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कहानी- नैहर आंचल समाय (Short Story- Naihar Aanchal Samay)

आसपास के घरों के कुछ परिचितों ने देखा, तो पुलिया पर ही चौपाल जम गई. वहीं चाय आ गई. कुर्सियां आ गईं. चाची-ताई, मौसी, ताऊ सब आ गए. मिठाई और न जाने क्या-क्या आ गया. अमेरिका की एकाकी, संवेदनहीन संस्कृति की शुष्कता में इन पुलियाई रिश्तों की आत्मीय तरलता मन को भिगो गई. पॉश कॉलोनियां चाहे पश्‍चिमी संस्कृति में रंगी रुखी होती जा रही थीं, लेकिन इन ज़मीन से जुड़े मोहल्लों में अभी भी रिश्तों में नमी बची हुई है. प्रांजल को लगा पंछी की तरह इस ढलती शाम को वह भी कुछ पलों के लिए ही सही, अपने नीड़ को लौट आई है. स्नेहाशीषों से आंचल भर गया. कुछ ख़ुशी के मोती भी आंखों से छलक आए. न ख़त्म होनेवाली आत्मीय बातों से जी जुड़ गया.

पूरे पांच साल बाद आ रही थी प्रांजल अपने मायके, लेकिन यह पांच साल उसे युगों जितने लंबे लग रहे थे. तभी अमेरिका से जब वह दिल्ली आई, तो दोनों बच्चों को सास के पास ही छोड़ आई थी कि कुछ दिन तो चैन से मायके में बैठकर पुरानी यादों की जुगाली कर ले, फिर बच्चों को भी भोपाल बुला लेगी. हवाई जहाज से भी वह आंखें गड़ाए शहर को देखती रही. उसका बस चलता तो पैराशूट से ही कूद पड़ती.
जन्म स्थान का आकर्षण भी कितना प्रबल होता है, तभी तो जन्मभूमि के लिए लोग अपनी जान भी न्योछावर कर देते हैं. जिस जगह पर नाभि गड़ी हो, उसका मोह जन्मभर नहीं छूटता. फ्लाइट लैंड करने के बाद सामान लेने तक उसका दिल न जाने कितनी बार ख़ुशी से धड़क गया. सामान लेते ही उसने तेज़ी से बाहर की तरफ़ दौड़ ही लगा दी. भैया गाड़ी लेकर ख़ड़े थे. प्रांजल को गले लगाकर उसका सामान डिक्की में रखा और गाड़ी आगे बढ़ा दी.
कहीं कुछ नहीं बदला था, तो कहीं बहुत कुछ बदल गया था शहर में. पुरानी इमारतें वैसी ही थीं. कच्ची अस्थायी दुकानों की स्थिति बदल गई थी. पुराने भोपाल को पार करके जब कार जेल रोड से होती हुई बोर्ड ऑफिस चौराहे के पास पहुंची, तो प्रांजल के चेहरे पर एक लंबी-चौड़ी मुस्कान आ गई, जिसे प्राजक्त ने भी देख लिया था. उसने कार चौराहे से अंदर लेकर बाईं तरफ़ मोड़ ली और दो मिनट बाद ही कार एक सरकारी क्वार्टर के सामने रुकी. एफ टाइप, एक सौ उन्नीस बटा इकतालीस. सामने लगा नीलगिरी का ऊंचा पेड़ और उसकी बगल में गुलमोहर. प्रांजल का जन्म इसी घर में हुआ था.
उसके पिता कॉलेज में प्रोफेसर थे. वह बहुत हसरत से अभी घर को देख रही थी कि प्राजक्त ने कार धीरे से आगे बढ़ा ली. पुलिया पर से मुड़ते हुए भी वह पीछे पलटकर घर को देखती रही. चार साल पहले रिटायर होने के बाद पिताजी ख़ुद के घर में चले गए और यह घर छूट गया. पांच साल पहले जब वह मायके आई थी अमेरिका से, तब यहीं आई थी. पंद्रह दिन रहकर गई थी. अब इस जन्म में तो दोबारा यहां रहना तो क्या, अंदर भी जा नहीं पाएगी.

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कितना अजीब एहसास हुआ था उस दिन, जिस घर में जन्म लिया, पली-बढ़ी, जीवन के इतने सारे दौर से गुज़री, पढ़ाई, सखी-सहेलियां, शादी हुई. जीवन के पच्चीस बसंत बिताए. शिशु से विवाह तक सोते जागते, चेतन-अचेतन हर अवस्था में जिसे अपना घर माना, महज़ कुछ ही पलों में एकदम से पराया करके किसी और को सौंप दिया गया. आस-पड़ोस का आत्मीय, भरा-पूरा परिवार भी उसी के साथ छूट गया. तब से प्रांजल का मन ही नहीं हुआ कभी भोपाल आने का. वो तो मां ने राखी पर आने की बहुत मनुहार की, तो प्रांजल को आना प़ड़ा.
चिरपरिचित मोहल्ला, स्कूल-कॉलेज मार्केट सब पीछे छूटते जा रहे थे और कार आगे बढ़ रही थी. नितांत अपरिचित कॉलोनी की ओर. शहर से बाहर बसी एक कॉलोनी में पिताजी ने घर बनवाया था. वहां पहुंची, तो देखा हमेशा की तरह उसकी राह देखते पिताजी बरामदे में ही खड़े थे. कार पोर्च में खड़ी करके प्राजक्त ने प्रांजल का सामान मम्मी के ही कमरे में रख दिया. मां नहाने गई थीं. भाभी चाय लेकर आईं. नन्हा भतीजा अभी सो रहा था. चाय पीकर प्राजक्त कॉलेज जाने की तैयारी करने लगा. वह भाभी और पिताजी से बात करने लगी.
मां भी नहाकर आ गई. “घर क्या बदला तू तो मायके का रास्ता ही भूल गई प्रन्जू. क्या हम लोगों की भी याद नहीं आती तुझे?” मां ने गले लगाते हुए मीठी-सी उलाहना दी. “पांच बरस हो गए तुझे देखे.”
मां की आंखें भर आईं, तो प्रांजल को एक अपराधबोध-सा हुआ. वह मां से बातें करने लगी. थोड़ी देर बाद भाभी ने आकर कहा कि उसका सामान गेस्ट रूम में रख दिया है, जाकर नहा ले. ‘गेस्ट रूम’ प्रांजल के मन को ठेस लगी. वह इस घर में गेस्ट है क्या. उठकर कमरे में गई. डबलबेड, एक आलमारी, ड्रेसिंग टेबल से सजा कमरा, जिसके साथ वॉशरूम था.
तभी मां अंदर आकर बोली, “प्रांजल देख ले साबुन वगैरह है कि नहीं, नहीं है तो मेरे बाथरूम में नहा ले या कहे तो मैं साबुन ला देती हूं.”
‘मेरे बाथरूम में’ मां के मुंह से यह शब्द कितने अजीब लगे. सरकारी क्वार्टर में सिर्फ़ ‘बाथरूम’ था, न तेरा न मेरा बस सबका था. चाहे घर के सदस्य हों या मेहमान. वह घर सिर्फ़ घर था. ‘बेडरूम’ या ‘गेस्ट रूम’ में बंटा हुआ नहीं था.
“सब होगा मां. भाभी ने रख ही दिया होगा.” कहते हुए प्रांजल नहाने चली गई. एक घंटा ही हुआ होगा उसे आए हुए, लेकिन अजीब-सा अजनबीपन जैसा महसूस हो रहा था उसे. जैसे किसी बहुत दूर के रिश्तेदार के यहां पहली बार रहने आई हो.
अजीब-सा संकोच मन पर हावी होता जा रहा था. पुराने घर की बहुत याद आ रही थी. नहाकर आई, तो सब नाश्ते की टेबल पर इंतज़ार कर रहे थे. नाश्ता करके प्राजक्त कॉलेज चला गया. भाभी उसे घर दिखाने लगी. नीचे दो कमरे, एक मां-पिताजी का, एक गेस्ट रूम और ऊपर दो बेडरूम, एक बड़ा-सा बरामदा. अमूमन सोफासेट, पलंग समेत सब कुछ नया था. बस लोग ही पुराने थे या बस काया ही पुरानी थी.
मन भी नए घर में नए हो गए थे. ऊपर गई तो मां भी आ गईं, कमरे देखने के बाद छत पर गई, तो एक कोने में कुछ सामान पड़ा था. प्रांजल ने देखा उसकी टेबल-कुर्सी और तख्त था. यह तख्त पिताजी ने ख़ास उसके लिए बनवाकर हॉल में खिड़की के पास रखा था. दिनभर इसी पर अपनी किताबें फैलाए वह पढ़ती रहती थी और देर रात पढ़ते हुए इसी पर सो जाती. कमरे में टेबल-कुर्सी जो पहले भैया की थी और उनके हॉस्टल में जाने के बाद प्रांजल को मिल गई थी, उसकी किताबें, कॉलेज का बैग इसी पर रखा रहता. छुट्टियों में इसी पर वह ड्रॉइंग करती. एक छोटा-सा टेबल फैन. पिताजी रात में उसके सिरहाने लगा देते, ताकि मच्छरदानी के अंदर भी उसे हवा मिल सके और वह आराम से सो सके. कितना सुकून था उस हवा में, जो आज एसी की ठंडक में भी नहीं मिलता.

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“मां, यह सामान…” बोल नहीं पाई वह कि कबाड़ की तरह यहां क्यों पटक दिया है. याद आया उस घर में यदि उसका कोई भी सामान अपनी जगह से हटा दिया जाता था, तो वह पूरा घर सिर पर उठा लेती थी. पिताजी की सख़्त हिदायत थी कि किसी भी सामान को कोई हाथ न लगाए, लेकिन अब इस घर में वह किस अधिकार से किसी को कुछ कहे.
“यह सामान बिका ही नहीं. अब आजकल कौन ऐसे पुराने तख्त रखता है घर में. एक कबाड़ीवाले से बोला है, वो आकर कुछ दिनों में ले जाएगा.” मां अत्यंत सहज स्वर में बोलीं. और प्रांजल को लगा उसके सहज स्नेह की डोरियों को जैसे किसी ने काट-छांटकर छत के एक कोने में फेंक दिया है.
इंसानों से ही नहीं, मन की यादें और नेह की डोरियां वस्तुओं से भी कितनी मज़बूती से जुड़ी होती हैं. अगर वो वस्तुएं वहां से हट जाएं, तो लगता है किसी ने बलात वो यादें, वो समय ही मिटा डाला है. कुछ भी तो उससे जुड़ा हुआ बचा नहीं है इस घर में. दीवारों की तरह रिश्ते भी नए और पुराने हो गए, लग रहे थे. तीन दिन प्रांजल इसी दुख में रही. ऊपर से हंसती-बोलती, लेकिन अंदर अपनी टूटी हुई नेह की डोरियों की पीड़ा से व्यथित.
कहते हैं मायका मां से होता है, लेकिन आज समझ में आ रहा है कि मायका और भी बहुत सारी बातों से होता है. एक घर होता है, कुछ वस्तुएं होती हैं, जो लंबे समय तक व्यक्ति से जुड़कर अपने प्रति व्यक्ति के मन में एक सहज स्वाभाविक मोह उत्पन्न कर देती हैं, जिन पर मन का एक आत्मीय अधिकार होता है और वही अधिकार भाव फिर व्यक्ति को उस जगह और लोगों को बांधे रखता है. आस-पड़ोस के लोग, जो आपको खट्टी-मीठी यादें, कुछ नसीहतें, बहुत-सा प्यार बांटते हैं, जिनके साथ घुल-मिल कर जीवन आगे बढ़ता है. वो आस-पड़ोस के रिश्ते, चाची, ताऊ, मामा-मौसी, दादा-दादी, कितने धागे तो बंधे हुए थे.
अमेरिका की जिस सरोकारहीन, शुष्क मशीनी संस्कृति के अकेलेपन से घबराकर वह यहां चली आई थी आत्मीयता की छांव की तलाश में, वही शुष्कता यहां पर भी हावी दिखी रिश्तों पर. चमचमाती कॉलोनी में रिश्ते बहुत धुंधला गए थे. पांच बरस पहले प्रांजल स़िर्फ घर की ही नहीं, पूरे मोहल्ले की बेटी हुआ करती थी. सुबह की चाय के पहले शर्मा आंटी गरम-गरम सूजी का हलवा दे जाती थीं कि प्रांजल को बहुत पसंद है. दीक्षित चाची के यहां से पोहा आ जाता था. यही बातें भारत को अन्य भौतिकवादी स्तर पर विकसित देशों से अलग करती थीं, लेकिन अब ये देश भी उसी राह पर चल पड़ा है. इस कॉलोनी में किसी को किसी से कोई सरोकार नहीं कि प्रांजल कौन है.
आज आंचल एकदम से खाली हो गया है. लग रहा था कि मायका कहीं छूट गया है. गलियां सूनी हो गईं अचानक से. पांच साल तक अमेरिका में स्नेह के निर्मल झरने को तरसता अंतर्मन यहां आकर भी रीता ही रह गया. रात में गेस्ट रूम में अकेले पलंग पर पड़े हुए देर तक नींद नहीं आती थी. पहले आती थी, तो पिताजी बाहर हॉल में सो जाते और मां हमेशा उसके साथ ही सोती, देर रात तक दोनों बातें करती रहतीं. तब वह अपने घर की बेटी होती थी, अब इस नए घर में जैसे गेस्ट बनकर रह गई है. वह घर चमक-दमक से खाली, लेकिन भावनाओं से भरा था. बस बिट्टू की बालसुलभ क्रियाओं से मन कुछ बहल जाता.
प्राजक्त देख रहा था, प्रांजल इस बार कुछ अनमनी-सी है. जब से वह आई है, तब से उसे भी कॉलेज में इतना काम था कि चाहकर भी उसे समय नहीं दे पा रहा था. दो-चार दिन बाद तो वह लौट भी जाएगी और अगर यूं अनमनी-सी वापस गई, तो पता नहीं बहुत दिनों तक उसका मन करेगा भी कि नहीं वापस आने का. वह उसके मन की स्थिति को काफ़ी कुछ समझ रहा था. उसने तय किया कि कल छुट्टी लेकर दिनभर उसके साथ रहेगा.

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“चल एक ज़रूरी काम है, थोड़ी देर में आते हैं.” दोपहर के खाने के बाद प्राजक्त ने प्रांजल से कहा. प्रांजल प्रश्‍नवाचक दृष्टि से उसकी तरफ़ देखने लगी.
“जैसी है वैसी ही अच्छी लग रही है, चल.” प्राजक्त ने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाया. “कहां जा रहा है अचानक, क्या हुआ?” मां-पिताजी दोनों अचकचाकर पूछने लगे. भाभी भी कौतूहल से देखने लगी. “कुछ नहीं आते हैं थोड़ी देर में.” कहते हुए प्रांजल को लेकर वह घर से बाहर निकल गया. कॉलोनी के बाहर निकलकर वह जैसे ही पुरानी चिरपरिचित सड़क पर पहुंचे, प्राजक्त ने देखा, प्रांजल के चेहरे का रंग बदलने लगा है.
अपरिचितों की भीड़ में उकताए एकाकी मन को अचानक किसी अपने को देखकर जो ख़ुशी महसूस होती है, ख़ुशी के वही रंग एक-एक करके प्रांजल के चेहरे पर आते जा रहे थे. उसकी गाड़ी सीधे प्रांजल के स्कूल के सामने खड़ी थी. अपना स्कूल देखते ही प्रांजल के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी. किशोरावस्था, सखियों, शिक्षकों की न जाने कितनी स्मृतियां ताज़ा हो गईं एक साथ. बहुत देर तक वह स्कूल के प्रांगण में, गेट, दरवाज़े-खिड़कियों को देखती रही. फिर कॉलेज की स्मृतियां ताज़ा कीं.
गेट के बाहर चना-जोरवाला काका अब भी अपना खोमचा लेकर ख़ड़ा था. प्रांजल ने खिड़की का कांच खोला और काका को दो दोने बनाने को कहा. काका तत्परता से दो दोने चटपटे चना-जोर ले आए. “अरे बिटिया, तू तो एही की पढ़ी है न? बड़े दिनों बाद आई रही. सादी हो गई का तोहार?” काका ने उसे पहचान लिया, कितना तो चना-जोर लेती थी वो काका से. ढेर सारा नींबू डलवाकर. आज भी काका झट से एक नींबू काटकर ले आए और उसके चने पर निचोड़ दिया.
“हमें याद है बिटिया, तोहे ख़ूब सारा नींबू डला हुआ चना पसंद है.” “कैसन हो काका?” प्रांजल ने आत्मीयता से पूछा और बीस का नोट बढ़ा दिया उनकी ओर. “नहीं-नहीं बिटिया, पीहर आई बिटिया से कोई पैसे लेते हैं क्या. जुग-जुग जियो, ख़ुश रहो.” काका ने हाथ पीछे कर लिए. “ख़ूब फूलो-फलो.”
“बेटी से नहीं, तो कमाऊ बेटे पर तो हक़ बनता है न काका.” कहते हुए प्राजक्त ने पचास का नोट काका की जेब में ज़बर्दस्ती रख दिया. बदले में काका ने ढेर सारी दुआओं से प्रांजल की झोली भर दी और अपनी छलक आई आंखें पोंछते हुए उसे विदा दी.
चना-जोर ख़त्म होने तक दोनों न्यू मार्केट में थे. अपने उस फेवरेट आइस्क्रीम पार्लर के सामने, जहां बचपन में पिताजी के साथ आते थे स्ट्रॅाबेरी आइस्क्रीम खाने और बड़े होने पर प्राजक्त अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर लाता था और दोनों हर बार अलग-अलग फ्लेवर खाते थे. और हर बार प्रांजल प्राजक्त की आइस्क्रीम खाकर कहती, ‘तुम्हारी आइस्क्रीम ज़्यादा टेस्टी है.’ और प्राजक्त अपनी आइस्क्रीम भी उसे देता था. स्नेह की ऐसी मिठास थी उस आइस्क्रीम में, जो कभी भी अमेरिका के महंगे पार्लरों की महंगी आइस्क्रीमों में भी नहीं मिली. आइस्क्रीम का स्वाद लेते-लेते दोनों ने न्यू मार्केट की गली-गली घूम ली.


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मन भरकर जब उन गलियों में घूम लिए, तो प्राजक्त ने देखा कि प्रांजल के चेहरे पर पांच साल पहलेवाली प्रांजल की झलक दिख रही थी. वह उसे शिवाजी नगर की चौपाटी पर ले गया, जहां दोनों अक्सर मामा-भांजे चाट-कॉर्नर पर आलू-टिक्की और पानीपूरी खाते थे. अमेरिका में तो वह इन दोनों का स्वाद भूल ही गई थी. उसके मुंह में पानी भर आया. भांजा तो नहीं पहचान पाया, लेकिन मामा दोनों को देखकर खूब ख़ुश हुआ. भरपेट टिक्की और पानीपूरी खाकर प्राजक्त उसे पुराने घर की पुलिया पर ले गया.
शाम ढलने को थी. आसमान का रंग बदल रहा था. प्रांजल के चेहरे पर भी एक गुलाबी आभा छाने लगी थी. बचपन में दादाजी उसे गोद में लेकर इस पुलिया पर आ बैठते थे और घर लौटते पंछियों के झुंड दिखाते, फिर वह उनकी उंगली पकड़कर यहां आने लगी. पंछियों को घर लौटते देखकर उसे बड़ा आनंद आता. गोद से डोली तक का सफ़र कब तय हो गया, पता ही नहीं चला. प्रांजल ने पिछला पूरा जीवन यादों में जी लिया. दाएं हाथ की तरफ़ पुराना घर था. क्षणभर को वह भूल गई कि अब वह यहां नहीं रहती. उसे लगा वह बस पंछियों को देखने पुलिया पर बैठी है, थोड़ी देर में घर जाएगी, अपने घर.
आसपास के घरों के कुछ परिचितों ने देखा, तो पुलिया पर ही चौपाल जम गई. वहीं चाय आ गई. कुर्सियां आ गईं. चाची-ताई, मौसी, ताऊ सब आ गए. मिठाई और न जाने क्या-क्या आ गया. अमेरिका की एकाकी, संवेदनहीन संस्कृति की शुष्कता में इन पुलियाई रिश्तों की आत्मीय तरलता मन को भिगो गई. पॉश कॉलोनियां चाहे पश्‍चिमी संस्कृति में रंगी रुखी होती जा रही थीं, लेकिन इन ज़मीन से जुड़े मोहल्लों में अभी भी रिश्तों में नमी बची हुई है. प्रांजल को लगा पंछी की तरह इस ढलती शाम को वह भी कुछ पलों के लिए ही सही, अपने नीड़ को लौट आई है. स्नेहाशीषों से आंचल भर गया. कुछ ख़ुशी के मोती भी आंखों से छलक आए. न ख़त्म होनेवाली आत्मीय बातों से जी जुड़ गया.
दूसरे दिन के निमंत्रण मिल गए. बेटी मायके आई है, बिना खाना खिलाए कैसे जाने दें. लिहाज़ा स्वीकार करना ही पड़ा. भरे मन से सबसे विदा ले, जब वापस जा रही थी, तो प्राजक्त ने कहा, “मानता हूं बदलती परिस्थितियों में काफ़ी कुछ छूट गया, बदल गया, लेकिन फिर भी तेरा बड़ा भाई तेरा पुराना एहसास, पुराना घर जितना संभव हो सके, तुझे लौटाने की कोशिश हमेशा करेगा. मेरे रहते तेरा मायका बना रहेगा.” प्रांजल ने मुस्कुराकर भइया को देखा. भइया ने आज उसके आंचल में नैहर का सुख भर दिया था.

Dr. Vinita Rahurikar
विनीता राहुरीकर

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