“दुश्मन नहीं होगी ये जानती हूं, पर तुम नहीं जानती कि ऐसी बातों का प्रभाव बच्चों पर अच्छा नहीं पड़ता है. बहन ही क्यों हर रिश्ते के लिए हमें सजग रहना चाहिए. हमें बच्चों के साथ आपसी रिश्तों में मधुरता बांटनी चाहिए न कि तल्ख़ी और कड़वाहट. जानती हूं, तू शुभ्रा से बहुत प्यार करती है. ये भी समझती हूं कि उसी प्यार के चलते तुम लोग एक-दूसरे को अधिकारपूर्ण उलाहना दे देते हो. हमारे मन में एक-दूसरे के प्रति द्वेष की भावना नहीं है, ये हम समझते हैं, पर ये अबोध बच्चे नहीं… ”
“नानी, घूमने कब जाएंगे…” छह साल की नन्हीं कुहू ने अपनी नानी से मायूसी से पूछा, तो सुलभा बोली, “क्या बताऊं, अभी तक तेरी मौसी नहीं आई. लगता है किसी काम में फंस गई.” “तेरी मौसी के कारण सारा प्रोग्राम चौपट हो गया…” ग़ुस्से में झुंझलाती भावना ने अपनी बेटी कुहू से कहा, तो सुलभा के चेहरे पर नागवार भाव उभरे. भावना छोटी बहन शुभ्रा पर भड़ास निकालते हुए बोलती रही, “शुभ्रा की शादी क्या हो गई, अपने ससुरालवालों को इंप्रेस करने के चक्कर में हमें नज़रअंदाज़ कर देती है. उस दिन भी बेचारी कुहू कितनी देर तक अपने जन्मदिन पर उसका इंतज़ार करती रही, पर मैडम चाची बन गई हैं न… सो अपनी जेठानी के बेटे के बर्थडे में व्यस्त हो गई और हम यहां बेवकूफ़ की तरह उसकी राह देखते रहे.” “हां नानी, मौसी मेरे बर्थडे पर नहीं आई थीं…” नन्हीं कुहू अपनी मम्मी की हां में हां मिलाती दिखी, तो सुलभा हैरानी से बोली, “हे भगवान, क्या हो गया है तुम लोगों को… नई-नई ससुराल के साथ तालमेल बैठाना भी तो ज़रूरी है. क्यों बेवजह उस बेचारी के पीछे पड़ गई हो.” “ज़्यादा बेचारी-वेचारी कहकर उसकी तरफ़दारी मत करो…” भावना के तल्ख़ अंदाज़ पर सुलभा सन्न रह गई. दो दिन पहले ही सुलभा कुछ दिनों के लिए अपनी बड़ी बेटी भावना के पास आई है. भावना अपने पति और छह साल की बेटी कुहू के साथ जयपुर में रहती है. छह महीने पहले ब्याही छोटी बेटी शुभ्रा की ससुराल भी जयपुर में ही है. शुभ्रा की ससुराल में उनके साथ सास-ससुर जेठ-जेठानी और उनका बेटा भी रहता है. शुभ्रा और भावना के एक ही शहर में होने से सुलभा बहुत ख़ुश थी… पर आज की परिस्थिति देखकर उसे लग रहा था कि ये दोनों बहनें दूर ही रहतीं, तो सही था. शुभ्रा आज अपना दिन मां और बहन के साथ बितानेवाली थी. जयपुर दर्शन के साथ सबका डिज़नी फेयर देखने का कार्यक्रम था. कुहू दोपहर बारह बजे से अपने मौसी-मौसा के आने पर डिज़नी फेयर जाने की राह देख रही थी. पर शाम के पांच बज गए, शुभ्रा का कहीं कोई अता-पता नहीं था… उसके समय से घर न पहुंचने की वजह से सारा प्रोग्राम खटाई में पड़ता देख कुहू उदास हो कह रही थी, “मौसी से कट्टी… बहुत गंदी हैं मौसी. उनकी वजह से आज हम घूमने नहीं जा पाएंगे…”
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“सच में बहुत गंदी है तेरी मौसी…” भावना के कहते ही सुलभा का मन दरक गया. कहे बिना वह रह न पाई. “भावना, ये क्या तरीक़ा है, शुभ्रा तेरी छोटी बहन है और कुहू की मौसी. इस रिश्ते का लिहाज़ करते हुए कुहू को समझाओ कि मौसी किसी ज़रूरी काम में फंस गई होगी. आज नहीं गए, तो क्या कल चले जाएंगे…” “हे भगवान! मम्मी आप भी न… अरे, हम बहनों के बीच का मामला है, आप क्यों परेशान हो. सोचो, उसकी वजह से गड़बड़ा गया सारा कार्यक्रम. ग़ुस्सा नहीं आएगा क्या. आप भी पता नहीं क्या-क्या सोच लेती हो. मैंने तो कुहू से यूं ही कह दिया. आप तो ऐसे कह रही हो, जैसे कुहू आज से अपनी मौसी की दुश्मन हो जाएगी.” “दुश्मन नहीं होगी ये जानती हूं, पर तुम नहीं जानती कि ऐसी बातों का प्रभाव बच्चों पर अच्छा नहीं पड़ता है. बहन ही क्यों हर रिश्ते के लिए हमें सजग रहना चाहिए. हमें बच्चों के साथ आपसी रिश्तों में मधुरता बांटनी चाहिए न कि तल्ख़ी और कड़वाहट. जानती हूं, तू शुभ्रा से बहुत प्यार करती है. ये भी समझती हूं कि उसी प्यार के चलते तुम लोग एक-दूसरे को अधिकारपूर्ण उलाहना दे देते हो. हमारे मन में एक-दूसरे के प्रति द्वेष की भावना नहीं है, ये हम समझते हैं, पर ये अबोध बच्चे नहीं… आपसी रिश्तों में यदि किसी बात पर ग़ुस्सा आ भी गया, तो इन बच्चों के सामने उसे प्रकट मत करो. तुम्हारा ग़ुस्सा कल प्रेम में बदल जाएगा, पर इनके मन में पनपा ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध का अंकुर इनके मन में अपनी जड़ें पसार लेगा.” भावना अपनी मां की तीव्र प्रतिक्रिया देख हतप्रभ थी. सुलभा की इस तीव्र प्रतिक्रिया के पीछे उसे कोई कारण समझ में नहीं आया, पर सुलभा के अवचेतन मन में एक ग्लानि थी अपनी छोटी बहन आभा के प्रति… कभी उसने भी जाने-अनजाने में बड़ी होती बेटियों के साथ मन की कही-अनकही साझा करने के चक्कर में आभा के प्रति हंसी-मज़ाक या संजीदगी के साथ कुछ नकारात्मकता भरी थी. बेटियों के मन में अपनी ही मौसी के प्रति प्रतिस्पर्धा भरती चली गई. “मौसी का फोन तो आता नहीं है. फिर आपको क्या पड़ी है उनसे बात करने की…” बड़ी होती बेटियों की दुनियादारी देख वह फूली न समाती थी. पर समय के साथ छोटी बहन ने उसके मन के कोमल हिस्से को तब स्पर्श किया जब शुभ्रा की शादी पक्की हुई. शुभ्रा की शादी के क़रीब छह महीने पहले आभा घर आई, तब रात के दो-ढाई बजे तक गप्पे मारते व़क्त बहन के प्रति सुप्त प्रेम का स्रोत बह निकला. ठंड़े पड़े रिश्ते एक-दूसरे का साथ पाकर गरमा गए. एक-दूसरे की अहमियत जो भुला दी गई थी, वह महसूस हुई, तो दोनों भावुक हो उठीं.
आभा जब जाने लगी, तो सुलभा ने भावुकता से कहा, “फोन पर कभी-कभी बात कर लिया करो.” यह सुन आभा उसके गले लगते हुए बोली, “हां दीदी, अब जल्दी-जल्दी फोन करूंगी… सच बताऊं, नाराज़ थी तुमसे… तुमने भी कब से मुझे फोन नहीं किया. मैंने भी सोच लिया था, जब तक तुम बात नहीं करोगी, मैं भी फोन नहीं करूंगी… बेटियां हैं, तो क्या बहन को भूल जाओगी..” पल में रूठने और पल में माननेवाली छोटी बहन हमेशा की तरह साफ़गोई से मन की बात कह गई. “बेटियां अपनी जगह और बहन अपनी जगह समझी. फ़िलहाल छोटी बहन से ख़ूब काम करवाने का समय आ गया है…” “हां दीदी, शुभ्रा की शादी में ख़ूब धमाल करेंगे…” आभा के कहने पर उसने स्नेह से उसके हाथों को सहलाया. आभा के जाने से घर सूना लग रहा था. शुभ्रा भी विदा हो जाएगी, तो घर कैसा लगेगा, यह सोचकर उसने सिर सोफे से टिका दिया. शुभ्रा अपनी मां को थका-थका-सा देख चिंता से बोली थी, “मौसी के आने पर बेवजह ख़ुद को इतना थका लिया… खाना बाहर से भी आ सकता था या फिर मेड से बनवा लेतीं, पर नहीं आप लोगों को तो सारा प्यार खाने में ही उड़ेलना अच्छा लगता है. और हां मम्मी, मेरी शादी में मौसी की दख़लंदाज़ी ज़्यादा न होने देना. पिछली बार भावना दी की शादी में कमरा सुधारने के चक्कर में हमारे सामान की ऐसी की तैसी कर दी थी. भावना दी तो कितना चिढ़ गई थीं. उनके रहने का इंतज़ाम कहीं और कर देना सही रहेगा. घर में रहेंगी, तो हमारी प्राइवेसी नहीं रहेगी.” ‘मौसी कोई बाहर की हैं क्या…’ वह चाहकर भी कह न पाई. उसी समय भावना का फोन आया था. सुलभा के ‘हेलो’ कहते ही, “मौसी गर्ईं क्या?” भावना ने प्रश्न दे मारा. “अभी-अभी बस निकली ही है.” सुलभा के कहने पर भावना चहककर बोली, “बढ़िया है, अब मैं अपना प्रोग्राम बना सकती हूं. मैं और कुहू घर आ रहे हैं.” यह सुनकर सुलभा बोली, “आना ही था तो अभी आती, मौसी से मिल लेती. तुझे बहुत पूछ रही थी.”
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“रहने दो मम्मी उनका ड्रामा. याद नहीं, बैंगलुरू आई थीं, तब मिलने तक नहीं आई.” “छोड़ न पुरानी बातें… बताया तो था उसने. सेमीनार था समय नहीं मिला. मोबाइल नेटवर्क भी गड़बड़ था.” “ये सब तो कहनेवाली बातें हैं.” भावना अपने मन में पुरानी खिन्नता अभी भी पाले थी. अपनी मौसी के साथ ढेर सारे ख़ूबसूरत और स्नेहिल क्षणों को भुलाकर वह उस क़िस्से को सीने से लगाए बैठी थी, जब भावना बैंग्लुरू में कॉलेज में थी. आभा सेमीनार के लिए वहां आई, पर उससे नहीं मिली ,इस बात पर सुलभा ने त्वरित टिप्पणी की थी. “देख तो आभा को, बैंग्लुरू आकर भी तुमसे नहीं मिली.” उस समय भावना ने कहा भी था, “मम्मी, उनकी लोकेशन यहां से बहुत दूर थी.” “दूर-पास क्या, आई थी तो मिल लेती…” काश! उस व़क्त वह भावना के मन में दुर्भावना के बीज बोने की जगह पहले ही कहकर रखती कि आभा से बात कर लेना. अगर उसे आने में द़िक्क़त हो, तो तुम ही उससे मिल आना.. पर उस समय बेवजह की क्षणिक निंदा समय व्यतीत का कारण बन मन को सुकून दे गई. “और हालचाल बताओ, शुभ्रा की शादी की बात सुनकर क्या कहा मौसी ने. कोई मीनमेख तो नहीं निकाली? आदत है न उनकी…” “कैसी बात कर रहे हो तुम लोग, मौसी है तुम्हारी, मीनमेख क्यों निकालने लगी…” “नहीं, विवेक गैर राजपूत है न…” “ऐसा कुछ नहीं है. शादी की बात सुनकर बहुत ख़ुश हुई. अच्छा सुन, थोड़ी देर में फोन करती हूं, कुछ काम है…” बेटियों का अपनी ही मौसी के प्रति संदेह और अवांछित व्यवहार देखकर सुलभा दुखी हो गई. बात करने का मन नहीं था, सो काम का बहाना बनाकर भावना को टाल दिया. “ओके बाय…” कहकर भावना ने फोन रखा, तो सुलभा आंखें मूंदकर आत्ममंथन करने लगी कि क्योंकर आभा के प्रति ऐसी धारणा बेटियों के मन में बनी. क्यों बेटियों को अंदेशा हुआ कि आभा विवेक के राजपूत न होने पर मुंह बनाएगी, जबकि सच यह था कि विवेक के बारे में जान-सुनकर उसकी फोटो देखकर आभा ख़ुशी से बोली थी, “इतना अच्छा दामाद हमारी ख़ुशक़िस्मती से मिल रहा है. वैसे भी आजकल जाति-वाति कौन पूछता है, बस लड़का और फैमिली अच्छी हो…” सुलभा ने आभा की प्रतिक्रिया के विषय में बताया तो भावना ठंडेपन से बोली, “ख़ुशी ज़ाहिर करने के अलावा उनके पास कोई चारा भी तो नहीं था. हम लोग उनकी निगेटिव प्रतिक्रिया कब सुनने लगे.” भावना की इस टिप्पणी की भी पृष्ठभूमि वह समझती थी. तीन भाई-बहनों में आभा घर में सबसे छोटी और सबसे मुंहफट है. आभा से दो साल बड़े और उससे चार साल छोटे भाई शिशिर ने लव मैरिज की थी. बेटे की शादी धूमधाम से करने के सपने संजोए अम्मा-बाबूजी बेटे के कोर्ट मैरिज से दुखी थे. अम्मा-बाबूजी की मायूसी देख पहले तो आभा ने शिशिर को कोर्ट मैरिज करने पर फटकार लगाई, फिर स्वयं ही अथक प्रयास कर शिशिर और उसकी पत्नी को अम्मा-बाबूजी का आशीर्वाद दिलवाया.
सुलभा ने कई बार कभी हंसकर, तो कभी संजीदा होकर आभा के तुनकमिज़ाज बर्ताव को बढ़ा-चढ़ाकर बड़ी होती बेटियों के समक्ष रखा. अपनी मौसी की दख़लंदाज़ी और तुनकमिज़ाज व्यवहार का उनके मन में ऐसा खांचा खिंचा कि उनकी छवि तेज़तर्रार और मां सुलभा की सीधी-सादी छवि बनी. “मम्मी, आपने एक बात नोटिस की. मौसी ने नानी की कांजीवरम साड़ी पहनी थी. प्योर में थी. अब ये साड़ी तीस हज़ार से कम नहीं होगी. आप इसी साड़ी के बारे में बता रही थीं न.” एक बार शुभ्रा ने सुलभा से पूछा, तो वह संभलकर बोली थी, “देख शुभ्रा अच्छा है, जो अम्मा से यह साड़ी आभा ने ली. आज उसने पहनी, तो अम्मा की याद आ गई. वह शौक से साड़ी पहन रही है, तो ख़ुशी है कि इस्तेमाल हो रही है, वरना जैसे मां ने बक्से में बंद रखी, वैसे ही मैं भी बक्से में बंद रखती. न मैं पहनती, न तुम लोग.” काश! कभी उसने बेटियों के सामने यह न कहा होता… “ये आभा भी न. बड़ी चालू है. अम्मा की सबसे महंगी और सुंदर साड़ी उनसे निकलवा ली. दूर रहती है, इसीलिए अम्मा भी अपना सारा प्यार उस पर उड़ेल देती हैं. “आप मांगतीं, तो नानी न देतीं वो साड़ी आपको?” पंद्रह साल की शुभ्रा ने उससे पूछा था, तब ही उसे संभल जाना चाहिए थी. अस्थाई रूप से उपजे मन-मुटाव को बेटियों से साझा करने की बजाय मन में रखना बेहतर था. भाई-बहन बचपन में परस्पर ख़ूब लड़ते-झगड़ते हैं, फिर एक हो जाते हैं, क्योंकि उस समय उनके वैचारिक मतभेदों को कोई हवा नहीं देता. हर भाई-बहन की अपनी ख़ासियत, अच्छाइयां-बुराइयां, उनके व्यवहार का हिस्सा होती हैं. बचपन में उसी व्यवहार के साथ वह एक-दूजे संग अनेक मतभेदों के बीच रहते हैं. पर विवाह के बाद मतभेद जब बच्चों तक पहुंचते हैं, तब वे कई गुना बढ़ जाते हैं. भाई-बहन एक-दूसरे के प्रति व्यावहारिक बनते हैं. यही व्यावहारिकता उनके बीच के नैसर्गिक अपनत्व को ख़त्म कर देती है. विवाह के बाद क्यों हमारा-तुम्हारा अलग-अलग परिवार होता है. उसने भी कभी नासमझी की… छोटी बहन के प्रति अंतर्विरोधों को अपनी बेटियों से साझा करना उसकी ग़लती थी. अपने मन में आते-जाते हर प्रकार के विचारों को बेटियों से साझा करने की ललक का परिणाम है कि अपनी ही मौसी के प्रति उनके मन में दुर्भावना है. आभा ज़ाहिर करे न करे, पर क्या शुभ्रा-भावना की तल्ख़ी और खिंचाव महसूस नहीं करती होगी.
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ये बेटियां कहां से समझेंगी हम भाई-बहनों के प्रेम की जड़ों की गहराई. हमारी आपसी बॉन्डिंग… ये बॉन्डिंग ही है, जो आज भी अनेक गतिरोधों के बाद भी रह-रहकर एक-दूसरे के पास ले आती है और जो दिलों में दूरियां आ जाएं, तो मन को सालती है. उसे याद आया जब भावना-शुभ्रा छोटी थीं, तब शिशिर और आभा में होड़ होती कि कौन सुलभा के घर जाएगा. आभा बच्चों के मोहवश सुलभा के पास जब-तब खिंची आती थी. उनको दुलाराना-संभालना, खाना खिलाना… सब तो किया है आभा ने… उसने भावना-शुभ्रा को अपनी बेटियों की तरह माना… पर वह सब तो उनके बचपन के साथ रीत गया. रह गया तो सब कुछ सयाना… बड़ी होती शुभ्रा-भावना ने अपनी मां की रिश्तों के प्रति व्यक्त प्रतिक्रिया के अनुरूप ही अपनी समझ को विस्तार दिया और उसी के अनुसार मौसी को परखा… आज बेटियों के लिए आभा महज़ मौसी है… ‘मां सी’ का जज़्बा सुलभाकोमल मन में कभी पनपा ही नहीं पाई, बल्कि वह आभा को लेकर जाने-अनजाने अनेक भ्रामक तथ्यों, प्रपंचों से उन्हें भ्रमित करती रही… तो बेटियों का क्या दोष… बेटियों के लिए आभा वह है जिससे उनकी मां जाने-अनजाने आहत हुई, वो कैसे अपनी मौसी को माफ़ कर देतीं. सुलभा तो आभा के पीठ पीछे उसकी खिंचाई करने के बावजूद उससे कभी मन से दूर न हुई… जब भी आभा सामने आती है, मन में स्वाभाविक प्रेम की ऊष्मा आती है. यह बहनों के बीच स्वाभाविक है, पर बेटियां बहनों के बीच की प्रतिबद्धता से अंजान उनके सहज-स्वाभाविक प्रेमपूर्ण व्यवहार को भी दुनियादारी मानती हैं. “क्या हुआ, आप तो सीरियस हो गईं. बहन है मेरी… ग़ुस्से में बोल गई.” भावना की आवाज़ सुनकर सुलभा विचारों के घेरे से बाहर आ गई. कुछ देर के मौन के बाद वह भावना से बोली, “तुम ख़ुशक़िस्मत हो कि तुम्हारी बेटी है… बेटियां मां से मन से जुड़ी होती हैं. मां हर छोटी-बड़ी बात अपनी बेटी से साझा कर सकती हैं, पर याद रखना बालमन पर अपने अस्थाई रूप से उपजे रोष के बीज पड़ते हैं, तो वह आगे चलकर बबूल बन जाते हैं. बड़े तो बोल-बालकर भूल जाते हैं, पर बच्चे नहीं भूलते.” “ओह मां, तुम भी न बहुत संवेदनशील हो…” भावना बोलकर चली गई, तो सुलभा फुसफुसाई, ‘ये जो रिश्ते हैं न ये बड़े संवेदनशील होते हैं. नेह-प्रेम की खाद-पानी न पड़े, तो सूख जाते हैं. मेरी तरह तेरी भी एक ही बहन है, जो ग़लती मैंने की ‘तुम न करना..'
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