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कहानी- रिश्तों का दर्पण 4 (Story Series- Rishton Ka Darpan 4)

स्निग्धा बेड पर कभी अपने बच्चों को देखती और कभी कमरे के सूनेपन को. रहा नहीं गया, तो आधी रात के बाद रवीश को फोन मिलाया, “मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मैं अपनी ग़लती मान रही हूं. मुझे अपना घर छोड़कर यहां नहीं आना चाहिए था. मुझे माफ़ कर दो. मैं भी यहां नहीं रुकना चाहती. बच्चे भी दुखी हैं. यहां आकर हमें भी ले जाओ.” “स्निग्धा इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है. मनोज भइया मजबूर हैं, ससुरालवालों को कैसे अनदेखा कर दें. हम तो उसके अपने हैं. हमें यह समझना चाहिए कि कम से कम हमारी ओर से वह निश्‍चिंत तो हैं.” रवीश ने उसे तसल्ली दी. अपने पति के बड़प्पन को देख स्निग्धा की आंखों में आंसू आ गए. मनोज भइया उनके सामने गिड़गिड़ाते-से लगे. कुछ देर बाद दोनों स्निग्धा के पास आए और उनका सामान उठाकर अपने कमरे में ले गए. “दीदी, एक-दो दिन की ही तो बात है, हम लोग मम्मी-पापा के कमरे में एडजस्ट कर लेंगे.” नेहा ने भारी स्वर में कहा. स्निग्धा इतनी नासमझ नहीं थी कि नेहा के शब्दों का अर्थ नहीं समझती. स्पष्ट था कि उसने एक तरह से उन्हें जल्द से जल्द खिसक जाने का अल्टीमेटम दे दिया था. होली आने में चार दिन थे, लेकिन नेहा और उसके मायकेवालों के पूरे घर पर आधिपत्य-सा जमा लेने और अपनी उपेक्षा से पीड़ित स्निग्धा के परिवार को एक-एक पल काटना भारी पड़ रहा था. न खुले मन से रहने, खाने-पीने की आज़ादी और न ही बच्चों की पूरी देखभाल. इस घुटनभरे परिवेश के बीच रवीश और स्निग्धा के बीच चिकचिक होने लगी. “तुम्हीं बड़ा दम भर रही थी यहां आने को, अब देख लिया.” रवीश से जब सहन नहीं हुआ, तो खीझ उठा. स्निग्धा के पास चुप बने रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, लेकिन अंदर ही अंदर वह भी खिन्नता से भरी हुई थी. दूसरे दिन ही रवीश ऑफिस की अर्जेंट मीटिंग और मीटिंग के तुरंत बाद लौट आने का बहाना बनाकर अपने माता-पिता के पास चला गया. स्निग्धा को साहस नहीं हुआ कि उसे रुक जाने को कह सके. जब उसका अपना मन ही आत्मग्लानि से भरा था, तो साहस आता भी कैसे? उसके जाने के बाद स्निग्धा और बच्चे अधिक एकाकीपन से घिर गए. नतीजतन स्निग्धा की तबियत भी बिगड़ने लगी. मनोज भइया के सास-ससुर अधिकांश समय उनके साथ न जाने क्या गुप्त मंत्रणाएं करते रहते. उनके साले-सालियों ने तो उनकी लगाम पूरी तरह अपने हाथों में ले रखी थी. कभी मार्केट तो कभी पिक्चर हॉल और कभी वैसे ही इधर-उधर घूमना. कभी-कभार ये लोग घर पर रहते, तो दिनभर सालियां मनमर्ज़ी के पकवान बनाकर मुंह चलाती रहतीं. रात होती, तो ताश के पत्तों में जीजा को उलझा लेतीं. मनोज भइया को स्निग्धा से दिलभर कर बात करने का समय ही नहीं मिल पा रहा था. रवीश के जाने के बाद स्निग्धा काफ़ी दुखी थी. रात में लेटी, तो सिर दर्द से फटा जा रहा था. वह दर्द की गोली खाने के लिए किचन में पानी गरम करने गई, तभी नेहा वहां आ गई. “दीदी, मुझे बता देतीं. त्योहार के लिए बड़े करीने से किचन सजाया है, बर्तन इधर-उधर हो गए, तो अच्छा नहीं लगेगा ना.” नेहा का ताना सुनकर स्निग्धा अंदर ही अंदर दर्द से कराह उठी. गोली खाकर लेटी, तो भी आराम नहीं मिला. बराबर वाले कमरे में तेज़ आवाज़ में म्यूजिक़ सिस्टम बज रहा था और सालियां उस पर डांस कर रही थीं. स्निग्धा ने जब आवाज़ कम करने को कहा, तो सालियां बोल उठीं, “दीदी, मस्ती का त्योहार है, बिना हुड़दंग के कैसी होली. आप कहती हैं, तो थोड़ी देर बाद बंद कर देंगे.” डांस देख रहे मम्मी-पापा बोले, “बच्चे हैं, इस उम्र में शोर नहीं मचाएंगे, तो क्या संन्यास ले लेंगे. बच्चों के अरमानों को दबाना ठीक थोड़े है.” मम्मी-पापा की शह पर बच्चे आधी रात तक हंगामा मचाते रहे. स्निग्धा बेड पर कभी अपने बच्चों को देखती और कभी कमरे के सूनेपन को. रहा नहीं गया, तो आधी रात के बाद रवीश को फोन मिलाया, “मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मैं अपनी ग़लती मान रही हूं. मुझे अपना घर छोड़कर यहां नहीं आना चाहिए था. मुझे माफ़ कर दो. मैं भी यहां नहीं रुकना चाहती. बच्चे भी दुखी हैं. यहां आकर हमें भी ले जाओ.” यह भी पढ़े: विचारों से आती है ख़ूबसूरती (Vicharon Se Aati Hai KHoobsurati) “स्निग्धा इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है. मनोज भइया मजबूर हैं, ससुरालवालों को कैसे अनदेखा कर दें. हम तो उसके अपने हैं. हमें यह समझना चाहिए कि कम से कम हमारी ओर से वह निश्‍चिंत तो हैं.” रवीश ने उसे तसल्ली दी. अपने पति के बड़प्पन को देख स्निग्धा की आंखों में आंसू आ गए. थोड़ी देर बाद रवीश ने कहा, “मेरा अब वहां आना ठीक नहीं है, मनोज भइया रोकना चाहेंगे. ऐसा करो, मेरी तबियत खऱाब होने का बहाना बनाकर चली आओ.” “मैं आपके स्वास्थ्य का बहाना नहीं बनाऊंगी. मैं तो हमेशा आपकी लंबी उम्र की कामना करती हूं. मुझसे यह नहीं होगा.” स्निग्धा ने भरी आवाज़ में कहा. “अच्छा तो कुछ मेहमानों के अचानक घर पहुंचने की बात कहकर चली आना. मैं भी शाम तक घर पहुंच जाऊंगा.” यह तरीका कारगर रहा स्निग्धा के लिए. वह दूसरे दिन बच्चों को लेकर अपने घर चली आई. आते ही उसने रवीश को फोन मिलाया, “मैं पहुंच गई हूं. तुम अपने साथ मम्मी-पापा, अनन्या और मान्यता को ज़रूर लेते आना. मैं उनके बिना होली नहीं खेलूंगी.” “रीतू और मीनू को भी बुला लो.” “वो फिर कभी आ जाएंगी. अनन्या और मान्यता ही काफ़ी हैं पूरे घर में होली के रंग बिखेरने को.” कहकर स्निग्धा ने फोन बंद कर दिया. उसके अपने मन के दर्पण ने उसे रिश्तों की वास्तविकता के निकट ला दिया था. विचार स्वतंत्र हो गए. लगा जैसे मन से अपने-पराए के अंतर का बोझ हट गया है. ख़ुशी के अतिरेक में वह आह्लाद से परिपूरित हो उठी है. asalam kohara असलम कोहरा

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