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कहानी- सती का सच 1 (Story Series- Sati Ka Sach 1)

जिस व्यक्ति ने ‘विधवा’ शब्द की रचना की, उसने स्त्री के दुर्भाग्य का प्रथम परिच्छेद लिख दिया था. यह घोर अन्याय ही था कि क्रिया किसी की हो और विशेषण किसी और पर लगे. मरे पुरुष को मृतक कहना ही पर्याप्त न था, उसकी पत्नी पर विधवा का लेबल और लगाया गया. आज तीसरा दिन था मां, बाबूजी और भइया को गए. मेरी आंखों की नींद उड़ चुकी थी. आंसू बह-बह कर शेष हो चुके थे. रत्ना एक पल के लिये भी आंखों से ओझल नहीं हो पा रही थी. मेरी प्यारी, ख़ूबसूरत छोटी बहन... कितनी अल्हड़ और कैसी नादान... सदा हंसने-हंसानेवाली रत्ना जब पिछले वर्ष ब्याह कर ससुराल गयी, तो घर क्या, पूरा गांव ही सूना हो गया था. लाख झटकने के बाद भी रत्ना की एक-एक बात चलचित्र की तरह मेरे सामने घूम रही थी. अतीत पूरी गहराई व गम्भीरता से उघड़ रहा था. कुछ रिश्ते होते हैं, जो समय के अन्तराल के बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं. कुछ यादें होती हैं, जो जीवनपर्यन्त सुगंध की तरह तन-मन से लिपटी रहती हैं. शादी को चार वर्ष भी पूरे नहीं हो पाए थे कि मेरे पति दुर्घटना में चल बसे. जिस व्यक्ति ने ‘विधवा’ शब्द की रचना की, उसने स्त्री के दुर्भाग्य का प्रथम परिच्छेद लिख दिया था. यह घोर अन्याय ही था कि क्रिया किसी की हो और विशेषण किसी और पर लगे. मरे पुरुष को मृतक कहना ही पर्याप्त न था, उसकी पत्नी पर विधवा का लेबल और लगाया गया. एक साल ससुराल में कैसे कटा, इसकी भयावहता मेरे अतिरिक्त कौन समझ सकता है? यंत्रणा का अंत नहीं था. मन तो टूट ही गया था. उन लोगों की पाशविकता से तन भी मृतप्राय हो गया था. जब यह ‘बहू’ नाम धारी जीव उनके किसी काम का नहीं रहा, तो किसी समान की तरह उसे पितृगृह में पटक गये. पति को असमय खा जानेवाली तथा दोनों व़क़्त में पसेरी अन्न खाने वाली इस कुलटा के लिए उनकी चारदीवारी में अब कहीं स्थान नहीं था. यह भी पढ़ें: 10 छोटी बातों में छुपी हैं 10 बड़ी ख़ुशियां अपने ही हाड़-मांस से बनी दु:खियारी विधवा परित्यक्ता पुत्री को उस व़क़्त मां-बाप ने गले से लगा लिया था. मगर एक दिन का पाहुना दूसरे दिन अनखावना और तीसरे दिन घिनावना वाली कहावत अभागी बेटी के साथ भी चरितार्थ होने लगी. सहने के अतिरिक्त चारा भी क्या था? धीरे-धीरे दो मुट्ठी धान के बदले पूरे घर के काम का बोझ मेरे निर्बल कंधों पर डाल कर सभी निश्‍चिंत हो गये. तब रत्ना ने, मेरी उस नन्हीं बहन ने कितना सहारा दिया था मुझे. मेरे बदले वह जब-तब मां से उलझ पड़ती. उस नादान किशोरी की बातों पर ध्यान देने का अवकाश किसे था और ज़रूरत भी क्या थी? मैंने भी सभी छोटे-बड़े कार्यों को सहर्ष वहन करके अपना दु:ख भूलने तथा कहीं अपनी उपयोगिता साबित करने की खोखली चेष्टा की थी. दु:खी विधवा के सुलगते घावों पर मां-बाप, पास-पड़ोस वाले जब-तब नमक छिड़कते रहते और मैं बेबस अपनी कोठरी में घुस कर आंखों में कुछ गिरने का बहाना करती. दिनभर आंसू बहा कर उनके घर का अमंगल करने के सिवा मैं कलमुंही और कर ही क्या सकती थी. दोनों व़क़्त भरपेट खानेवाली मुझ अभागी को तकलीफ़ क्या हो सकती थी? काश! इसे समझने का किसी का तो मानस होता. रत्ना समझती थी, मगर वह क्या कर सकती थी.

- निर्मला डोसी

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