"... घटनाएं कब-किसकी ज़िंदगी में कौन सा पार्ट निभाएंगी, यह कोई भी नहीं जानता. हां, मनुष्य जीवन मिलने का अर्थ है अतीत को भूलकर, निराशा के सागर से बाहर निकलकर, आशावादी बनकर जीना. भगवान की दी हुई इस ज़िंदगी में ख़ुशियों के लिए भी कछ वक़्त निकालना चाहिए."
ठिठुरन भरे जाड़े की शाम. सूरज डूब चुका था. चारों ओर धुंआ फैला था. दिल्ली के ग्रेटर कैलाश जैसे पॉश इलाके की आलीशान कोठी के लॉन में डॉ. हरि प्रमाद और उनकी पत्नी लता बैठे हुए थे. वे किसी कॉलेज में प्रोफेसर थे. वे बैठे तो थे अपनी कोठी के लॉन में पत्नी के क़रीब, लेकिन उनका मन कहीं दूर किसी और दुनिया में विचरण कर रहा था, मगर अगले ही क्षण उनकी विचार श्रृंखला को उनकी मोलह वर्ष की लाड़ली बेटी ने तोड़ दिया, जो उनके गले में बांहें डालकर कह रही थी, "पापा, प्लाजा में एक इंग्लिश मूवी चल रही है, मेरी सहेलियां जा रही हैं, मैं भी जाऊं?' डॉ. हरि कुछ बोलते, इसके पहले ही लता ने कड़े शब्दों में बेटी से कहा, "बेबी, तुम अकेली कहीं नहीं जाओगी, समय बहुत ख़राब है. लड़कियां या हिफाज़त में कहीं आ-जा नही सकतीं और तुम मेरी इजाज़त के बगैर कहीं नहीं जाओगी."
उनकी बात सुनकर बेबी रुआंसी सी होकर घर के अंदर चली गई. लता अपने अतीत में खो गई. वह उन्हीं विचारों में तैरती डॉ. हरि में बोली, "हरि, याद है ना तुम्हें मेरी क्या हालत हुई थी. अपनी बेबी तो बहुत सुंदर है, कही कुछ..." बीच में ही डॉ. हरि दार्शनिक के अंदाज़ में बोले, "लता, इस दुनिया में जो आया है, अपनी तक़दीर साथ लाया है. सारे काम मालिक की मर्ज़ी से होते हैं. इसे वरदान समझो या अभिशाप, मालिक की इनायत और मज़ा दोनों ही सबको मिलती हैं. भुगतनी पडती हैं. हम भी उन्हीं आम इसानों में से हैं."
कुछ पल की ख़ामोशी के बाद उन्होंने फिर कहना शुरू किया, "तुमसे शादी करने से पहले मैं एक बहुत ख़ूबसूरत लड़की से प्यार करता था. शायद मैं कभी इस बात का ज़िक्र तुमसे न करता, पर आज न जाने क्यों सब कुछ बता देना चाहता हूं. सारी दास्तान सुनकर तुम मुझे कोई भी सज़ा दे सकती हो."
उसकी बात सुनकर लता का मन अंदर तक हिल सा गया. सोच की गहराई में विचार उतरते चले गए, पर उसने अपने को सहज बनाए रखा. क्षणभर बाद वह बोली, "डॉक्टर, आप और मैं अलग-अलग नहीं हैं. आप बेझिझक अपनी बात कहिए. शायद इससे आपके मन का बोझ हल्का हो जाए." डॉ. हरि नीलगिरी की पहाड़ी वादियों के बीच स्थित उस छोटे से गांव में पहुंच गए, जहां वर्षों पहले कभी उनके मन में प्यार के फूल खिले थे. चाय के बगान में काम करने वाले भोले-भाले मजदूरों, जिनमें स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी थे, का एक काफ़िला उनकी आंखों के आगे से गुज़रने लगा, जिनके इलाज के लिए वे डॉक्टर बनकर गए थे. सरकार ने उन्हें वहां भेजा था मजदूरों के उस काफ़िले में चाय की पत्तियां तोड़ती एक कमसिन पहाडी रूपसी का चेहरा ज्यों ही उनकी आंखों के आगे आया, उनके मुंह से एक आह सी निकल गई और उन्होंने कहना शुरू किया, "उस दिन अमावस की काली रात थी. कोहरे ने वातावरण को और भी डरावना बना दिया था. रात के क़रीब आठ बजे का समय था. मैं कंबल में दुबका एक किताब पढ़ रहा था. अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई, साथ ही किसी लड़की की आवाज़ भी सुनाई दी, जो
ज़ोर-ज़ोर से मुझे पुकार रही थी. मैंने उठकर जल्दी से दरवाज़ा खोला, तो देखा सामने एक लड़की डरी हुई हांफ रही थी. वह अंदर घुस आई और दरवाज़ा बंद करने लगी. वह डर में थर-थर कांप रही थी. उसने हाथों में कंगन, पांवों में पायल और गले में मुक्ताहार थे. मेरे करतु कुछ पूछने से पहले ही उसने हाथ जोड़कर कहा, "बाबूजी, मेरी मदद करो, मैं सारी ज़िंदगी आपकी एहसानमंद रहूंगी."
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"लेकिन मैं क्या मदद करूं तुम्हारी? कैसी मदद चाहिए?" मेरे पूछने पर वह बोली, "दो-तीन बदमाश मेग पीछा कर रहे हैं. उन भेड़ियों से मुझे बचा लो बाबूजी."
कहते-कहते वह रो पड़ी. मैंने उसे सांत्वना दी और अंदर कमरे में ले गया. तभी फिर दरवाज़ा खटका. खोला, तो देखा सामने तीन-चार गुंडे खड़े थे. एक बोला, "अभी जो लड़की घर के अंदर गई है. उसे बाहर निकालो. उसका चाल-चलन ठीक नहीं है." दूसरा बोला, "अगर सीधे में बाहर नहीं निकाला, तो तेरी खैर नहीं." उसके इतना कहते ही मैं उन पर झपट पड़ा. मुझे कराटे आता था, अतः उन सबकी छुट्टी कर दी. सब दुम दबा कर भाग गए. दरवाज़ा बंद करके वापस आवाज़ दी, तो डर से थर-थर कांपती वह पहाड़ी लड़की सामने आ खड़ी हुई. उस समय वह रूप की प्रतिमा लग रही थी. अप्रतिम सौंदर्य माना फटे-पुराने कपड़ों में चांदी से चमकता शरीर झलक रहा था. उसके अर्ध नग्न जिम्म को ढंकने के लिए उसे अपना तौलिया दे दिया. मैं उसके रूप में खोता जा रहा था कि अचानक होश में आते हुए पूछा, "तुम कौन हो? इतनी रात गए बाहर क्यों निकली थी?"
उसने बताया कि उसका नाम आशा है. उसके पिता की तबीयत बहुत ख़राब थी. उसी की दवा लेने के लिए वह मेरे पास आ रही थी कि रास्ते में गुंडों ने पीछा कर लिया. वह कहने लगी, "अब आप जल्दी से मेरे साथ चलिए मेरे बाबूजी की तबीयन बहुत ख़राब है" कहकर उसने मेरा हाथ पकड़ कर दरवाज़े की तरफ़ खींच कर ले चली. मैं उसकी स्थिति और भोलेपन पर सोचते हुए उसके साथ चल पड़ा. रास्ते में उसने बताया कि वह अनाथ है, जिनके साथ वह रहती है, वे उसके सगे माता-पिता नहीं हैं. पर सगों से भी बढ़कर हैं. घर का ख़र्चा उसे ही चलाना पड़ता था, जिसके लिए वह खेतों में, चाय बागान में काम करती थी. साथ ही जंगल में लकड़ी काटकर शहर में बेचकर आती थी. उसकी एक बहन भी थी, जो मर चुकी थी. उसके दो बच्चों की परवरिश भी उसे ही करनी पड़ती थी.
उसकी कहानी सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ और उसके लिए मन में दया भी आई कि इतनी सुंदर जिसे राजकुमारियों सा जीवन मिलना चाहिए था. कितना कष्टपूर्ण जीवन जी रही थी. आशा ने यह भी बताया
कि शहरी लोग उसकी तस्वीर भी खींचते थे, अर्ध नग्न तस्वीर. ये आदिवासी पहाड़ी लोग बहुत कम कपड़े पहनते हैं. कहीं-कहीं तो ऊपर के शरीर पर बिल्कूल कपड़ा नहीं पहना जाता, फिर लोगों की बुरी नज़र क्यों नहीं पड़ेगी. मैं सोचता रहा कि आख़िर समाज के बड़े व सभ्य लोगों ने इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया? रोक क्यों नहीं लगाई. इनके रहन-सहन में सुधार लाना ही होगा.
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यही सोचते मैं आशा के झोपड़े में पहुंचा, जहां एक कोने में एक बुज़ुर्ग लेटा खांस रहा था. बुढ़िया बुखार में तप रही थी. पास ही दो बच्चे लेटे हुए थे. सब पर आदिवासियों की छाप थी आशा को छोड़कर. आख़िर यह इतनी गोरी और इनसे अलग क्यों है? यह सवाल मैंने बुज़ुर्ग से कर ही लिया, जिसके जवाब में उसने बताया, "आशा का पिता फिरंगी और मां मुसलमान थी. इसके पैदा होते ही मां मर गई और पिता का कहीं पता नहीं चला, तो हमने ही इमे पाल-पोस कर बड़ा किया. अगर यह नहीं होती, तो हम लोग इतने दिन ज़िंदा ही न रहते. यही तो हमारी ज़िंदगी है." कहकर बुज़ुर्ग रोने लगा.
"डॉक्टर बाबू, हमारे बाद इसका और इन बच्चों का क्या होगा? किसक सहारे जिएंगे ये? गाव के गुंडे हमेशा इसके पीछे पड़े रहते हैं. आप मेहरबानी करके इमे सहारा दे दीजिए, डॉक्टर बाबू..."
और मैं उनकी बातें सोचता घर लौट आया. आशा की शक्ल एक पल को भी मेरी आंखों से ओझल नहीं हो रही थी. धीरे-धीरे मैं उसमे प्यार करने लगा, बेहद प्यार!
और प्यार भरे वे दिन पंख लगा कर उड़ चले. पता भी न चला कि हमारी मुलाक़ात को इतना वक़्त गुज़र गया. ज़िंदगी एक नए मोड़ पर आ पहुंची, जब आशा ने एक रोज़ जंगल में घूमते हुए बताया कि वह मां बनने वाली है, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. मैंने तुरंत ही उससे शादी करने का फ़ैसला किया. हमने उस नई ख़ुशी को पूरी तरह जिया भी नहीं था. आशा को जी भरकर बांहों में लेकर प्यार भी नहीं किया था कि अचानक मेरे मिर पर किसी भारी चीज़ से वार किया गया, जिससे मैं गिर गया और गुंडों का गिरोह आशा को उठा कर भागने लगा. उसकी दर्दनाक चीख मेरे कानों में पड़ रही थी, जिसे सुनते-सुनते मैं बेहोश हो गया.
जब होश आया, तो बहुत देर हो चुकी थी ढूंढ़ते-ढूढ़ते आशा का मृत शरीर एक झाड़ी के पास मिला. उसने अपनी इज्जत बचाने के लिए अपनी ही कटारी सीने में घोंप ली.
आशा के चले जाने के बाद मेरी ज़िंदगी वीरान हो गई. उसके मां-पिता का भी देहांत हो गया और बच्चों को मैंने हॉस्टल में भर्ती करा दिया. यों ही दिन गुज़रते रहे. दुनिया का काल-चक्र चलता रहा. मुझे चित्रकारी का भी शौक था. मैंने आशा की एक तस्वीर बनाकर डिस्पेंसरी में रखी और शाम को डूबते सूरज को और उसकी तस्वीर को देर तक देखता रहता.
फिर अचानक एक दिन ज़िंदगी में तुम आ गई और मैं धीरे-धीरे अतीत से बाहर आता गया. फिर हमारी शादी पक्की हो गई. एक शाम हम जगल में घूम रहे थे कि एक बार फिर वही घटना हुई. मोटर साइकिल पर सवार कुछ गुंडे आए और तुम्हें उठाकर ले गए. अतीत ने अपने आपको फिर एक बार दोहराया और मेरा सब कुछ मेरे सामने से उड़ाकर ले गया.
लेकिन मालिक का शुक्र था कि उसने तुम्हें हमेशा के लिए मुझसे जुदा नहीं किया. मैं टूटते-टूटते पूरी तरह बिखरने से बच गया, जब तुम मुझे वापस मिल गई. फिर मझ नीलगिरी की पहाड़ियां, वहां की नीली छटा, कोहरे से ढंका दिलकश माहौल मब नीरस लगने लगे और मैं यहां आकर बस गया. हालांकि आशा के हत्यारे भी पकड़ लिय गए, पर फिर भी मैं वहां नहीं रह सका. उसकी याद आज भी दिल के किसी कोने में ज़िंदा है."
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डॉक्टर की बातें सुनकर लता ने कहा, "डॉक्टर, मैं सब कुछ जानती थी. घटनाएं कब-किसकी ज़िंदगी में कौन सा पार्ट निभाएंगी, यह कोई भी नहीं जानता. हां, मनुष्य जीवन मिलने का अर्थ है अतीत को भूलकर, निराशा के सागर से बाहर निकलकर, आशावादी बनकर जीना. भगवान की दी हुई इस ज़िंदगी में ख़ुशियों के लिए भी कछ वक़्त निकालना चाहिए."
यह सुनकर हरि ने मुस्कुराती आंखों से लता की ओर देखा और उसका हाथ पकड़कर ढलती हई शाम के अंधकार की ओर से नज़र हटाकर कोठी के झरोखों से झांकते प्रकाश को देखा, फिर आंखें चार हुई. एक-दूसरे को निमंत्रण दिया और फिर दोनों अंदर चले गए.
- जया चक्रवर्ती
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