"तुम बने रहो श्रवण कुमार, पर मुझसे उम्मीद मत रखो कि मैं तुम्हारे माता-पिता के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाऊंगी. हो सके तो फोन करके उनसे कह दो कि वे न आएं. मुझे अकेले रहने की आदत पड़ गई है और किसी की सेवा करना मेरे बस की बात नहीं है." नीला ने आवेश में आकर कहा.
विकास को यह तो पता ही था कि अम्मा और बाबूजी के आने की ख़बर से नीला ख़ुश नहीं होगी, पर वह इस क़दर झुंझलाएगी और वातावरण को तनावग्रस्त कर देगी, इसकी कल्पना उसने नहीं की थी. पिछली बार वह जबलपुर गया था. तब उसने माता- पिता के प्रति छोटी बहू सपना का उपेक्षापूर्ण व्यवहार देख कर वह समझ गया था कि माता-पिता वहां पर मानसिक रूप से कितने आहत हैं. यद्यपि वह जानता था कि उसकी पत्नी नीला के हृदय में भी सास-ससुर के प्रति पहले जैसा आदर नहीं रह गया है, फिर भी वह चाहता था कि माता-पिता उसके साथ रहें. पर मां ने कहा, "अभी नवरात्रि के व्रत चल रहे हैं, नवरात्रि हो जाए, फिर आएंगे."
विकास हमेशा से माता-पिता का आज्ञाकारी रहा. उसके पिताजी ने अपनी युवावस्था और प्रौढ़ावस्था उस युग में बिताई जब व्यक्ति ईमानदारी को जीवन की सबसे बड़ी पूंजी समझता था और लोग स्टेटस बनाए रखने की ख़ातिर अनैतिक साधनों से धन अर्जित करने की अन्धी दौड़ में शामिल नहीं होते थे. विकास को अक्सर याद आता कि जब वह छोटा था तो पिताजी को कुल पांच
सौ रुपये वेतन मिलता था. पर उस छोटी-सी रकम में भी उनका जीवन कितना ख़ुशहाल था.
पिताजी उसके हर जन्मदिन पर एक नई पोशाक अवश्य ख़रीद कर लाते और मारे ख़ुशी के वह पिताजी से लिपट जाता. मां खीर व पूरी बनाती और दादा-दादी, माता-पिता एक-दूसरे से परिहास करते हुए खाना खाते. लेकिन आज तो घर की परिभाषा ही बदल गई है. घर पति, पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रह गया है. दादा-दादी को साथ रखने की बात तो दूर, माता-पिता को भी अनावश्यक बोझ समझा जाता है. उसने तो सदा यही पढ़ा और सुना कि नारी संवेदनशील और भावुक होती है. फिर छोटे भाई की पत्नी सपना और उसकी पत्नी नीला अपने सास-ससुर के प्रति इतनी संवेदनहीन क्यों हो गई हैं?
आज वह प्रति माह नैतिक-अनैतिक साधनों से हज़ारों रुपये अर्जित करता है. समय-समय पर पत्नी और बच्चों को महंगे उपहार देता रहता है, पर उनकी आंखों में अतृप्ति की भावना झलकती ही रहती है. पिताजी सच ही कहा करते हैं, "ऊपरी कमाई में बरकत नहीं होती." पर वह भी क्या करे? भौतिक सुखों के रंग में रंगी पत्नी और बच्चों की आवश्यकताएं ही इतनी बढ़ गई हैं कि वेतन में गुज़ारा नहीं होता. रिश्वत लेने से मन में जो अपराधबोध की भावना जन्म लेती है, उसे दूर करने के लिए वह भी यह सोच कर संतोष कर लेता है कि स्टेटस के लिए यह सब ज़रूरी है. पर कैसा स्टेटस? जिसे बनाए रखने के लिए आत्मसम्मान को बेचना पड़ता है.
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वह इसी सोच में डूबा था कि नीला सामने खड़ी हो गई और विकास के बालों को सहलाने लगी. लेकिन उसका यह स्पर्श भी विकास को अपना सा नहीं लग रहा था. शादी के बाद के आरंभिक वर्षों में नीला को पैसों की ऐसी भूख नहीं थी. उन दिनों नीला बहुत ख़ुशमिज़ाज थी. उसके होंठों पर सदैव मुस्कान रहती थी.
उन दिनों वह सास-ससुर को माता-पिता जैसा ही सम्मान देती थी. पर जब से विकास की पदोन्नति हुई और ऊपरी आमदनी कमाने के रास्ते खुलने लगे, तब से नीला की ज़्यादा-से-ज़्यादा पैसा पाने की हवस बढ़ने लगी और वह सास-ससुर से भी पैसों की आशा करने लगी.
नीला ने बच्चियों को कभी नहीं सिखाया कि वे दादा-दादी का आदर करें. पिछले वर्ष जब विकास के माता-पिता उसके घर आए थे, तो नुपुर ने पिता से पूछा, "ये लोग अपने यहां क्यों रह रहे हैं?" तब विकास स्तब्ध रह गया था.
सास-ससुर के आने की ख़बर से नीला गंभीर हो गई. उसने पूछा, "उनकी यहां आने की योजना कैसे बन गई?"
"अरे भई, मैंने उन्हें परसों फोन कर दिया था कि वे यहां आ जाएं, वैसे भी सपना के व्यवहार से वे वहां आहत हैं. यहां आ जाएंगे, तो वातावरण बदल जाएगा. तुम भी तो कभी उन्हें लिखा करती थीं कि यहां आ जाइए. मुझे सेवा का मौक़ा दीजिए. अब क्या हो गया?" विकास ने कहा.
"जैसे तुम जानते ही नहीं हो कि क्या हुआ है? हां, साल भर पहले तक मैं उन्हें लिखती थी कि आप यहां आ जाइए, पर उस समय की बात अलग थी. तब उम्मीद थी कि वे प्लॉट की रजिस्ट्री तुम्हारे नाम पर कर देंगे और पुश्तैनी भवन में जो बंटवारा होगा, उसमें से भी कम-से-कम तीन फ्लैट तुम्हें ही मिलेंगे. पर, जब से तुम्हारे भाई को व्यवसाय में चार लाख रुपए का घाटा हुआ है, विरासत में संपत्ति मिलने की उम्मीदों पर पानी फिर गया है. कुछ मिलना होता तो सेवा भी कर देती." नीला झुंझला कर बोली.
"अपने पास कमी किस चीज़ की है. लाखों रुपए हैं, प्लॉट है, कार है. फिर यदि मां-बाप आर्थिक संकट में हैं, तो उनकी देखभाल करना हमारा फ़र्ज है. विरासत में संपत्ति नहीं दे सकते तो क्या उनसे संबंध तोड़ लूं?" विकास ने झुंझला कर कहा.
"तुम बने रहो श्रवण कुमार, पर मुझसे उम्मीद मत रखो कि मैं तुम्हारे माता-पिता के स्वागत के लिए लाल कालीन बिछाऊंगी. हो सके तो फोन करके उनसे कह दो कि वे न आएं. मुझे अकेले रहने की आदत पड़ गई है और किसी की सेवा करना मेरे बस की बात नहीं है." नीला ने आवेश में आकर कहा.
"जो भी हो, जब तक अम्मा और बाबूजी यहां रहेंगे, तुम उनसे ऐसी कोई बात नहीं कहोगी, जिससे उनका दिल दुखे." विकास ने आवेश में कहा और वह क्लब चला गया. नीला भी झल्लाती हुई शाम के भ्रमण पर चली गई. विकास के पिता रामप्रसादजी ने अपने पद का कभी दुरुपयोग नहीं किया. वे तो स्वभाव से ही इतने निर्लिप्त थे कि यदि पत्नी ज़ोर न देती, तो वे ऋण लेकर मकान भी नहीं बनवाते. हाउसिंग बोर्ड से ऋण लेकर उन्होंने भवन बनाया जिस में चार फ्लैट थे.
पच्चीस वर्ष पूर्व उन्होंने दस हज़ार रुपए में एक प्लॉट ख़रीद लिया था, जो अब ५ लाख रुपए का था. प्लॉट पर पहले से ही बड़ी बहू की गिद्ध दृष्टि थी और उसे आशा थी कि बिल्डिंग में से तीन फ्लैट उसके पति को अवश्य मिलेंगे. इसलिए वह सास-ससुर से अनुरोध करती रही थी कि वे कुछ दिन उनके साथ भी रहें. पर अचानक देवर कमल को व्यवसाय में चार लाख रुपए का घाटा हो गया और घाटे की पूर्ति के लिए प्लॉट को बेचना जरूरी हो गया था. कमल ने सपना के साथ प्रेम-विवाह किया था. सपना निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की युवती थी. उसने सुख व वैभव की ज़िंदगी जीने की ख़ातिर कमल को अपनी ओर आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कमल पर उसका ऐसा असर हो गया कि उसने माता-पिता से साफ़ कह दिया, "शादी करुंगा तो सपना से ही, वरना कुंआरा रहूंगा." अन्ततः उन्हें कमल को सपना से शादी की अनुमति देनी पड़ी.
भव्य आयोजन के साथ कमल और सपना की शादी हो गई. सपना को उम्मीद थी कि प्लॉट और दो फ्लैट की रजिस्ट्री उसके पति के नाम पर हो जाएगी. इसी उम्मीद से वह दो वर्षों तक सास-ससुर की उत्साहपूर्वक सेवा करती रही. सपना एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दे चुकी थी. इसी बीच कमल को कारोबार में चार लाख रुपए का घाटा हुआ. कमल इतना हताश हुआ कि घर बैठ गया. जिनके शेयर थे उन्होंने पैसों के लिए तगादे करने आरंभ कर दिए. सपना ने जिस वैभव के सपने देखे थे, वे चकनाचूर हो गए. अतः आर्थिक रूप से संकट में फंसे कमल को भावनात्मक संबल प्रदान करने की बजाय वह उसे व्यंग्य-बाणों से घायल करने लगी. वह सीधे-सादे सास-ससुर को भी ताने देने लगी. जो बहू कभी सास-ससुर को एक-से-एक व्यंजन बना कर खिलाती थी, उसे उनके लिए दो समय की रोटी बना कर देना भी भार स्वरूप लगने लगा.
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सास-ससुर १२ बजे तक भूखे बैठे रहते और सपना अपने लिए होटल से टिफिन मंगवाकर पेट भर खा लेती, सास के नेत्रों की ज्योति कम होती जा रही थी, फिर भी अपने और पति के लिए खिचड़ी या दलिया बना लेती थीं. दोनों मानसिक रूप से टूट चुके थे, इसलिए बड़े बेटे के साथ रहना चाहते थे.
जब वे विकास के घर पहुंचे, तो नीला ने विकास की मौजूदगी को देखते हुए होंठों पर मुस्कान ला कर उनका स्वागत किया. विकास अपनी पत्नी के स्वभाव को समझता था, इसलिए इस बात का ध्यान रखता था कि माता-पिता पौष्टिक आहार लें. रात को उनके लिए दूध की व्यवस्था करता था. नीला अपनी संवेदनशीलता खो चुकी थी. विकास के सामने तो वह सास-ससुर से कुछ नहीं कहती थी, पर दोपहर में जब विकास दफ़्तर में होता था तो वह उन पर शब्दों के ऐसे बाण चलाती कि बूढ़े सास-ससुर का हृदय आहत हो जाता.
एक दिन उसने सास से कहा, "अपने बेटे को बिगाड़ने में आपका हाथ रहा है. कारोबार में घाटा उसे हुआ और तनाव मेरे पति झेलते हैं. मेरी औलाद ऐसा करती, तो मैं उसका गला दबा देती. आप इनसे किस जन्म की दुश्मनी निकाल रही हैं. यदि विरासत में संपत्ति नहीं दे सकती हो तो कम-से-कम मेरे पति को तो चैन से रहने दो. ख़बरदार, यह सब बातें इन्हें मत बताना, वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा."
सास के पास जवाब में आंसुओं के अलावा कुछ नहीं था. शाम को जब विकास दफ़्तर से लौटा तो नीला ने एक नज़र सास पर डाल कर पति से कहा, "मैं कहां तक माताजी का मन बहलाऊं. मैं तो इनका अकेलापन दूर करने की पूरी कोशिश करती हूं. माताजी आपको यहां अच्छा लग रहा है ना." नीला ने होंठों पर कुटिल मुस्कान ला कर कहा. सास बहू के ऐसे व्यवहार को देख कर हतप्रभ रह गई.
एक दिन सास अपनी दोनों पोतियों को गोद में खिला रही थीं. उन्हें कहानी सुनाते हुए बोलीं, "एक दिन एक राजकुमार आएगा और घोड़े पर बिठा कर तुम्हें ले जाएगा." नीला कुटिल मुस्कान ला कर बोली, "और तुम्हारी दादी तुम्हें सोने से लाद देंगी. क्यों माताजी?" उसने ठहाका लगाया. सास स्तब्ध रह गई थी.
वे सोचतीं, जब उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी तो इसी बहू को समय-समय पर कई गहने बनवा कर दिए थे. उसे बेटी से ज़्यादा स्नेह दिया और आज जब वे आर्थिक रूप से असहाय हैं, बहू को कुछ देने की स्थिति में नहीं हैं, तो बहू उनके प्रति इतनी निर्मम हो गई हैं. क्या पैसा ही सब कुछ है? संवेदना, स्नेह का कोई महत्व नहीं? वे आंसुओं को रोक नहीं सकीं. वृद्ध पति एकाएक कमरे में आ गए. पत्नी की आंखों में आंसू देखकर विचलित हो गए. पत्नी के कन्धे पर कुछ देर तक हाथ रख कर उसे सांत्वना देते रहे. कुछ कहना चाहते थे, पर कह नहीं पाए. उनकी स्थिति भी तो ऐसी थी कि बहू घर से निष्कासित करना चाहती थी और वे बिन बुलाए अतिथि की भांति रह रहे थे.
घुटन दोनों को महसूस हुई, "थोड़ी देर पार्क में बैठें?" उन्होंने पत्नी से पूछा. दोनों दो घन्टे तक पार्क में बैठे रहे. पार्क में खेल रहे बच्चों की अठखेलियों से मन हल्का हुआ, जी चाहा कि पार्क में ही बैठे रहें, घर जाएं ही नहीं, पर अंधेरा हो गया था. वे भारी कदमों से घर के अन्दर आए. नौकर ने बताया कि साहब, मैडम और बच्चे शादी में गए हैं. उन्होंने यह सोच कर राहत की सांस ली कि चलो कम-से-कम कुछ देर तक तो बहू की आहत करनेवाली व्यंग्यात्मक मुस्कान से बच गए.
नौकर ने सुबह की बची ठन्डी रोटियां और फ्रिज़ में से सब्ज़ी निकाल कर परोस दी, "भैया, ये सूखी रोटी चबा नहीं पाते. थोड़ा दूध गरम कर दो." वे बोलीं.
"मांजी, दूध का एक भी पैकेट नहीं है. मेमसाहब बोली थीं कि शादी से खाना खा कर लौटने में देर हो जाएगी. इसलिए दूध नहीं पिएंगे, पैकेट मत लाना. अब तो डेयरी भी बन्द हो गई है." नौकर ने कहा.
"भैया, ये पांच रुपए ले और आसपास के होटल से दूध ले आ. ये दूध के साथ रोटी खा लेंगे." वह नौकर के सामने गिड़गिड़ाई. नौकर को दया आ गई, वह होटल से दूध ले आया. दूध ऐसा था जैसे पानी में दूध की बूंदें डाली गई हों. फिर भी दोनों ने उसमें रोटी मसल कर खा ली. उन्हें याद आया कि जब पति नौकरी में थे तो वे अपने रसोइए को गरम और ताजा खाना देती थीं और आज उनका अस्तित्व नौकरों से भी गया गुज़रा हो गया है. दो बेटों की मां होने के बावजूद वे स्वयं को अकेला महसूस कर रही थीं.
उस दिन नौकर नहीं आया था. विकास दफ़्तर की एक मीटिंग में गया था. नीला कॉफी हाउस में नाश्ता करके आ गई थी.
नीला ने दो बजे तक खाना नहीं बनाया. वे हंस कर बोले, "शायद बहू समझ रही होगी कि आज मेरा उपवास है, पर आज तो उपवास नहीं है." पर उनकी हंसी में उदासी साफ़ झलक रही थी. चिढ़ कर नीला ने खिचड़ी बना दी. रात को नीला ने कहा, "आप लोग भी अजीब हैं. आपकी यहां इतनी फजीहत हो रही है, फिर भी बेशर्मी के साथ यहां टिके हुए हैं. अपना और अधिक अपमान नहीं करवाना हो तो यहां से रवाना हो जाइए." सास ख़ामोश हो कर सब कुछ सुनती रही.
सुबह उन्होंने कहा, "बेटा, यहां बहुत दिन हो गए. अब हम वापस जाना चाहते हैं."
"आप इतनी जल्दी क्यों जाना चाहते हैं? वहां के तनावपूर्ण वातावरण की अपेक्षा तो यहां शान्ति है. कुछ दिन और आराम कीजिए." विकास ने कहा. उसे क्या पता था कि उसकी पत्नी उसकी अनुपस्थिति में सास-ससुर पर कितने तीखे व्यंग्य-बाण चलाती है.
"तुम और बहू हम लोगों का बहुत ध्यान रखते हो, पर अब हमें अपने घर जाना है." पिताजी बोले. उनका दिल जानता था कि वह घर भी उनका अपना कहां रह गया है. उस घर पर भी तो छोटे बेटे और उसकी स्वार्थी बहू का दबदबा बना हुआ है.
"आप इतनी जल्दी क्यों जा रहे हैं? मैं आपको नहीं जाने दूंगी. आपने तो मुझे सेवा का मौक़ा ही नहीं दिया." नीला ने पति के सामने दिखावा करते हुए कहा.
गिरगिट की तरह रंग बदलती हुई खलनायिका जैसी बहू का ढोंग देख कर सास-ससुर स्तब्ध रह गए. बस से लौटते हुए वे सोच रहे थे, "उनकी वापसी अवश्य हो रही है, पर वे कहां जा रहे हैं? एक बहू के व्यंग्य-बाण झेल कर दूसरी बहू के व्यंग्य बाणों से आहत होने जा रहे हैं? क्या इसी दिन के लिए बेटों को जन्म दिया था? बड़े अरमानों से उनके लिए बहुएं लाए थे. बहुओं को बेटियों जैसा स्नेह दिया और बदले में क्या मिला? अपमान, तिरस्कार. जीवनभर की कमाई से अपने लिए जो घरौंदा बनाया था, उसमें आज वे ही शान्ति से नहीं रह सकते. उन्हें याद आया, पच्चीस वर्ष पूर्व उनके पड़ोसी वर्माजी ने कहा था, "आप तो दो पुत्रों के पिता हैं. बेटों का बाप भाग्यशाली होता है." पुत्रों के प्रति उन्हें बहुत मोह था. इस मोह के कारण तीन बार पत्नी का गर्भपात करवा दिया था, तीनों बार गर्भ में कन्या थी. हर बार पत्नी फूट-फूट कर रोयी थी, पर उनका मन नहीं पिघला था. आज उनके बेटे-बहुओं ने उन्हें अकेला छोड़ दिया था.
उन्हें लगा बस चलती रहे. वे यात्रा करते रहें. घर नाम की जगह से उन्हें डर लगने लगा था. उन्हें पता था घर पर उनकी प्रतिक्षा करनेवाला कोई नहीं. वे चश्मे के शीशों को पोंछने लगे, जो लगातार आंसुओं के बहने से धुंधले हो गए थे.
- ललित कुमार शर्मा
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