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कहानी- प्रेरणा (Story- Prerna)

Hindi Short Story
 
“व्हाट नॉनसेन्स! यह कैसी प्रथा है? हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं. मैंने और तनय ने प्यार किया है. मेरे मम्मी-पापा ने भी मेरी पढ़ाई पर उतना ही ख़र्च किया है, जितना उसके मम्मी-पापा ने, तब मेरे पापा ही क्यों उनके यहां जाएं? उसके पापा क्यों नहीं आते मेरे पापा से मिलने?”
  मैं मानसी शर्मा, एम. बी. बी. एस., आज अपने जीवन के विषय में कुछ बताना चाहती हूं. मैं मम्मी-पापा की इकलौती संतान. जब पापा की नौकरी विदेशी सेवा में लगी थी तभी मेरा जन्म हुआ. दादा-दादी के पास ही मेरा पालन-पोषण हुआ, क्योंकि पापा को नौकरी के कारण अक्सर विदेश रहना पड़ता था. दादाजी नहीं चाहते थे कि मैं पश्‍चिम की सभ्यता के बीच शिक्षा ग्रहण करूं. उन्हीं की छत्रछाया में मेरा विकास हुआ या यूं कहूं कि उन्होंने ही मुझे इस योग्य बनाया कि मैं डॉक्टर बन सकी. मम्मी-पापा हर साल विदेश से आकर मेरे पास कुछ दिन रहते थे. मैं भी उनके पास जाती रहती थी, पर मुम्बई ही मेरा पहला प्यार था. इसे छोड़कर जाना मेरे लिए कल्पना से परे की बात थी. मेरा क्लासमेट तनय शुरू से ही मुझे अच्छा लगता था. रैगिंग के वे दिन हमने कितनी हिम्मत से पार किए, ये हम ही जानते हैं. उसे तो सीनियर्स ने कुछ अधिक ही तंग किया था. वह भी मुम्बई का ही था, सो हम जल्दी ही घुल-मिल गए. हमारी अच्छी दोस्ती हो गई. उसने पढ़ाई में मेरी बहुत मदद की. तनय का व्यवहार अन्य लड़के-लड़कियों से कुछ अलग था. उसकी इसी विशिष्टता के कारण मैं उसकी तरफ़ आकर्षित हुई. कॉलेज का तीसरा साल आते-आते हम इतने क़रीब आ गए कि हमने एक-दूसरे को अपना जीवनसाथी बनाने का निर्णय ले लिया. तनय ने अपने मम्मी-पापा से बात की. मैंने भी दादी को सब कुछ बता दिया था, क्योंकि वे मेरी बेस्ट फ्रेंड थीं. उन्होंने मुझसे तनय, उसके परिवार व उसकी आर्थिक स्थिति के बारे में पूरी जानकारी ली. हमारे परिवारों का खान-पान, रहन-सहन लगभग एक-सा ही था. दोनों ही परिवार उत्तर भारत से संबंध रखते थे तथा काफ़ी वर्षों से यहां रह रहे थे. पढ़ाई पूरी होने के बाद मैंने और तनय ने एम. डी. की परीक्षा दी. मेरा चयन लखनऊ मेडिकल कॉलेज तथा तनय का दिल्ली मेडिकल कॉलेज में हुआ. अब दोनों ही परिवारों में हमारी शादी की बातें ज़ोर पकड़ने लगीं. यहां तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा, लेकिन समस्या तब आई, जब तनय के पापा ने फ़ोन करके कहा कि शादी के विषय में बात करने के लिए मानसी के मम्मी-पापा उनसे आकर मिलें. “मम्मी-पापा क्यों जाकर मिलें?” मैंने दादी से पूछा. “तनय के मम्मी-पापा क्यों नहीं आते मेरे मम्मी-पापा से मिलने?” दादी ने समझाया, “मानसी, लड़कीवालों को ही लड़केवालों के घर रिश्ता लेकर जाना पड़ता है. यही प्रथा है.” उनकी बात पर मैं भड़क गई, “व्हाट नॉनसेन्स! यह कैसी प्रथा है? हम 21 वीं सदी में जी रहे हैं. मैंने और तनय ने प्यार किया है. मेरे मम्मी-पापा ने भी मेरी पढ़ाई पर उतना ही ख़र्च किया है, जितना उसके मम्मी-पापा ने, तब मेरे पापा ही क्यों उनके यहां जाएं? उसके पापा क्यों नहीं आते मेरे पापा से मिलने?” इसके बाद तो मैंने नारी स्वतंत्रता व समानता के कई उदाहरण तक दे डाले. दादा-दादी समझा-समझाकर थक गए, पर मैं अपनी बात पर अटल थी. मैंने तनय को भी फ़ोन कर सब बता दिया. वह भी अकड़ गया. लड़का जो था! भला उसकी नाक कैसे नीची हो सकती थी. हम दोनों के बीच बातचीत बंद हो गई. मतलब फ़ोन ख़ामोश हो गए. कई दिन बीत गए. न मैंने फ़ोन किया, न उसने. दादा-दादी बड़े बेचैन थे. उन्होंने पापा, जो रूस में थे, को फ़ोन करके सारी बातें बता दीं. पापा ने भी मुझे समझाया, पर मैं अपनी ही बात पर अड़ी रही. “न वो आएं, न आप जाएं. सब बातें फ़ोन पर ही तय हों.” इस तरह का सुझाव भी मैंने दिया. पर एक बार मिलकर बात करना ज़रूरी था. सारा मसला उलझकर रह गया था. मेरा लखनऊ में ज्वाइन करने का समय क़रीब आ रहा था. मेरी दादी की बचपन की ख़ास सहेली लखनऊ में रहती थीं, जिनके बेटा-बहू, तन्मय व तपस्या लखनऊ मेडिकल कॉलेज में लेक्चरार थे. दादी की सहेली को हम सभी अच्छी तरह से जानते थे. दादी ने फ़ोन करके जब अपनी सहेली को मेरे लखनऊ में दाख़िले के बारे में बताया, तो वे अड़ गईं कि ‘मैं उसे कम से कम एक ह़फ़्ता अपने पास रखकर ही हॉस्टल भेजूंगी. तन्मय और तपस्या उसके हॉस्टल की सारी व्यवस्था कर देंगे. उसे हमारे पास बहुत अच्छा लगेगा.’ दादी ने उनसे मेरी बात भी करा दी. उन्होंने आश्‍वासन दिया कि वे दोनों उसे स्टेशन पर लेने आएंगे. निश्‍चित दिन तन्मय अंकल, तपस्या आंटी मुझे स्टेशन पर लेने आए. स्टेशन से घर तक का सफ़र काफ़ी लंबा था. उन्होंने बहुत सारी बातें रास्ते में ही बताईं. अंकल कहने लगे, “मेरा बेटा स्पंदन वैल्लोर में डॉक्टरी की पढ़ाई करने इसी साल गया है. पहले वह मसूरी में पढ़ता था, पर पापा की मृत्यु के बाद जब मां हमारे पास लखनऊ आयीं तो वे बहुत उदास रहती थीं. हमारी दिनचर्या में मां के लिए समय नहीं था, सो हमने स्पंदन को घर बुला लिया. मां के साथ उसे वो प्यार मिला था, जो हम उसे नहीं दे पा रहे थे. पढ़ाई के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों और इंसानियत का पाठ उसने अपनी दादी से ही सीखा था. उसकी दादी एक विलक्षण प्रतिभा की धनी हैं. वे एक सुविख्यात डॉक्टर की पत्नी हैं, जो दुर्भाग्य से आज हमारे बीच नहीं हैं. उन्हीं के बदौलत स्पंदन ने मेडिकल की परीक्षा में चौथा स्थान पाया और वैल्लोर जैसे विख्यात कॉलेज में पढ़ रहा है.” अंकल की बातों से लगा कि वह अपने मम्मी-पापा से कितना प्यार करते हैं और उनका सम्मान भी. इस तरह बातें करते-करते घर आ गया. अंकल-आंटी मुझे अपनी मम्मी से मिलवाकर तुरंत ही कॉलेज चले गए, क्योंकि उन्हें देर हो रही थी. वह दिन खाने और सोने में बीता. दादीजी ने भी मुझसे औपचारिक बातें पूछीं, जैसे- मेरी सहेली कैसी है? अभी भी पहले की तरह सुंदर है या बुढ़ापा छा गया है? तुम्हारे दादाजी की दिनचर्या क्या रहती है? आदि-आदि. अंकल-आंटी जब लौटे तो थके लग रहे थे. डॉक्टर का पेशा ऐसा ही है, यह बात मैं जानती थी. “मां, बड़ी भूख लगी है. आज लंच भी ठीक से नहीं किया.” आंटी ने आते ही कहा. दादी ने रसोइए को आवाज़ देकर तुरंत खाना लगवाया. उन्होंने हम तीनों की पसंद का खाना बनवाया था. अगले दिन मुझे अंकल-आंटी के साथ कॉलेज जाना था, इसलिए सुबह आठ बजे तैयार होने को कहकर व दादी मां को प्रणाम करके दोनों सोने चले गए. मेरा बिस्तर दादी के कमरे में लगा. मेरा मन तनय से बात करना चाह रहा था, पर अहम् आड़े आ रहा था. वह क्यों नहीं फ़ोन कर रहा? यदि वह अपने को बड़ा समझ रहा है, तो मैं क्या कम हूं? इसी भाव ने मुझे फ़ोन करने से रोका. सारी रात करवटें बदलते बीती. मैं सुबह जल्दी ही उठ गई. आज कॉलेज का पहला दिन था. आंटी दादी को प्रणाम करने सुबह 6 बजे ही आ गईं. उन्होंने मुझे भी विश किया और हिदायत दी कि 8 बजे तक तैयार होकर नाश्ते के लिए बाहर आ जाना. जाते-जाते आंटी नौकरानी सरस्वती को समझा रही थीं कि मां को नाश्ता-खाना खिलाकर ही अपने घर जाना. जाते-जाते वह यह बताना भी नहीं भूलीं कि आज शनिवार है और वह जल्दी आकर मां की सहेलियों का चेकअप करेंगी. एक कार में मैं और आंटी तथा दूसरी कार में अंकल गए. रास्ते में आंटी कहने लगीं, “जब मां आगरा से आई थीं, तो काफ़ी उदास रहती थीं. हमारे आग्रह पर वह पास वाले पार्क में घूमने जाने लगीं. वहां उनका परिचय कुछ गरीब और असहाय बुज़ुर्ग स्त्रियों से हुआ, जिनकी देखभाल करनेवाला कोई न था. जब उन्होंने मुझसे उनके बारे में बताया, तो मैंने ही सुझाव दिया कि शनिवार को मेरे 2 पीरियड फ्री रहते हैं, अतः आप उन्हें शाम को घर पर बुला लिया करें, मैं उनका चेकअप करके उन्हें दवा, सलाह आदि दे दिया करूंगी. अब यह नियमित रूप से 2-3 सालों से चल रहा है. ये सब शनिवार को मां के साथ पहले भजन-कीर्तन करती हैं और फिर मैं उनका इलाज करती हूं. इसके अलावा हम कुछ डॉक्टरों ने मिलकर एक चैरिटेबल संस्था भी बनाई है. एक गांव भी गोद लिया है. हम वहां हर महीने जाकर गरीबों का इलाज करते हैं व मु़फ़्त दवाइयां भी देते हैं. तुम चाहो तो हमारी संस्था की सदस्य बन सकती हो. देखो मानसी, समाज हमें पग-पग पर सहारा देता है. हमें भी समाज के लिए कुछ करते रहना चाहिए.” मैं आंटी के व्यक्तित्व से प्रभावित होती चली गई. शाम को जब हम लौटे तो दादीजी अपनी भजन-कीर्तन मंडली के साथ डॉक्टर बहू का इंतज़ार कर रही थीं. आंटी ने सभी का चेकअप किया. रात को दादी ने मुझसे कहा, “तुम्हारी दादी का फ़ोन आया था और उन्होंने मुझे तुम्हारे और तनय के प्यार, शादी की इच्छा, मन-मुटाव आदि के बारे में बताया. उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं तुम्हें समझाऊं. क्या तुम्हें मेरा समझाना अच्छा लगेगा?” उन्होंने सीधे-सीधे मेरी आंखों में झांककर प्रश्‍न किया. “क्यों नहीं, आप भी तो मेरी दादी की तरह हैं.” “देखो बेटा, जहां प्यार होता है, वहां नोंक-झोंक तो हो सकती है, पर अलगाव नहीं. कोई भी समस्या ऐसी नहीं होती जिसे सुलझाया न जा सके. तुम्हारी बातें अपनी जगह ठीक हैं. मैं भी उनसे असहमत नहीं हूं. लड़कियों को भी लड़कों के बराबर का अधिकार है. लेकिन प्रकृति ने भी कुछ मामलों में लड़के-लड़की में बुनियादी अंतर किया है, जैसे- मां बनने का सुख केवल नारी को ही मिला है. धैर्य, वात्सल्य, ममता, त्याग आदि स्त्रियों के अमूल्य गहने हैं, जो पुरुषों में विरले ही मिलते हैं. उसी तरह अनुशासन में पुरुष अग्रणी है. वह बुद्धि से अधिक काम लेते हैं. लड़की का हृदय और लड़के की बुद्धि जब दोनों मिलते हैं, तभी घर की गाड़ी ठीक प्रकार से चलती है. प्यार में छोटी-छोटी बातें महत्वहीन हो जाती हैं. तपस्या को ही लो. तन्मय और तपस्या ने भी प्रेम-विवाह किया है. यह बंगाली कायस्थ है और हम पक्के अग्रवाल बनिये. रहन-सहन, खान-पान, भाषा सब अलग. पर प्यार कहां सब मानता है? दोनों परिवारों में विरोध हुआ. पर आख़िर में सभी को झुकना ही पड़ा. तन्मय से परिचय के बाद से ही इसने अपने को बदल डाला. मांस-मछली खानेवाली लड़की अब पूर्ण शाकाहारी बन चुकी है. जब तन्मय के पापा अचानक कार दुर्घटना में चल बसे, तो यह बहू ही थी, जिसने मुझे बच्चों की तरह संभाला. मेरा मान-सम्मान किया. तन्मय भी यदि मुझे इतना मान देता है, तो उसमें भी कहीं न कहीं तपस्या का ही हाथ है. सुबह जाने से पहले नौकरों को हिदायत देना कि मेरा ध्यान रखें और रात को चाहे 10 मिनट ही सही, मेरे पास बैठना और छुट्टी में मुझे बाहर घुमाने ले जाना भी नहीं भूलती तपस्या. यह तो तपस्या की बात बताई, पर मेरा बेटा भी कम नहीं है. तपस्या के मम्मी-पापा का तपस्या के सिवाय कोई देखभाल करनेवाला नहीं है. इसी से तन्मय ने शादी के बाद ही मुझसे कह दिया था कि मां तपस्या अपनी मम्मी-पापा को हर महीने आर्थिक मदद भेजेगी. भला मुझे क्या ऐतराज़ था. मेरे विचार में तो लड़का-लड़की में कोई अंतर है ही नहीं. सो हर महीने तपस्या को हम ही याद दिलाते हैं कि कलकत्ते पैसे भेजे या नहीं. इस तरह प्यार में पूर्ण समर्पण न हो तो वह प्यार कहां है?” मैं तो पहले ही सम्मोहित-सी दादी की बातें सुन रही थी. अब मैंने एक निश्‍चय के साथ दादी को फ़ोन मिलाने में देर नहीं की. “दादी, मेरी बात ध्यान से सुनो, आप पापा को फ़ोन करके कहो कि वह तनय के पापा से कहें कि वह भारत आते ही उनसे मिलने आ रहे हैं. हां दादी, आपने जो तनय की मम्मी के लिए साड़ी पसंद की है, वह भी ख़रीद लाना. अच्छा अब फ़ोन रखती हूं, क्योंकि मुझे तनय को भी फ़ोन करके मनाना है. वह मुझसे रूठा जो है.” निश्‍चित दिन मैं हॉस्टल चली गई. पर दादी की सहेली के परिवार से मैंने जो अमूल्य निधि पाई, वह अविस्मरणीय है. जीवन को किस तरह से जीना चाहिए, इसकी प्रेरणा मुझे उन्हीं लोगों से मिली. अभी तक मैंने टीवी सीरियल, समाचार आदि की ख़बरें देख-पढ़कर जो पूर्वाग्रह पाल लिया था, वह वहां रहकर दूर हो गया. तनय के मम्मी-पापा ने अपने बेटे के प्रेम को स्वीकार किया, क्या यह उनकी महानता नहीं है? क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं कि मैं उनकी इच्छा का मान करूं. सास और बहू का जो प्यार भरा रिश्ता मैंने वहां देखा, उसके बाद तो मेरी नज़र में सास की छवि ही बदल गई. बड़ों को चाहिए थोड़ा-सा सम्मान और चुटकीभर प्यार. इस बात का जीता-जागता उदाहरण डॉ. अंकल और आंटी हैं, जिनके मार्गदर्शन की मुझे पग-पग पर ज़रूरत पड़ेगी और दादी की सहेली-वे तो मेरी आदर्श ही बन गई हैं.
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         मृदुला गुप्ता
 

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