साइकोलॉजिस्ट श्रीकांत कोरघडे कहते हैं, “इस तरह का व्यवहार वही पैरेंट्स करते हैं जो अनकंडिशनल लव का मतलब नहीं समझते. उनका ये बिहेवियर ग़लत पैरेंटिंग का नतीजा है. इतना ही नहीं, वो अपने बच्चे को भी ऐसा ही अपरिपक्व व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. आगे चलकर बच्चा भी वही दोहराएगा, क्योंकि बच्चे माता-पिता से ही सीखते हैं.”ज़रूरी है मज़बूत बॉन्डिंग मैरिज काउंसलर व साइकोलॉजिस्ट डॉ. राजीव आनंद कहते हैं, “रिश्तों का मतलब है मज़बूत बॉन्डिंग और एक-दूसरे को अच्छी तरह समझना, एक-दूसरे की परवाह करना, उनकी भावनाओं/विचारों की क़द्र करना. माता-पिता को अपनी बेटी को प्यार और सहानुभूति से समझने की कोशिश करनी चाहिए. उस पर जबरन अपनी इच्छाएं और विचार नहीं थोपने चाहिए. लविंग और केयरिंग पैरेंट्स होने के नाते आपको अपने बच्चों को ख़ुद से गहराई से जुड़े होने का एहसास दिलाना चाहिए, क्योंकि ये एहसास उन्हें आपके ख़िलाफ़ कोई भी क़दम उठाने से रोकेगा.” पढ़ाई/करियर को लेकर अब तो बच्चों की पढ़ाई और करियर बच्चों से ज़्यादा उनके पैरेंट्स के लिए पड़ोसी से ख़ुद को ऊंचा साबित करने का ज़रिया बन गया है. यदि पड़ोस वाली सविता भाभी का बेटा डॉक्टर बन गया, तो अपने बेटे/बेटी को भी डॉक्टर/इंजीनियर बनाना प्रतिष्ठा का सवाल बन जाता है, भले ही बच्चे की उस विषय में रुचि हो या न हो. ‘देखो बेटा, तुम्हारे लिए हम दिन-रात एक किए रहते हैं, हमारी सारी उम्मीदें तुम से ही हैं. तुम्हें किसी भी तरह एग्ज़ाम में 90 परसेंट तो लाना ही होगा, नहीं तो हमारा दिल टूट जाएगा. शर्मा जी के बेटे को 5 का पैकेज मिला है, तो तुम्हें भी कम से कम 4 का पैकेज तो मिलना ही चाहिए, वरना हम सोसायटी में क्या मुंह दिखाएंगे...’ ऐसी ही न जाने कितनी बातें या यूं कहें भावनात्मक तानों से पैरेंट्स बच्चों का जीना दुश्वार कर देते हैं. इससे बच्चा कभी भी कोई काम खुलकर नहीं कर पाता, हमेशा दबाव में जीता रहता है. साइकोलॉजिस्ट डॉ. माधवी सेठ कहती हैं, “यदि पैरेंट्स पॉज़िटिव तरी़के से अपने बच्चे की किसी से तुलना करते हैं या उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं तब तो ठीक है, वरना इससे बच्चों पर नकारात्मक असर पड़ता है.” असुरक्षा का डर हमारे लिए बच्चों की ख़ुशी से बढ़कर और कुछ नहीं है, हमारी तो सारी दुनिया ही बच्चों में बसती है... आपने अक्सर पैरेंट्स को ऐसा कहते सुना होगा और ये सच भी है, मगर कुछ पैरेंट्स ऐसा स़िर्फ कहते हैं, करते नहीं. मिसेज़ शर्मा ने अपने इकलौते बेटे राहुल की शादी बड़े धूम-धाम से की, बहू (स्मृति) भी बहुत सुंदर-सुशील मिली, मगर शादी के एक साल के भीतर ही कार एक्सिडेंट में राहुल की मौत हो गई. बेटे की अचानक मौत से पूरा परिवार सकते में आ गया. स्मृति की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई, मगर दुख की इस घड़ी में भी ख़ुद को मज़बूत करके उसने सास-ससुर को संभाला. बीतते व़क्त के साथ ज़ख्म भी हल्के होते गए, मगर स्मृति की ज़िंदगी का सूनापन तो आज भी बरक़रार था. एक दिन स्मृति के मायकेवालों ने उसके सास-ससुर के सामने स्मृति की दूसरी शादी का प्रस्ताव रखा. शादी की बात सुनते ही बहू को हमेशा बेटी मानने वाले, उसकी ख़ुशियों की बात करने वाले स्मृति के सास-ससुर के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. उन्हें अपना बुढ़ापा असुरक्षित लगने लगा. हमेशा उसकी ख़ुशियों की चिंता करने वाले सास-ससुर आज ख़ुद दुबारा उसका घर नहीं बसाना चाहते, क्योंकि अब उन्हें अपनी जवान बहू से ज़्यादा चिंता अपने बुढ़ापे की थी. भावनाओं का भार साइकोलॉजिस्ट माधवी सेठ कहती हैं, “हर रिश्ते में लोग कहीं न कहीं एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं, मगर जब ये निर्भरता ज़रूरत से ज़्यादा हो यानी सारी हदें पार कर जाए तो ये बर्डन या बैगेज बन जाता है. भावनाओं के इस भार को इमोशनल अत्याचार कहा जा सकता है. हाल ही में मेरे पास कॉल सेंटर में काम करने वाली एक लड़की का केस आया. पिता की मौत के बाद मां और उसकी बहन दोनों उस पर निर्भर हो गई. हालांकि मां ने खुलकर कभी उससे मदद नहीं मांगी, फिर भी लड़की मां की आर्थिक मदद करने लगी. मां और बहन की मदद के चक्कर में 5-6 साल निकल गए. इस बीच न तो वो आगे पढ़ाई कर सकी और न ही सेटल हो पाई. साथ ही कॉल सेंटर की नौकरी की वजह से उसकी सेहत भी ख़राब हो गई, वज़न बहुत बढ़ गया. अब जब वो सेटल होना चाहती है, तो उसके पास पैसे नहीं हैं और मां कहती है कि मैं कहां से तुम्हारी मदद करूं, मेरे पास कुछ नहीं है. ये लड़की बिना कहे अपने परिवार का बोझ तो ढोती रही, मगर किसी ने उसकी भावनाओं की क़द्र नहीं की और भावनाओं के इस बवंडर में फंसकर वो लड़की ख़ुद डिप्रेशन का शिकार हो गई है.” एक अन्य मामले में मां-बाप अपने दोनों बेटों में भेदभाव करते थे. बड़ा बेटा दिमाग़ से कमज़ोर था और देखने में भी बहुत अच्छा नहीं था, जबकि छोटा बेटा बहुत स्मार्ट दिखता था. पैरेंट्स हमेशा बड़े बेटे की उपेक्षा करते और छोटे को ज़्यादा अहमियत देते थे, जिससे वो अंदर ही अंदर टूट गया. जब वो मेरे पास काउंसलिंग के लिए लाया गया तो उसका एकेडमिक बहुत ख़राब था. फिर धीरे-धीरे काउंसलिंग के ज़रिए मैंने उसमें आत्मविश्वास जगाया और वो अपनी फैमिली का पहला ग्रैज्युएट बन गया. पैरेंट्स को कभी भी अपने दो बच्चों में फ़र्क़ नहीं करना चाहिए. इससे बच्चों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है और पैरेंट्स के इमोशनल अत्याचार से उनका आत्मविश्वास कमज़ोर हो जाता है.
रिश्तों में खोखलापन आजकल के रिश्ते ऊपरी तौर पर भले ही मज़बूत दिखें, मगर अंदर से वो बिल्कुल खोखले और सतही होते जा रहे हैं. उनमें गहराई नहीं है, इसलिए लोग अपनों को भावनात्मक रूप से परेशान/टॉर्चर करने से परहेज़ नहीं करते. इस तरह का इमोशनल अत्याचार बाप-बेटी, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका... हर रिश्ते की जड़ों को कमज़ोर कर देता है. फिर इन रिश्तों में वो पहले वाला प्यार, सम्मान, विश्वास नहीं रह जाता.हम ख़ुद भी हैं ज़िम्मेदार कई बार इमोशनल बैगेज के लिए दूसरे नहीं, हम ख़ुद ही ज़िम्मेदार होते हैं. डॉ. माधवी कहती हैं, “कुछ दिनों पहले मेरे पास एक केस आया, एक परिवार में 3 बहनें रहती हैं. पिता की मौत के बाद एक कज़िन बड़ी बहन का शोषण करता है जिससे वो डिप्रेशन की शिकार हो जाती है और शादी न करने का फैसला करती है. उसकी देखा-देखी या यूं कहें कि उसे इमोशनल सपोर्ट देने के लिए दूसरी और तीसरी नंबर की बहन भी शादी न करने का निर्णय लेती हैं, मगर कुछ सालों बाद सबसे छोटी बहन शादी कर लेती है. अब दूसरे नंबर की बहन को लगता है कि वो अकेली हो गई, क्योंकि बड़ी की तो उम्र ज़्यादा हो गई है और छोटी ने घर बसा लिया, ऐसे में भावनाओं के बवंडर में वो ख़ुद को अकेला महसूस करने लगती है. यहां किसी और ने नहीं, बल्कि ख़ुद उसने अपने ऊपर अत्याचार किया.” जब रिश्ता हो गहरा डॉ. राजीव आनंद कहते हैं, “जो रिश्ते गहराई से जुड़े होते हैं वहां किसी तरह का दबाव, ज़बर्दस्ती, अत्याचार, मैं और तुम जैसे शब्द नहीं आते. ऐसे रिश्ते में दो लोग चाहे वो कोई भी हों (पति-पत्नी, बच्चे-पैरेंट्स, प्रेमी-प्रेमिका), एक-दूसरे के इतने क़रीब और इस तरह जुड़े होते हैं जैसे वो एक-दूसरे की ज़िंदगी का हिस्सा बन गए हों. ऐसे में वो कभी एक-दूसरे का दिल नहीं दुखा सकते, क्योंकि कोई अपने ही हाथ-पैर और चेहरे को चोट नहीं पहुंचा सकता. हां, वो दूसरों को चोट पहुचांने के बारे में ज़रूर सोच सकता है. दरअसल, जब हमारे अनुभव हमें एक-दूसरे से दूर और अलग कर देते हैं, तब इमोशनल अत्याचार की गुंजाइश बढ़ जाती है.” किसी भी रिश्ते में जब ‘मैं’ हावी हो जाता है, तब एक-दूसरे की ख़ुशी से ज़्यादा उनके लिए अपने अहं की संतुष्टि ज़रूरी होती है, इसके लिए वो कोई भी रास्ता अख़्तियार करने से पीछे नहीं हटते.
- कंचन सिंह
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