‘भले ही सरनेम लगाऊं या नहीं, पर छिपा थोड़ी ही सकती हूं अपनी पहचान. हम स्कूल में, समाज में अपना सरनेम छिपाना चाहते हैं, पर जब सरकार पिछड़ेपन के नाम पर सुविधाएं देती है तो झट से झोली फैलाकर खड़े हो जाते हैं. तब हमें परवाह नहीं होती अपनी पिछड़ी जाति के पता लगने की.’
आज फिर सुप्रिया की कक्षा में नई टीचर के सामने परिचय था. पूरी क्लास ने अपने नाम का पूरा परिचय दिया था. विदुषी मेहता, वैशाली गर्ग, शिवांशी पारीक... बस, एक वो ही थी सुप्रिया-केवल सुप्रिया. कितनी बार उसने अपनी मम्मी को कहा है कि मेरे नाम के आगे भी सरनेम लगाओ, पर मम्मी मना कर देतीं. वे कहतीं, ऐसे ही ठीक है. उसे अपनी नई टीचर की बिंदी बहुत पसंद आई. एक बड़ी बिंदी के नीचे काली छोटी बिंदी-बिल्कुल सरनेम की तरह सपोर्टिंग. आज तो वो मम्मी-पापा दोनों को कहेगी कि मुझे भी कोई अच्छा-सा सरनेम रखना है, मुझे अच्छा लगता है. क्लास टीचर भी अटेंडेंस लेते समय सबका पूरा नाम पुकारती हैं और मेरा नाम बिल्कुल अधूरा-सा सुप्रिया... स़िर्फ सुप्रिया. मम्मी कहतीं, “देखो बेटा, हम सबसे अलग हैं. हमारा सरनेम अच्छा नहीं है.” “क्यों अच्छा नहीं है?” सुप्रिया बालहठ में पूछती. “हम लोग शेड्यूल कास्ट में आते हैं.” “वो क्या होता है मम्मा?” “यानी पिछड़ी जाति में... अगर हम सरनेम लगा लेते हैं, तो सबको पता चल जाएगा कि हम शेड्यूल कास्ट के हैं.” “तो इसमें क्या हुआ?” “नहीं बेटा, ऐसा नहीं हो सकता.” और मम्मी ने अपने सेल्फ़ स्टार्ट स्कूटर का बटन दबाया और ऑफ़िस चली गईं. सुप्रिया नहीं समझ पाई पिछड़ी जाति की संकल्पना. आज नई टीचर वैदिक काल में समाज के वर्गीकरण के बारे में बता रही थीं. “ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र- ये चार जातियां अपने कर्मों के आधार पर बनी थीं, जिसने जैसा काम अपनाया, वो उसी वर्ग का कहलाया. पर समाज की यह विसंगति रही कि आगे चलकर भी कर्म आधारित वर्गीकरण ने पीछा नहीं छोड़ा और...” टीचर लगातार बोल रही थीं, पर सुप्रिया को अपनी मम्मी का दर्शन नहीं समझ में आ रहा था कि सरनेम लगाने से जाति उजागर होती है और उससे पिछड़ापन. मम्मी तो अच्छी-ख़ासी अफ़सर हैं. बड़ा भाई इंजीनियरिंग करने बैंगलोर गया है. पापा भी हम दोनों को कॉन्वेंट में पढ़ा रहे हैं, तो क्या अब भी हम पिछड़े हैं? दादी के गांव से चाचा-चाची और उनके बच्चे आए. कितने गंवार से लग रहे थे? चाची का पहनावा भी कुछ अजीब-सा था. लंबा-सा घाघरा और नाक में बड़ा टोपी जैसा लौंग. बोलना भी नहीं आता. हुंह! ये लोग हैं पिछड़े, हम क्यों? और चाचा को तो देखो. न शेव करते हैं और न ही रोज़ कपड़े बदलते हैं. मम्मी को कहूंगी इनको समझाएं कि थोड़ा इंसानों की तरह रहें. मम्मी चाचा को समझाने लगीं, “देखो रामधन, तुम दीनू और दीपा को पढ़ा दोगे तो चांदी ही चांदी है. हम लोग तो पिछड़ी जाति में आते हैं. सरकार ने हमारी जातिवालों के लिए नौकरी में अलग से सीटें रिज़र्व रखी हैं. अपनी तो नौकरी भी जल्दी लग जाती है. बस, थोड़ा पढ़ा-लिखा होना चाहिए. अपने बच्चों के नंबर भले ही कम आएं, लेकिन अच्छे स्कूल-कॉलेज में एडमिशन मिल जाता है. तुम्हारा भतीजा दीपांशु भी तो इंजीनियरिंग कर रहा है, वरना हमारे पड़ोसी का बेटा ज़्यादा नंबर लेकर भी कुछ नहीं बन पाया और तुम्हारे भैया भी तो इस नौकरी में ऐसे ही आए हैं.” ‘अच्छा तो दीपांशु भैया को भी प्रवेश इसी आधार पर मिला है. तभी जब मैंने मेरी सहेलियों को ख़ुशी से उछलते हुए यह ख़बर दी थी, तब उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी, क्योंकि विदुषी के भैया का सिलेक्शन इस बार फिर नहीं हुआ था.’ मेरे पीठ मोड़ते ही उन्होंने खुसर-फुसर भी की थी. सुप्रिया सोचने लगी. आज टीचर पिछड़ी जाति के लिए सरकारी कार्यक्रमों की फेहरिस्त बता रही थीं. कितनी सुविधाएं सरकार ने पिछड़ी जाति को दी हैं. शिक्षा, आवास, रोज़गार के क्षेत्र में हों या किसी अन्य क्षेत्र में... हर जगह उनका स्थान आरक्षित है. आज शहर बंद का आह्वान था. पूरे प्रदेश में आरक्षण का मामला गर्म था. आरक्षण के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हो रही थी. मुद्दा यह था कि क्रीमी लेयर को आरक्षण क्यों दिया जाए? “मम्मी, यह क्रीमी लेयर क्या होता है?” “क्रीमी लेयर यानी क्रीम की जैसी चिकनी.” मम्मी ने मेरे गालों को खींचते हुए कहा और हंस दी. “बताओ न मम्मी, टालो मत.” “क्रीमी लेयर यानी समाज के उच्च वर्ग के लोग, जो अच्छी नौकरियों में हैं और उच्च रहन-सहन रखते हैं, जैसे- हम लोग.” “क्यों? तुमने आज यह प्रश्न क्यों पूछा?” मम्मी ने प्रश्न किया. “वो आज स्कूल में आरक्षण की बात हो रही थी कि क्रीमी लेयर को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए और एक परिवार में एक बार ही आरक्षण मिले. कुछ तो कह रहे थे कि शिक्षा के स्तर पर सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं, नौकरी में नहीं.” “ठीक है... ठीक है, पर तुम इस तरह की बहस में हिस्सा मत लिया करो.” “क्यों भला?” सुप्रिया ने तुनक कर कहा. “जब सरकार हमें सुविधाएं दे रही है, तो हम क्यों लात मारें? अभी तो तुम्हें डॉक्टर बनना है सुप्रिया. इसी बलबूते पर तो हम आशान्वित हैं.” सुप्रिया नहीं समझ पाई मम्मी का सिद्धान्त. मम्मी कभी स्कूटर, तो कभी कार में ऑफ़िस जाती हैं. पापा भी गाड़ी से आते-जाते हैं. ड्राइवर सलाम किए खड़ा रहता है. हमारा इतना अच्छा घर है. साथ ही वे सब सुख-सुविधाएं हैं, जो विदुषी, प्रियंका और शिवांशी के घर पर भी नहीं हैं. फिर भी हम पिछड़ी जाति के हैं. आज मम्मी का मूड कुछ उखड़ा हुआ है. ऑफ़िस के मैटर को लेकर कुछ तनातनी है. पापा कुछ सलाह दे रहे हैं, “चिंता मत करो. हम देख लेंगे.” ‘क्या देख लेंगे?’ सुप्रिया नहीं समझ पाती. उसे तो ट्यूशन जाना है. आज फिर उसे ट्यूशन से निकलते हुए विदुषी ने कहा था, “सुप्रिया, तुझे तो ज़्यादा टेंशन नहीं है. तेरा तो कम नंबर पर भी सिलेक्शन हो जाएगा. हमें तो ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी.” फांस की तरह चुभ गई उसे विदुषी की बात. ‘भले ही सरनेम लगाऊं या न लगाऊं, पर छिपा थोड़ी ही सकती हूं अपनी पहचान. हम स्कूल में, समाज में अपना सरनेम छिपाना चाहते हैं, पर जब सरकार पिछड़ेपन के नाम पर सुविधाएं देती है, तो झट से झोली फैलाकर खड़े हो जाते हैं. तब हमें परवाह नहीं होती अपनी पिछड़ी जाति के पता लगने की.’ सुप्रिया का मन ख़ुद से ही सवाल-जवाब कर रहा था. आज ऑफ़िस से आते ही मम्मी फ़ोन पर फ़ोन कर रही हैं. कभी पापा को, तो कभी नेता अंकल को, तो कभी सहेली को. बातचीत मम्मी के बॉस के इर्द-गिर्द चल रही है. काम को लेकर, आने-जाने को लेकर और भी न जाने क्या-क्या, जो सुप्रिया की समझ से परे है. लो... पापा भी आज ऑफ़िस से जल्दी आ गए हैं. पापा आक्रामक लग रहे हैं. मम्मी को कह रहे हैं, “चिंता मत करो. तुम्हारे बॉस को तो नानी याद करवाकर रहूंगा. उसे पता नहीं, धारा क्या होती है? अभी रामखिलाड़ी को बुलाया है, वो बताएगा कि ट्रिक कैसे लगती है.” ट्रिक...? सुप्रिया की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या मामला बनने जा रहा है. रामखिलाड़ी अंकल एक नेता टाइप आदमी को भी साथ लाए हैं. उनकी गु़फ़्तगू छोड़ सुप्रिया ट्यूशन चली गई. रात को डाइनिंग टेबल पर मम्मी-पापा एक नीरवता के बीच खाना खा रहे हैं. बीच-बीच में पापा कह रहे हैं, “देख लेंगे उसे तो... वो भी क्या याद रखेगी... किससे पाला पड़ा है.” अपने बॉस के ख़िलाफ़ बहते कड़वे रस को मम्मी के चेहरे पर साफ़ पढ़ा जा सकता है. खाना खाते ही रामखिलाड़ी और उनके नेता दोस्त हाथ में एक मोटी-सी क़िताब लिए आ धमके. वे मम्मी-पापा को कई पन्ने खोल-खोलकर दिखाते रहे. “अरे, भाभीजी! आप चिंता मत करो, छठी का दूध याद दिला दूंगा आपके बॉस को. एक महिला उत्पीड़न का आरोप लगा दो, वही बहुत है.” ‘अब भला यह महिला उत्पीड़न कहां से आ गया’ सुप्रिया सोचने लगी. बायोलॉजी की क़िताब में आंखें ग़ड़ाए उसे झुंझलाहट होने लगी थी. पता नहीं मम्मी को क्या हो गया है. “पर इनकी बॉस तो ख़ुद महिला है. महिला पर महिला के उत्पीड़न का आरोप नहीं लग सकता.” पापा बोले. “अच्छा कोई बात नहीं. तब ये हमारा दलित पीड़ित वाला मामला ही अधिक कारगर होगा. इस धारा में फंस गई, तो बच्चू सीधी जेल की ही हवा खाएगी.” वो नेता बोला. कभी ऊंची आवाज़ में तो कभी फुसफुसाहट में सुप्रिया के कमरे में आवाज़ें आती रहीं. उनके जाने के बाद सुप्रिया ने अनचाही दख़ल देते हुए पूछा, “मम्मी, मामला क्या है? आप इतनी परेशान क्यों हो?” “कुछ नहीं. तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.” “फिर भी, कुछ बताइए ना?” “कुछ नहीं बेटा. ऑफ़िस में कुछ परेशानी है.” सरला ने बात टालते हुए कहा. “तुमने फॉर्म भर दिया क्या?” सरला ने विषय बदलते हुए पूछा. “एक-दो दिन में जाति प्रमाण-पत्र बन जाएगा, फिर अटैच्ड करवा देंगे. और सहेलियों ने फॉर्म भर दिए क्या?” सरला की बात का जवाब सुप्रिया ने ‘हां-हूं’ में ही दिया. सुप्रिया ट्यूशन से लौटी, तो घर में मजमा लगा हुआ था. मम्मी रसोई में पकौड़े तल रही थीं. बैठक में वही रामखिलाड़ी अंकल और चिर-परिचित नेता दोस्त बैठे थे. पापा भी ऑफ़िस से आ गए थे. ठहाकों की आवाज़ बाहर तक आ रही थी. वे नेता पापा को बता रहे थे कि कैसे उन्होंने मम्मी की बॉस को बड़े साहब के चैम्बर में बुलवाया. “अरे साहब! घिग्घी बंध गई उसकी. हमें तो ज़्यादा कुछ कहना ही नहीं पड़ा. बड़े साहब ने ख़ुद ही उनकी बॉस की तरफ़ से माफ़ी मांग ली, तो उनके बॉस को तो माफ़ी मांगनी ही पड़ी.” “भाईसाहब, उसे नहीं मालूम कि हम शेड्यूल कास्ट लोगों से तो कुछ भी कहते हुए लोग डरते हैं.” “क्यों भाभीजी कैसी रही?” मम्मी भी हंस पड़ीं. उनकी हंसी में जीत के दर्प की खनक मेरे कमरे तक साफ़ महसूस की जा सकती थी. सुप्रिया की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उसे उनकी बातों का मर्म ही समझ में नहीं आ रहा था. ‘ऐसी कौन-सी बात थी, जो किसी को जेल में पहुंचा दे? ऐसी कौन-सी बात थी, जिससे कोई शेड्यूल कास्ट से डरे? मम्मी तो मुझे सरनेम लगाने से रोकती हैं, फिर ऑफ़िस में इस तरह से अपने शेड्यूल कास्ट होने का प्रचार क्यों कर रही हैं.’ दो-तीन घंटे बाद मजमा ख़त्म हुआ. घर से यूनियनवाले नेता विदा हुए, तो सुप्रिया ने मम्मी से पूछा, “मम्मी, क्या मामला है? आज हमारे घर इतने लोग क्यों आए?” “कुछ नहीं बेटा. बस, किसी को मज़ा चखाना था, चखा दिया. मेरी बॉस अपने आपको कुछ ज़्यादा ही समझती है.” “तो?” सुप्रिया सोफे पर धंस गई, जैसे वो भी आज सब कुछ उगलवाना चाहती थी. “तो क्या? रोज़-रोज़ किच-किच करती है. कभी कहती है, ये काम नहीं किया, तो कभी कहती, वो काम नहीं किया. सुबह काम देकर शाम को उसका हिसाब मांगती है, मानो हम बंधुआ मजदूर हों. उस दिन थोड़ा देरी से क्या चली गई, बस चैम्बर में बुलाकर डांट दिया.” सरला के अंदर जमा हुआ सब पिघल रहा था. मानो वो सुप्रिया में भी इस संस्कार के बीज बोना चाहती थी. “तो इसमें शेड्यूल कास्टवाली बात कहां से आई?” सुप्रिया आज मम्मी को पूरी तरह से खंगाल लेना चाहती थी. “बेटा, संविधान ने दलितों के लिए बहुत अच्छे नियम बनाए हैं. अगर ये नियम न हों तो राम जाने हमारा क्या हाल हो, जैसे- हमें नौकरी में आरक्षण, नौकरी में अपने घर से 50 किमी. दूरी पर नियुक्ति आदि.” सरला जैसे आज सुप्रिया को पूरा संविधान बता देना चाहती थी. “पर मुझे तो आज की बात बताओ... ये माफ़ीनामा...” सुप्रिया रुकी नहीं. “हां, वो...” अब सरला को कुछ संकोच हो रहा था. “कोई हमें जातिगत गाली निकाले, तो उस पर क़ानूनी कार्रवाई हो सकती है. जेल भी भेजा जा सकता है. बस, एक गवाही की ज़रूरत होती है.” “तो क्या आपकी बॉस ने आपको जातिगत गाली निकाली?” सुप्रिया ने आंखें तरेरकर मम्मी को देखा. “नहीं... नहीं... पर उसे नीचा दिखाने के लिए यही मुद्दा बचा था हमारे पास, वरना हम कैसे जीतते?” “ये तो कोई बात नहीं हुई मम्मी. एक तरफ़ तो हम अपना सरनेम लगाकर किसी को यह बताना भी नहीं चाहते कि हम पिछड़ी जाति से हैं, दूसरी तरफ़ किसी पर बेवजह आरोप लगाकर उसे बदनाम भी करो.” “तुम नहीं समझोगी सुप्रिया. राजनीति ऐसे ही होती है. चलो अपना फॉर्म दिखाना, जो तुमने भरा है. टाइम से भेज दो तो अच्छा है. जाति प्रमाण-पत्र भी आ गया है. यह लो और भर दो फॉर्म.” सुप्रिया उठकर चली गई. आज स्टडी टेबल पर बैठने का भी मन नहीं हुआ उसका. बिस्तर पर जाकर सोने की कोशिश करने लगी. पर आज सुप्रिया की आंखों में नींद कहां थी? ‘दलित... आरक्षण... सुविधाएं... नियुक्ति... फिर जातिगत गालियों पर जेल.... कैसा संविधान? फिर अब इस स्थिति में हम दलित कहां? पापा सरकारी अफ़सर, मम्मी प्राइवेट कम्पनी की अफ़सर... इतना बड़ा बंगला... कारें... ड्राइवर... कहीं किसी से कम नहीं... हां! वो क्रीमी लेयर... हां, वही हैं हम! फिर सरकार से आरक्षण के नाम पर सुविधाएं लेकर हम गांव के अपने चाचा जैसे लोगों का हक़ क्यों छीन रहे हैं? उन्हें ज़रूरत है अभी आरक्षण की. मम्मी ने तो हद ही कर दी अपनी बॉस पर जातिगत गालियों का इल्ज़ाम लगाकर. इसे उन्होंने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया और मुझे सरनेम भी नहीं लगाने देतीं. मेरे तो 100% अंक आते हैं. मुझे किसी आरक्षण की कहां ज़रूरत.’ सुप्रिया बिस्तर से उठी और स्टडी टेबल के ड्रावर से फॉर्म निकाला, दराज से पेन लिया और लिख दिया ब्लॉक लेटर में. ‘सुप्रिया भारतीय.’ ‘जाति-सामान्य.’ सुबह ही मम्मी को प्रमाण-पत्र वापस लौटा देगी. उसे इसकी ज़रूरत नहीं. सुप्रिया को लगा उसने पिंजरे के उन दरवाज़ों को खोल दिया है, जो बरसों से उस घर को कैद रखे थे. आज वो उन्मुक्त हो आसमान में उड़ रही है... उन्मुक्त.संगीता सेठी
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