिवार की ज़िम्मेदारियां निभाने में ही तुम्हें समय नहीं मिला कि तुम अपनी प्रतिभा को उजागर कर सको. मैं तुम्हारे बीते हुए वर्षों को तो नहीं लौटा सकता, पर तुम्हारा वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल हो, यही सोचकर ‘पुनश्च’ का प्रकाशन करवाया है कि देर से ही सही, पर एक बार फिर तुम अपनी साहित्यिक यात्रा पुर्नआरम्भ कर सको. ‘पुनश्च’ के माध्यम से मेरा यही कहना है कि जीवन में चाहे कितनी ही विकट परिस्थितियां क्यों न आ जाएं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी अवश्य है. बस इसके लिए अपेक्षा है सकारात्मक सोच और स्वस्थ चिंतन की. मैं तो मानता हूं कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.”
रवि ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “सुलोचना, किन ख़यालों में खो गई हो? देखो, सब तुम्हें जन्म दिवस की शुभकामनाएं दे रहे हैं,” तो वह सामान्य हुई. सबने उसकी पसन्द का ध्यान रखते हुए उसकी रुचि के अनुरूप पर्स, पऱफ़्यूम, साड़ी, घड़ी आदि उपहार दिए थे. वो हैरान थी कि बच्चों ने कितने प्यार और योजनात्मक तरी़के से उसके लिए उपहारों का चयन किया था. अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर वह अभिभूत हो गयी थी. सबसे अंत में रवि ने उसे एक पैकेट अपनी ओर से पकड़ाया तो वह चौंक गई.
दृष्टि से रवि की ओर देखा तो वे बोले, “भई, खोलकर तो देखो हमारी भेंट भी.”
उसने उत्सुकता से पैकेट खोला तो उसमें एक पुस्तक थी. आश्चर्य से उस पुस्तक को देखने लगी जिसका शीर्षक था ‘पुनश्च’. तभी उसकी नज़र लेखक के स्थान पर पड़ी. उस जगह उसका नाम लिखा था. चौंक-सी गई सुलोचना. एक पल के लिए तो उसे अपनी आंखों पर यक़ीन ही नहीं हुआ. रवि ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हारी लिखी पुरानी कहानियों को बहुत मुश्किल से ढूंढ़कर बच्चों ने उनको इस कथा संग्रह में संकलित किया है. तुम्हारी चिर संचित अभिलाषा को साकार करने के लिए भी हम सबने मिलकर तुम्हें यह भेंट देने का निश्चय किया. ये सब कार्य तुमसे छुपकर हमने इसलिए किया, क्योंकि हम तुम्हें सरप्राइज़ देना चाहते थे. मुझे लगने लगा था कि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो रहा है. मैंने सोचा यदि तुम किसी संरचनात्मक कार्य में संलग्न हो जाओ तो तुम शायद अपने आप को उपेक्षित महसूस न करो. मैंने बच्चों से इस विषय में सलाह-मशविरा किया तो सभी को मेरा सुझाव ठीक लगा और वे जी-जान से इस योजना को कार्यरूप देने में जुट गए. इन चारों ने मिलकर बड़े परिश्रम से इस कथासंग्रह को प्रकाशित करवाया है.” कहते हुए रवि बच्चों की ओर गर्व से देखने लगे.
कुछ देर रुककर रवि फिर बोले, “आज तुम्हारा यह भ्रम भी दूर कर दूं कि उस दिन ड्रॉईंगरूम में तुम्हें देखकर हम क्यों चुप हो गए थे? वह इसलिए कि हम इस कथा संग्रह का नाम तय कर रहे थे. हम नहीं चाहते थे कि इस बात की कोई भनक भी तुम्हें लगे. तुम्हारा यह सोचना ग़लत था कि हम तुम्हारी आलोचना कर रहे थे. तुम्हारी साहित्यिक अभिरुचि से मैं सदा से ही वाकिफ़ रहा हूं. यह भी जानता हूं कि मेरी और परिवार की ज़िम्मेदारियां निभाने में ही तुम्हें समय नहीं मिला कि तुम अपनी प्रतिभा को उजागर कर सको. मैं तुम्हारे बीते हुए वर्षों को तो नहीं लौटा सकता, पर तुम्हारा वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल हो, यही सोचकर ‘पुनश्च’ का प्रकाशन करवाया है कि देर से ही सही, पर एक बार फिर तुम अपनी साहित्यिक यात्रा पुर्नआरम्भ कर सको. ‘पुनश्च’ के माध्यम से मेरा यही कहना है कि जीवन में चाहे कितनी ही विकट परिस्थितियां क्यों न आ जाएं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी अवश्य है. बस इसके लिए अपेक्षा है सकारात्मक सोच और स्वस्थ चिंतन की. मैं तो मानता हूं कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.”
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बहुत वर्षों बाद अपनी चिरवांछित अभिलाषा को इस रूप में फलीभूत होते देखकर वो इतनी भावविह्वल हो गई थी कि कुछ बोल नहीं पा रही थी. तुलसीदास जी की पंक्तियां मानो उसी की मनोदशा को व्यक्त कर रही थी, ‘गिरा अनयन, नयन बिन वाणी’. पति और बच्चों के हृदय में उसके प्रति अभी भी कितना स्नेह और आत्मीयता है, यह उसने आज जाना है. अपनी नकारात्मक सोच और चिंतन ने उसे कितना कुंठित और निराश बना दिया था कि उसे भ्रम होने लगा कि घर में किसी को उसकी ज़रूरत नहीं है. उसे अपनी सोच पर बहुत आत्मग्लानि हो रही थी. उसने भरे हुए नेत्रों से सबकी ओर देखा. बिन बोले ही सबने उसके हृदय के उद्गार पढ़ लिए थे.
आज की सुबह सुलोचना के लिए नया सवेरा लाई थी, जिसके उजास से उसका वर्तमान और भविष्य दोनों ही प्रकाशमान हो रहे थे.
हंसा दसानी गर्ग
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