Close

कहानी- पापा क्यूं पीछे रह गए..? (Short Story- Papa Kyon Piche Reh Gaye..?)

…संजय परेशान से थे, नींद नहीं आ रही थी. दिल बहलाने को वह बाहर की बालकनी में आ गए. चांदनी रात में वह आसमान को ताकने लगे. ‘यही आसमान तो विदेश में भी होगा. क्या पत्नी और बेटी इस आसमान के माध्यम से उनसे जुड़ी होंगी?’ अंतर्मन से आवाज़ आई- नहीं, बिल्कुल नहीं… मन ने स्वयं से सवाल किया, क्यों झूठे रिश्तों को ढो रहे हो..?फिर एक ठहाका गूंजा उनके अंदर. वह हताश थे, निराश थे, टूटे हुए थे…

हमारे समाज में मां का स्थान हमेशा आगे ही रहा है. अनगिनत कविताएं, गीत, पिक्चर्स, मदर्स डे और इसके भी अतिरिक्त और बहुत कुछ माता के नाम से जुड़ा है, लेकिन यहां मैं मां की नहीं, बल्कि एक पिता की कहानी बताने जा रही हूं.

माता अपने बच्चे को नौ महीने अपने पेट में रखती रखती है, लेकिन पिता जब तक जीवित रहता है, बेटी के लिए बहुत कुछ करता रहता है. माता बिना पगार लिए सब के लिए काम करती है और पिता सब की इच्छा पूर्ति करते हुए अपनी कमाई ख़र्च करता है. अपनी कमाई में से अपने लिए पिता बहुत कम या घर की ज़रूरतों के बाद ही कुछ ले पाता है.
ऐसे ही पिता की कहानी है यह. पिता तो पिता ही होता है, चाहे नाम कुछ भी हो. ऐसे ही पिता थे, संजय. वह सब के मन को ख़ुश रखने के लिए कुछ न कुछ करते रहते थे. इसका नतीज़ा यह हुआ कि पत्नी के पास सोने के कितने गहने आ गए, जबकि संजय के पास सिर्फ़ शादी में मिली एक अंगूठी ही रह गई थी. इच्छाओं की गिरफ़्त में आ चुकीं मां-बेटी की आलमारियां कपड़ों से भरती गईं, लेकिन उनके पास वही पुराने कपड़े थे, जिन्हें वह बहुत ख़ुशी जताते हुए पहनते थे, भले ही अंदर से कसक उठ रही हो.
संजय थे ही ऐसे कि हर वक़्त, हर अवसर पर अपनी पत्नी और लाड़ली की ख़ुशियों पर सब कुछ त्यागने को तैयार रहते थे. मां की ख़्वाहिशें तो कम होने का नाम नहीं लेती थीं. मां की तो परछाई थी बेटी के जीवन पर, सो बेटी भी उन्हीें के नक्शेकदम पर चल निकली और मां की देखादेखी उसकी ख़्वाहिशें भी बढ़ती गईं. दोनों को ही अपनी ख़ुशियां बहुत ज़्यादा प्यारी थीं. उन्हें संजय की किसी तकलीफ़ का न तो एहसास और न ही परवाह, जबकि वह उनकी ख़ुशियां पूरी करने में ही लगे रहते थे. अपने लिए कुछ लेने का ख़्याल भी मन में नहीं आता था, और कभी आता भी था, तो उसे अंदर ही अंदर दबा लेते थे. उनकी नौकरी की कमाई कब कम पड़ने लगी, कब उन्होंने कर्ज़, उधार लेना पड़ा, यह वह बस ख़ुद ही जानते थे. इन समस्याओं की भनक भी उन्होंने कभी भी पत्नी और लाड़ली के कानों में नहीं पड़ने दी. बेटी को तो पंख लगे थे, कैसे सोचती कि पापा किस हाल में हैं. मां-बेटी को ख़ुश रखने के लिए कितना झूठ बोलते हैं, और अपने आप को झूठे ही सहज दिखाते हैं, सिर्फ़ इसलिए कि उनके दुख से मां-बेटी दुखी न हों. लेकिन उनके अंदर के दुख के बारे में दोनों में से किसी ने भी कभी नहीं सोचा.

यह भी पढ़ें: रिश्तों से जूझते परिवार (Families dealing with relationships)


ना जाने कितनी प्रतिभाएं संजय के अंदर छिपी पड़ी थीं. वो प्रतिभाएं बेटी में आती गईं. इसे देखकर वह अक्सर बहुत ख़ुश होते थे. कैसे निर्मल मन से उनके में अंदर अपनी लाड़ली के लिए प्यार की अविरल धारा बहती रहती थी, जो अक्सर बेटी की आंखों में थोड़ी सी भी तकलीफ़ देख कर टूट भी जाया करती थी. उन्होंने बेटी की किसी भी ख़्वाहिश पर ऐतराज़ नहीं किया और न ही उसे कभी नाराज़ किया. कोई पत्थर उसके पैरों में चुभने नही दिया. अपनी सभी इच्छाओं का गला घोंट दिया था, पर अपने दुख कभी नहीं बताए.
बेटी को उंगली पकड़ के कंधों पर बेटी की स्कूल बैग लटकाए हुए स्कूल तक छोड़ने का क्रम उस समय बदल गया, जब उन्होंने बेटी को एक नई गियर वाली साइकिल की गिफ्ट कर दी थी उसके बर्थडे पर. फिर कब साइकिल से स्कूटी पर कॉलेज जाने लगी थी लाड़ली, पता ही नहीं चला. समय बीता, तो उच्च शिक्षा की पढ़ाई सामने आ गई. बेटी ने कहा कि वह विदेश जाकर पढ़ना चाहती है. आर्थिक तंगी के बावजूद संजय ने सहमति जता दी.
बेटी को ख़ुश देखने और उसकी पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए विदेश भेजने का वक़्त भी आ गया. और फिर नया कर्ज़ और अपनी बची खुची इच्छाओं का गला घोंटने के सिवाए कोई दूसरा रास्ता नहीं था. इधर बेटी विदेश गई, उधर रिटायरमेंट का समय आ पहुंचा. इधर ख़र्चा बढ़ गया, उधर पेंशन के रूप में वेतन आधा रह गया. लेकिन संजय के सामने बेटी की ख़ुशी थी, जो साहस दे रही थी. उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति का कुछ हिस्सा बेच दिया और बाकी पर और बड़ा कर्ज़ ले लिया.
संजय गंभीर आर्थिक विपत्ति में भी जैसे-तैसे घर की गाड़ी खींच रहे थे. बेटी नज़रों से दूर हो गई थी, मगर उन्हें आसरा था कि फोन पर बात होती रहेगी. लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें लगा कि बेटी ने फोन करना कम कर दिया है. वह अपनी पढ़ाई और दोस्तों में ज़्यादा समय दे रही थी. कभी वह फोन करते, तो कहती कि पढ़ाई में डिस्टरबेंस होता है. उन्होंने अपने दिल को समझाया कि अब बेटी बड़ी हो रही है और उसकी प्राथमिकताएं बदल रही हैं. उसके पास पापा का हालचाल जानने का वक़्त नहीं था. वह जब भी फोन करती, तो बस पैसों के लिए ही और संजय कैसे भी हो, पैसों का इंतज़ाम करने में जुट जाते.
इधर पत्नी का रुख भी पहले की तरह ही उपेक्षापूर्ण बना रहा. वह पहले संजय के पैसों से अपनी इच्छाएं पूरी करती रही और अब उसने आस लगा रखी थी कि बेटी की ऊंचे पद पर नौकरी लग जाएगी, तो फिर आगे की जीवन इच्छाओं की पूर्ति से भरा रहेगा. दो-चार बार हल्के से विवाद के बीच उसने ऐसा संकेत दिया भी था.

यह भी पढ़े: छोटी-छोटी बातें चुभेंगी, तो भला बात कैसे बनेगी? (Overreaction Is Harmful In Relationship)


डिग्री पूरी होने पर बेटी की नौकरी वहीं लग गई. वह एक बार आई, तो अपनी मां को साथ ले गई. दोनों मां-बेटी ने संजय से साथ में चलने के लिए मात्र औपचारिक बात ही की. उनका तर्क था कि यहां पर घर कौन संभालेगा. संजय छोटे बच्चे तो थे नहीं कि कुछ भी नहीं समझ पाते. ज़ाहिर था कि मां-बेटी ने मिलकर ही यह योजना बनाई थी कि संजय यहीं रहें. वह समझ चुके थे कि दोनों का पहले से ही उनके प्रति लगाव नहीं था और जो था भी वो भी संवेदनाओं को दरकिनार करके भौतिकता की भेंट चढ़ गया था.
मां-बेटी को विदेश गए हुए एक सप्ताह हो गया था, लेकिन इस बीच केवल दो बार ही फोन पर बात हुई और वह भी बेरूखी के साथ.
… रात के ग्यारह बज रहे थे. संजय परेशान से थे, नींद नहीं आ रही थी. दिल बहलाने को वह बाहर की बालकनी में आ गए. चांदनी रात में वह आसमान को ताकने लगे. ‘यही आसमान तो विदेश में भी होगा. क्या पत्नी और बेटी इस आसमान के माध्यम से उनसे जुड़ी होंगी?’ अंतर्मन से आवाज़ आई- नहीं, बिल्कुल नहीं… मन ने स्वयं से सवाल किया, क्यों झूठे रिश्तों को ढो रहे हो..? फिर एक ठहाका गूंजा उनके अंदर. वह हताश थे, निराश थे, टूटे हुए थे… आख़िर क्या मिला उन्हें इतनी जद्दोज़ेहद के बाद… भौतिक सुख तो छोड़ो, रिश्तों का सुख भी नहीं…!
… मैं सोचती हूं, संजय को कौन समझाए कि न तो उनकी पत्नी अपनी है और न ही बेटी. हो सकता है, बेटी वहीं विवाह कर ले और मां-बेटी और दामाद वहीं साथ में रहें. सही बात तो यह है कि जब रिश्तों पर दूसरों की इच्छाएं हावी हो जाती हैं, तो भावों से भरा व्यक्ति खाली हाथ ही रह जाता है. ऐसे रिश्तों को ढोना फ़िज़ूल है… ख़ुद में ही जीना सीखना होगा. मुझे लगता है कि संजय को सब कुछ समय पर छोड़ देने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचा है. हां, उन्हें इस बात का सुकून ज़रूर मिलता रहेगा कि उन्होंने पत्नी और बेटी के लिए अनवरत कर्तव्य निभाया… बदले में कुछ भी पाने की अपेक्षा न रखते हुए.
…. और जब संजय की पूरी ज़िंदगी को देखती हूं, तो एक सवाल ज़रूर कौंधता है कि मां-बेटी तो आगे बढ़ गईं, लेकिन पापा क्यूं पीछे रह गए…!

स्मिता शाह

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का 12 अंक (फिज़िकल कॉपी) सिर्फ़ 999 में (840+159 रजिस्टर्ड पोस्ट/कुरियर व अन्य शुल्क) और पाएं 1000 का गिफ्ट कूपन और 12 डिजिटल अंक बिल्कुल फ्री

Share this article