
मैं आवाक थी. क्या कोई किसी से इतना प्रेम कर सकता है कि अपना संपूर्ण जीवन ही...? मैंने ही उन्हें सहारा दिया और दीदी कहने से भी अपने आपको न रोक पाई, “दीदी, तो क्या अब तक आकाश को...”
“नहीं... नहीं...” वो विचलित हो उठी थीं, “उसे न बताना. न जाने वो क्या सोचे. कहीं वह अपने आपको दोषी न ठहराए, जबकि ज़िंदगी के सारे फैसले ख़ुद मेरे थे. गुनहगार हूं तो तेरी, जो सज़ा देना चाहे दे ले...”
आकाश लौटकर आए तो चेहरे पर परेशानी, चिन्ता की लकीरें थीं. चेहरा देखकर ही मैं कई आशंकाओं से घिर गई, “क्या हुआ? सब ठीक तो है?” “हूं...” मुंह लटकाए ही जवाब मिला था. “तो फिर आप इतने परेशान क्यों हैं?” “कुछ नहीं... बस ऐसे ही...” दूसरे दिन ख़बर मिली कि उन्हें फिर से दौरा पड़ा है. यह दूसरा अटैक था. हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा. मैंने कहा, “आपको जाना चाहिए.” जब इस बार वे लौटकर आए, तो चेहरा तनावमुक्त था. मैंने सोचा, लगता है सब ठीक है. जब मैंने पूछा, तो उन्होंने कहा, “बचना मुश्किल है... तुम्हें बुलाया है...” सुनकर मैं चौंक पड़ी. उनके चेहरे से... उनके भाव से तो ऐसा कुछ भी नहीं लग रहा है. जब मैं हॉस्पिटल पहुंची, तो वो लगभग अंतिम सांसें ले रही थीं. मासूम चेहरा, जो पैंतालिस वर्ष की अवस्था में भी दीये की लौ की तरह जगमगाता रहता था, सूख कर कांटा हो गया था. बड़ी दीन-हीन और लाचार लग रही थीं वे. उनकी हालत देखकर आंखें भर आईं.. मुझसे एकांत में बात करने की इच्छा ज़ाहिर की. सभी कमरे से बाहर चले गए... आकाश भी. केवल मैं थी. मुख से कुछ अस्फुटित शब्द ही निकल रहे थे, “निक्की... इस जीवन का कहा-सुना माफ़ करना... और देख, वो डायरी... आकाश के हाथ न लगे... उसे जला देना...” “दीदी... नहीं... नहीं, आप मुझे छोड़कर नहीं जा सकतीं...” मैं उनसे लिपटकर रोने लगी थी. “अरे पगली... रोते नहीं, पिताजी की सारी संपत्ति तेरे नाम लिख दी है... उसे स्वीकार करना...” उनका हाथ मेरे सिर पर था. दुनिया ‘वेलेन्टाइन डे’ के रंग में डूबी थी. लाल सुर्ख गुलाब प्रेमिकाओं के सुंदर केशों की शोभा बने थे. प्रेम का पहला इज़हार उनकी अंतर्रात्मा तक को महका रहा था. ठीक उसी दिन सरकारी अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में, दुनिया से दूर, लेकिन अपने अधूरे अरमानों के साथ, उन्होंने मेरी ही बांहों में दम तोड़ा था. मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व ही उनका चेहरा पुन: जगमगा उठा. जैसे दीये की लौ, अपनी मृत्यु से पूर्णत: संतुष्ट, जैसे कोई गिला-शिकवा नहीं. काश! उन्होंने कहने का मौक़ा तो दिया होता कि जो कुछ मेरा है... वह सब... आकाश भी... उनका है... मैं बाहर आ गई. आकाश ने आतुरता से पूछा था, “क्या हुआ?” मैं पुन: रो पड़ी. देखा, आकाश के चेहरे पर वही शांति... वही स्थिरता... वही सुकून. उनके परिवार में कोई शेष नहीं था. जो कुछ भी थे, हम लोग ही थे. अंतिम संस्कार कौन करे. मैंने कहा, “आपको ही करना चाहिए... आख़िर वे आपकी दोस्त थीं.” आकाश से जब मेरी शादी हुई, तो उन्हें आकाश के आसपास ही पाया था. वो आकाश की हमउम्र थीं. लोगों से सुना भी कि वो आकाश की सबसे अच्छी दोस्त हैं. बड़े बाप की इकलौती बेटी. मेरी ससुराल से कुछ ही दूरी पर उनकी शानदार कोठी थी. कोठी के सामने ही बड़ा-सा लॉन, नौकर-चाकर, गाड़ी-मोटर सभी सुख-सुविधाओं से संपन्न. बाद में पता चला दोनों कॉलेज में एक साथ ही पढ़े थे. ग्रेजुएशन के बाद आकाश ने सर्विस कर ली और वो पढ़ने के लिए शहर से बाहर चली गईं. जैसा कि होता है, कोई लड़की अपने पति के साथ किसी और लड़की का नाम सहन नहीं कर सकती, फिर चाहे वे कितने ही अच्छे दोस्त ही क्यों न हों. मैं भी कई शंकाओं से घिरती चली गई. क्या चक्कर है इनके बीच... केवल दोस्त! या कुछ और भी? मेरी शादी को पांच वर्ष गुज़र गए. एक बेटा और उसके पीछे एक बेटी का जन्म हुआ. उसी की सालगिरह पर जब वो मेरे घर आईं, तो मैंने पूछा, “आपके दोस्त ने तो शादी कर ली... दो-दो बच्चों के पिता भी बन गए. आपका क्या इरादा है?” वो थोड़ा-सा मुस्कुरायीं, फिर बड़ी सहजता से बोलीं, “शादी-ब्याह संजोग की बात होती है.” मेरी समस्त शंकाओं के आधार पुख़्ता हुए. एक वर्ष बाद जब उनके पिता का देहांत हुआ, तो उनके विवाह की प्रत्येक संभावना ख़त्म होती नज़र आई. आकाश अभी भी कोठी जाते थे. एक ऐसी ही शाम थी, जब आकाश काफ़ी देर बाद भी न लौटे, तो मैंने स्वयं कोठी जाने का फैसला लिया. दरवाज़ा उन्होंने ही खोला था, “अरे तुम, यहां कैसे? अंदर आओ...” मैंने कुछ तल्ख़ लहजे में ही पूछा, “आकाश यहां आए थे. अभी तक घर नहीं लौटे.” “क्या?” वो भी चौक पड़ी थीं, “यहां से तो काफ़ी देर पहले ही... कहां गया होगा?” मैंने आकाश का बचाव करना चाहा, “हो सकता है कहीं और चले गए हों. अच्छा मैं चलती हूं.” “अरे ऐसे कैसे. पहली बार हमारे यहां आई हो.” उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर अंदर खींच लिया था. उन्हीं से पता चला कि उनकी एक छोटी बहन भी थी. पंद्रह-सोलह साल की अवस्था में एक हादसे में उसका देहांत हो गया था. नाम था- ‘निक्की’. उस दिन मेरे न चाहने पर भी उन्होंने मुझे अपनी छोटी बहन मान लिया. ‘निक्की’ नाम दे दिया. फिर उस कोठी में मेरा आना-जाना लगा रहता. मन में एक ही लालच था, कभी न कभी... कोई न कोई मौक़ा तो मिलेगा ही... वैसे भी झूठ की उम्र लंबी नहीं होती. लेकिन पच्चीस वर्ष गुज़र गए. मुझे कोई मौक़ा न मिला. मेरी शंकाएं आधारहीन साबित हुई थीं. तहेदिल से मैंने उन्हें अपनी बड़ी बहन मान लिया. मुझे लड़की का ब्याह करना था. सब कुछ तय हो गया, लेकिन पर्याप्त धन नहीं था. अच्छा लड़का. अच्छा खानदान हाथ से फिसलता नज़र आ रहा था. ऐसी मुश्किलों के व़क़्त वह सामने आई थीं. आकाश ने उनसे कर्ज़ के तौर पर दो लाख रुपये लिए. आशा थी कि लड़के की नौकरी लगते ही दोनों मिलकर कर्ज़ चुका देंगे. दो साल गुज़र गए. लड़के की नौकरी भी लग गई. इतनी बार आना-जाना हो चुका था कि अब कोई औपचारिकता नहीं थी. नौकर ने बताया मालकिन अपने बेडरूम में हैं. मैं वहीं सीधे उनके कमरे में ही पहुंची थी. देखा वो पलंग पर बैठी कुछ पढ़ रही हैं. मुझे सामने पा कुछ सकुचा भी गईं. मैंने डायरी उनके हाथ से छीनते हुए कहा था, “मैं भी तो देखूं, मेरी दीदी क्या पढ़ रही हैं?” “नहीं...” उन्होंने रोकना चाहा तो मैंने उलाहना दिया, “छोटी बहन भी मानती हैं और उससे परदा भी रखती हैं.” मैंने डायरी देखनी शुरू की. बहुत ख़ूबसूरत कविताएं थीं. एक-एक शब्द पूरे भाव के साथ कविता में उतरे थे, “वाह दीदी! बहुत ख़ूब. क्या कविताएं हैं.” फिर मैंने वो पन्ना पलट दिया, जो शायद नहीं देखना चाहिए था, डायरी का प्रथम पृष्ठ सुंदर अक्षरों में लिखा था- ‘मेरे प्रिय आकाश के लिए.’
- शैलेन्द्र सिंह परिहार
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