बात भाभी ठीक ही बोल रही थीं, पर न जाने क्यूं ये बात शूल की तरह मेरे अंतस में कहीं चुभ रही थी. थोड़ी देर आराम करने के बहाने मैं अपने कमरे में चली गई. यह मेरा वही कमरा था, जहां मैंने अपने जीवन के सबसे बहुमूल्य समय गुज़ारे थे. कमरे का रंग-रोगन और फर्नीचर सब बदल गया था, रह गई थीं चंद यादें और मेरे अनगढ़ हाथों से बनी पेंटिंग, जिसमें मैं भैया को राखी बांध रही थी. उस समय मैं छठी या सातवीं में पढ़ती थी. भैया ने बड़े शौक़ से उस पेंटिंग पर फ्रेमिंग करवाया था.
औरत उम्र के चाहे जिस पड़ाव पर हो, अपने जीवन में कितनी ही व्यस्त क्यों न हो, उसके दिल में तब अलग ही ख़ुशी छा जाती है, जब उसके मायके से कोई ख़ुशी का संदेशा आता है और वह सब कुछ छोड़-छाड़ मायके का रुख कर लेती है.
आज मेरी भी स्थिति कुछ वैसी ही हो गई थी. जब भैया ने जतिन यानी अपने लड़के की शादी की सूचना मुझे फोन पर दी थी. मेरा मन मयूर नाच उठा. भैया ने बहुत दबाव डालकर शादी से एक महीने पहले ही बुलाया था. साथ ही बड़े अधिकार से दशहरी आम की फ़रमाइश भी की थी. भैया की आवाज़ में वही चिर-परिचित प्यार-मनुहार पाकर मन ख़ुशी से आह्लादित हो उठा. फिर तो मेरा मन पूरे दिन पीछे छूट गए मासूम बचपन और बेफ़िक्र जवानी के दिनों में डुबकी लगाता रहा. मैं उसी समय से अपनी सारी व्यस्तता को झटक बड़े ही उत्साह से शादी में जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गई.
एक ही हफ़्ते में लखनऊ की विशेष साड़ियां, सूट और बहू के लिए सोने के कड़े के साथ-साथ ढेरों नमकीन, मिठाइयां और दशहरी आम के टोकरे बंधवा लिए थे. एक बार फिर सारे घर की ज़िम्मेदारियां सासू मां को सौंप निश्चिंत होकर पटना के लिए रवाना हो गई थी. आशा के अनुकूल भैया ख़ुद स्टेशन पर मुझे लेने आए थे. स्टेशन से निकलते ही एक बार फिर नज़र आया, अपना वही पुराना पटना शहर, ट्रैफिक की चिर-परिचित कानफोड़ आवाज़ें, सड़क के किनारे छोटी-छोटी दुकानें, भागते व्यस्त लोगों की भीड़, समोसे और जलेबियों के तले जाने की पहचानी ख़ुशबू के साथ आसपास फैली अस्त-व्यस्तता भी अपने आप में अपनापन समेटे मुझे रोमांचित कर रही थी. इन सबके बीच से गुज़रती गाड़ी तेज़ी से घर की तरफ़ दौड़ रही थी. जहां पहुंचने का दिल बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था. घर पहुंच, फ्रेश होकर बैठते ही चाय-पानी के साथ-साथ बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. भैया भी मुझे कुछ ज़्यादा भाव देते हुए भाभी से बोले, “सुनती हो नैना, निधि के आने से सबसे बड़ा फ़ायदा तुम्हारा ही होगा. तुम्हारे काम में हाथ बंटाने के साथ-साथ सारे रस्मो-रिवाज़ निभाने में भी तुम्हारी सारी परेशानियां दूर कर देगी. अम्मा के साथ शादी-ब्याह में भाग लेने से इसे सारे रस्मो-रिवाज़ याद हैं.” यह सब बोलकर भैया शायद पहले की तरह मुझे महत्व देना और अपना अटूट प्यार जताना चाह रहे थे, लेकिन न जाने क्यूं मुझे उनके शब्द खोखले लगे.
“अब रस्मों का क्या है? निभाए ही कितने जाते हैं?” भाभी अपने चेहरे पर एक ज़बरदस्ती की मुस्कान लाते हुए बोलीं. भाभी की आंखें और बोलने के लहज़े ने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया. मैं उठकर नमकीन और मिठाइयां निकालकर टेबल पर रखने लगी, जिसे देखकर भैया बोले, “अरे, ये क्या रे छुटकी, ये तूने क्या किया है? पूरी की पूरी लखनऊ शहर की मिठाइयां ही ख़रीदकर ले आई है, लखनऊवालों के लिए कुछ छोड़ा भी है या नहीं.”
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“बस... बस... भैया, इतना भी नहीं है. शादी-ब्याह का घर है, देखते-देखते ये सारी समाप्त हो जाएंगी.”
मेरे बोलने के साथ ही भाभी का कटाक्ष चल पड़ा, “पहले की बात कुछ और थी, अब किसके पास इतना समय है कि महीनाभर अपना घर छोड़कर शादी-ब्याह में रौनक़ बढ़ाने और पकवान खाने आएगा. एक-दो दिनों के लिए कोई आ जाए, यही बहुत है.”
बात भाभी ठीक ही बोल रही थीं, पर न जा ने क्यूं ये बात शूल की तरह मेरे अंतस में कहीं चुभ रही थी. थोड़ी देर आराम करने के बहाने मैं अपने कमरे में चली गई. यह मेरा वही कमरा था, जहां मैंने अपने जीवन के सबसे बहुमूल्य समय गुज़ारे थे. कमरे का रंग-रोगन और फर्नीचर सब बदल गया था, रह गई थीं चंद यादें और मेरे अनगढ़ हाथों से बनी पेंटिंग, जिसमें मैं भैया को राखी बांध रही थी. उस समय मैं छठी या सातवीं में पढ़ती थी. भैया ने बड़े शौक़ से उस पेंटिंग पर फ्रेमिंग करवाया था. मैं यूं ही कमरे में लेटी यहां-वहां की बातें याद करती रही. रात के समय जब सब के साथ खाने बैठी, तो मुझे आशा थी कि भाभी ने भी मां की तरह ही मेरी पसंद की एक-दो खाने की डिशेज़ तो अवश्य बनवाई होंगी, पर खाना देखते ही सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. सूखी रोटी के साथ एक सब्ज़ी और रायता था. हां, खाने के बाद भैया ने रसमलाई खिलाकर मेरी मायूसी थोड़ी-सी कम कर दी थी.
भैया-भाभी जब शादी की किसी चर्चा में व्यस्त हो गए, तो मैं पापा के पास जा बैठी. बुढ़ापे ने उन्हें इतना अशक्त बना दिया था कि ख़ुशी-ग़म सब उनके लिए समान हो गए थे. उनका ध्यान दुनिया की हर ख़ुशी और ग़म से विरक्त हो, अपने खाने और सोने पर आकर थम-सा गया था, बस घिसे हुए रिकॉर्ड की तरह एक ही प्रश्न बार-बार पूछ रहे थे. “सब ठीक है न.” थोड़ी देर बाद मैं सोने चली गई. पर आंखों में नींद कहां थी? उठकर आंगन में पड़ी चारपाई पर आ बैठी. सभी सोने चले गए थे. पूरे आंगन में सन्नाटा पसरा हुआ था. यह वही आंगन था, जिसमें कभी हमने न जाने कितने खेल खेले थे. एक पैर पर कूद कर पूरे आंगन का क्षेत्रफल नापा था, घरौंदे बनाए थे और कई तरह के खेल खेले थे. किसी आत्मीय स्वजन-सा प्यारा यह आंगन जाने क्यूं आज पराया-सा लग रहा था.
रीता कुमारी