"बहुत शर्मिंदगी होती है सैंडी की हरकत पर. लेकिन क्या कहें अपने बेटे-बहू को… उनके बच्चे भी उनके नक्शेकदम पर ही हैं. सबका सपना मनी मनी ही रह गया है. बस पैसे कमाओ कैसे भी जल्दी…"
रघुनंदन वर्मा की अपनी आटोमोबाइल सॉल्यूशन कंपनी है. वे सेहत और परिवार को छोड़ बस पैसा बनाने में लगे हुए है. उनकी पत्नी शारदा का भी शुरू से कुछ ऐसा ही हाल रहा है अपना सपना मनी मनी. उनका अपना रिदिम म्यूज़िक आर्ट सेंटर है. कोई ढंग का सीखे न सीखे मतलब नहीं… बस पैसों के लालच में स्टूडेंट्स भरती किए जा रही हैं. ऊपर से कई और ब्रांच खोलने का इरादा है. चार साल पहले रघुनंदन की माता जी का देहांत हो गया था, किन्तु पिता दीनानाथ अभी इनके साथ ही रहते हैं. फौज मेंं कर्नल के पद से रिटायर हुए पिता इतने साल बाद सतहत्तर की उम्र में भी ठीक ठाक है, अपना काम स्वयं कर लेते हैं. परन्तु वे घर के बढ़ते वैभव में घटते इंसानी व पारिवारिक मूल्यों को देख दुखी थे.
रघुनंदन की बड़ी बेटी मोना का पति वीरेंद्र अस्थाना इटावा में एक सरकारी बैंक में अफ़सर है. परन्तु उसे छोटे शहरों में रहना पसंद नहीं. वह पति वीरेंद्र व बच्चों को छोड़ अपने दोस्त के साथ लंदन सैटल होने में लगी है. छोटी बेटी पिंकी फैशन डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रही है. उसका भी दिमाग़ चढ़ा हुआ है. पापा के फोर बी एच के में उसका दम घुटता है. अपनी सहेली सुनंदा के साथ उसके फार्म हाउस जब तब भाग जाती है.
बड़े बेटे सैंडी ने अमेरिकी नागरिकता के चक्कर में मंगेतर निशा को छोड़ विदेशी लिसा से ब्याह कर लिया है. छोटा बेटा जॉय मनिपाल से इंजीनियरिंग ट्रेनिंग के बाद एमबीए के लिए फ्रांस गया कि लौट के पापा की कंपनी सम्भालेगा, तो वो वहीं का हो गया. भारत वापस आना ही नहीं चाहता.
सब अपने-अपने में लगे हुए. बस ख़ूब सारी कमाई विलासितापूर्ण आधुनिक लाइफ स्टाइल के पीछे भागे जा रहे हैं. केवल अपने सुख की स्वार्थी सोच ने उन्हें किस कदर अंधा बना दिया है. किसी को किसी से कोई मतलब नहीं रह गया. सो कॉल्ड प्रैक्टिकल बन गए हैं वे. पर क्या इसे जीवन कहेंगे? दादू अपनी चेयर पर बैठे सोचे जा रहे थे.
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पत्नी के निधन के बाद दादू अकेले रह गए. घर पर सब को पैसा कमाने के अलावा किसी के लिए वक़्त न था, तो पेंशन पा रहे दादू के लिए क्या होता. सुबह-शाम वो सैर कर आते. कुछ देर हमउम्र लोगों से गपशप या फोन पर बात कर लेते. थोड़ा पढ़ने का, बागवानी का शौक पूरा कर लेते. कुल मिला कर यही रुटीन रह गया था. फ़ौज में बहुत सक्रिय रहे. सदैव दुश्मनों पर भारी रहे. किन्तु अब एक तो डायबिटीज़ ने उन्हें कमज़ोर कर दिया, दूसरे हार्निया और गालब्लैडर के ऑपरेशन ने… पर वे ज़िंदादिली से रहते. मुस्कुराते हुए कहते, "ऑर्गन्स निकलवा कर वेट कम कर रहा हूं. फिर से हैंडसम बनने के लिए भई और क्या?"
उनका तीस साल पुराना नौकर कलंदर उनकी देखभाल करता. उनको साथ पार्क घुमाने ले जाता, दोस्तों से मिला लाता. उनकी बातें, क़िस्से-कहानियां भी सुनता. उनकी बातों पर हंसता. अधिकतर वही उनके पास रहता. दादू के प्रति घरवालों का रवैय्या देखकर वह मन ही मन दुखी होता, गुस्सा भी होता.
"आते-जाते 'हाय दादू , बाय दादू, हाय पापा, बाय पापा..!' बस कहते जाते वह भी जैसे बड़ा एहसान कर रहे हों." कभी टोक भी दिया करता. पर अपनी-अपनी धुन में थे सब उसकी सुनता कौन.
अजब ही हाल हो गया है. न खाना एक टाइम भी संग, न टीवी संग, न दोस्त संग. सबके अपने-अपने कमरे अपनी-अपनी मस्ती. किसी का किसी से कोई मैच नहीं. अपनी-अपनी ज़िंदगी का राग. भूले-भटके कोई रिश्तेदार गर आ जाए, तो थोड़ी देर बस फ़र्ज़ अदायगी. फिर अपना क़ीमती टाइम थोड़ा ही ख़राब करना है, बस आते हैं… कहकर निकल लिए. बाकी सब सम्भालने के लिए दादू और कलंदर होते. दिल से पूरी मेहमांनवाज़ी करते. मेहमान ख़ुश होकर विदा होते. पर अन्दर कुछ कचोटता रहता. पत्नी व बच्चों के साथ बिताए ख़ुशनुमा सालों को याद करने लगते.
"अरे पिंकी फिर चली दोस्त के फ़ार्म हाउस अभी वहीं से आई थी परसों ही तो… ऐसे कैसे घूमते-फिरते पढ़ाई करती है. एक जगह चैन से बैठ तो सही…" दादू ने जा रही पिंकी से ठिठोली की.
"दादू, शीना भी जा रही है. हम तीनों का ही ग्रुप है. साथ में अच्छी पढ़ाई होती है, मस्ती भी साथ-साथ.. बाय दादू… कलंदर है तो, उसे सुनाओ न अपने पुराने-नए क़िस्से… अपने पेड़-पौधों से बुदबुदाते बातें भी तो कर लेते हो आप. फिर शाम को पार्क हो आना… वैसे भी इस पिचकू-पिचकू घर में मेरा तो दम घुटता है. ओके मैं चली, बाय दादू…"
"रघुनंदन बीज लाया मेरे कि फिर कोई बहाना…"
"वो पापा मैं पियून बंसरी को बोला रखा था. उसे अचानक गांव जाना पड़ा. वह ले आया है… आते ही मुझे दे देगा और मैं ले आऊंगा… बहुत थक जाता हूं… कलंदर अच्छी सी चाय दे जा कमरे में…"
"बस हो ली बेटे से पूरी आज की मीटिंग…"
"पापा दिन अच्छा गया न?.. चाय पी आपने?.. ये आ गए क्या?.. पिंकी को कोई लेने आया था?.. कलंदर किधर है?.. कलंदर… सबके लिए चाय बना मेरी भी कमरे में दे देना…"
सब कुछ पूछते, मुस्कुराते, बिना जवाब के लिए रुके तूफ़ान मेल की तरह दनदनाती पैकेट पर्स थामें शारदा अपने रूम में समा गई. धप्प! दरवाज़ा बंद हो गया था.
"बस हो गई मिजाज़पुर्सी… बहू की भी फ़र्ज़ अदायगी व दुनियादारी. अब आठ बजे दरवाज़ा खुलेगा, "क्या बनाया है?.. क्या बनाया खाने में कलंदर बड़ी भूख लगी है. मैं मदद करती हूं." और टेबल सज जाएगी. खा-पीकर फिर अपने रूम में. बाकी काम समेटने को कलंदर…
"प्रेस के कपड़े आ गये न." शारदा ने कलंदर से पूछने पर कलंदर ने टेबल पर रखे गट्ठर को इशारे से दिखा दिया. अब इन्हें भी आलमारी में सेट करना पड़ेगा… अंत नहीं काम का उफ़्फ़…" वह गट्ठर उठाए अंदर चली ली. तभी उसका मोबाइल बज उठा.
"हैलो…" उसने कपड़े बेड पर रख दिए.
"मम्मा, मैं कल आ रही हूं. चौबीस को वापस लंदन जाने के लिए… हमेशा के लिए…" बड़ी बेटी मोना का फोन था.
"सुन तो मेरी…" फोन तुरन्त ही काट दिया गया था.
"ये लड़की भी मानेगी नहीं. अच्छे-भले दामाद जी है, तलाक़ के लिए जाने क्यों पीछे पड़ी है. पर वो भी तो ज़िद्दी है तलाक़ नहीं देंगे, भले अलग रहे." वह आलमारी में कपड़े रखते हुए झुंझला उठी.
"अरे भई बच्चों को दोनो ही छोड़ना नहीं चाहते, पर आपस में विचार मिलते नहीं तो यही हल है."
"मैं नहीं जानती चौबीस को तुम्ही उसे लेने, फिर लंदन की फ्लाइट पकड़ाने जाओगे… मालूम है न मेरा बहुत बड़ा प्रोग्राम है हफ़्ते भर का… बाहर से भी लोग आ रहे हैं. बिज़ी रहूंगी…"
"तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे मैं फ़्री बैठा हूं. मालूम नहीं मेरी सॉल्यूशन की एक और ब्रांच कालका जी पर भी खुलने जा रही है अगले महीने ही तो… कितना काम है… कितनी भागदौड़… कुछ अंदाज़ा है?"
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"तो ठीक है न, वो मैनेज कर लेगी ओला, उबर है न… वैसे लंदन भी तो अकेले ही जाती है… किसी का मुंह क्या ताकना… जब ठान ही लिया है उसने तो अकेले सब करना ही पड़ेगा."
दादू को वो सारी वार्तालाप अरुचिकर हो रही थी.
'कैसे मां-बाप हैं बच्चे को ढंग की बात सिखाने की बजाय अलग ही अपने जैसे अपनी ख़ुशी में मस्त रहने का संदेश पहुंचा रहे हैं.'
निश्चित तिथि पर मोना आई थी. दादू ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, "बच्चे पति के बग़ैर कौन सी ज़िंदगी जीने जा रही हो?.. बस अपने लिए जीना और अपने ऐशो आराम के लिए भागते-भागते एक दिन मर जाना बस क्या यही है ज़िंदगी..?"
"आप तो जी रहे हैं न अपने तरह की ज़िंदगी तो ख़ुश रहिए न इसी में. मुझे तो आगे बढ़ना है. अच्छी-खा़सी जॉब रविंदर को बाहर भी मिल सकती है पर नहीं, यहीं सरकारी नौकरी करनी है. यहीं सड़ना है उन्हें. बच्चे इतने छोटे भी नहीं पल जाएंगे. मुझे मौक़ा मिल रहा है. दोस्त सपोर्ट कर रहा है, क्यों छोडूं?"
टस से मस न हुई मोना. तय समय पर ओला से एयरपोर्ट निकल ही गई. दादू का मन नहीं माना वह एयरपोर्ट तक उसे समझाते हुए गए थे कलंदर भी साथ था. वे भारी मन से वापस लौट आए. गेट पर ही उन्हें निशा के पिता तेज प्रकाश मिल गए.
"नमस्ते अंकल, मैं आपसे ही मिलने आया था…" उन्होंने ओला से उतरते दादू के चरण छुए थे.
"और कैसे हो तेज प्रकाश बिटिया मानी…!"
"नहीं अंकल, मंगनी टूटने के सदमें से अभी भी उबरी नहीं हैं मिनी। कहीं और शादी को राज़ी नहीं."
"बहुत शर्मिंदगी होती है सैंडी की हरकत पर. लेकिन क्या कहें अपने बेटे-बहू को… उनके बच्चे भी उनके नक्शेकदम पर ही हैं. सबका सपना मनी मनी ही रह गया है. बस पैसे कमाओ कैसे भी जल्दी. विदेशों में कमाई अधिक है.
अभी मोना को छोड़ के आ रहा हूं… वो भी गई लंदन, पति-बच्चों को छोड़कर हमेशा के लिए… तलाक़ की ज़िद कर रही थी, पर दामाद ने दिया नहीं… आओ यहीं बैठते हैं." वह बरामदे में पड़े मोढ़ों की ओर इशारा करते हुए बैठ गए थे.
"ओह ये तो और भी बुरा हुआ. आपको सैंडी की कोई ख़बर है कुछ. सुना है उसकी पत्नी लिज़ा ने उसे छोड़ किसी और से शादी रचा ली. उसका दोस्त रवि मिला था, वही बता रहा था. मैं इसीलिए यहां आया था क्या ख़बर सच्ची है अंकल?"
"हमें तो कुछ नहीं बताया किसी ने. बताएंगे भी किस मुंह से… कितना मना किया था पर सगाई तोड़ कर, पैसों के लालच में अमेरिका भाग गया. अगर ऐसा हुआ है, तो अच्छा ही हुआ. सबक तो मिलना ही चाहिए था सबके दिल को दुखाने का. लिज़ा के दम पर ही उसके अंकल की कंपनी में जॉब पाने का ख़्वाब देख रहा था… वो तो मिलने से रही.
"पूछ कर देखिएगा अंकल अगर अब भी बात बन जाए, तो बिटिया को ज़िंदगी मिल जाएगी."
"पूछूंगा रघुनंदन से ऐसा कुछ हुआ है क्या… पता नहीं ये बच्चे भी क्या करते हैं. उधर जॉय फ्रांस में पढ़ाई कम एंजॉय अधिक कर रहा है. कल स्काइप पर अपना पचास हज़ार का फोन दिखा रहा था, पर उसने भी कुछ नहीं बताया इस बारे में. सैंडी से उसकी अभी बात हुई थी यह तो बताया था उसने. उसे भी नया मोबाइल दिखा दिया… बस पैसे की बात ही करते-सुनते हैं ये सब. बस वही इन्हें जोड़ सकता है. क्या ज़माना आ गया है."
"कुरियर…" आवाज़ आई थी.
"अरे, देखूं तो… कहां से है?" साइन कर लिफ़ाफ़ा लेने के बाद दादू चश्मा ठीक करते हुए फिर मोढे़ पर बैठ गए थे. लिफ़ाफे से निकले पेपर्स पढ़ते हुए उनकी आंखें हैरानी से फैलती चली गई.
"ओह ये तो बरसों से लापता मेरे बड़े भाई का है… वे नहीं रहे. उफ़्फ़ वे मरने से पहले नाइजीरिया की अपनी करोड़ों की संपत्ति मेरे नाम कर गए. उनके एटार्नी के पेपर्स हैं. हमने बहुत पता लगाने की कोशिश की थी कुछ पता नहीं चला था. कोई औलाद नहीं थी. फिर भी भाभी को बेशुमार दौलत चाहिए थी… दिन-रात उन्हें कोसती रहती. पैसों की हर वक़्त की डिमांड, झगड़े के चलते उन्होंने ऐसा सख़्त फ़ैसला ले लिया… हमने तो उनकी कोई सूचना कभी मिलने की आस ही छोड़ ही दी थी. उस वक़्त भाभी को बिना कुछ बताए आज से सत्ताइस साल पहले सब कुछ छोड़कर चले गए थे. भाभी ने हम लोगों से रिश्ता तोड़ दिया… किसी और के साथ शादी कर ली. बड़े भइया क्यों हमें छोड़ गए, कोई काॅन्टैक्ट नंबर भी नहीं दिया था. हमने यही सोचकर तसल्ली कर ली कि शायद हम ही आपके प्यार के काबिल न थे, पर मैं ग़लत था…" वे पेपर पकड़े रो पड़े.
बात घर में सबको पता चली, तो जश्न का माहौल हो गया. सब अपने-अपने फ्यूचर प्लान बताने के लिए उन्हें घेरे रहते. अभी सब के पास उनके लिए समय निकल आता. उनके व्यवहार में उनके प्रति परवाह महसूस होती. सब उनकी सेवा में जुटे रहते. उन्हें ख़ुश रखने की कोशिश में रहते. सैंडी निशा से शादी करने को तैयार हो गया. मोना पति के पास रहने वापस चली आईं. रघुनंदन पिता को क़िस्म-क़िस्म के उनकी पसंद के बीज-पौधे ख़ुद साथ ले जाकर दिलवाता. पिंकी अब ज़्यादातर घर पर रहती. दादू के लिए ख़ुद चाय-कॉफ़ी बना लाती, चेस खेलती और उनकी बातें भी दिलचस्पी से सुनती.
शारदा ससुर जी के खाने का ख़ुद विशेष ध्यान रखती. कलंदर को नमक का गर्म पानी देकर दीनानाथ जी के पैर सेंकने भेज देती. फ्रांस से जॉय भी लौट आया था. उसे तो अब पापा की कंपनी ही ज्वॉइन करनी थी. उसके लिए उसे बस दादू का ही आशीर्वाद चाहिए था.
"देख रहे हैं दादा जी पैसों का खेल. सब लाइन पर आ गए, सबका सपना बस मनी मनी." उनकी बात दोहराकर कलंदर हंसने लगा. "अब तो आप ख़ुश हो दादू. अभी मेरी उतनी ज़रूरत नहीं यहां. सब आपकी देखभाल अच्छे से कर रहे हैं. आपको समय भी दे रहे हैं. बहुत अच्छा लग रहा है… तब तक मैं भी गांव हो आऊं, परिवार से मिल आऊं बहुत दिन हो गए क्यों दादू?" कहकर वह मुस्कुराया, तो दादू भी उस ग़ैर के अपनेपन से मुस्कुरा उठे और अपनो के बारे में सोचने लगे 'कैसा ज़माना आ गया है अपनों का प्यार और परवाह भी आज बस पैसों की बदौलत… कमाल है.'
पिंकी कॉफी लेकर आ गई थी.
"चलिए न दादू फिर चेस की एक-एक बाजी हो जाए. अभी मैं ब्रेक पर हूं. प्रोजेक्ट कर करके बोर हो गई." वह लाड़ लड़ाते हुए दादू से लिपट गई.
"अरे छोड़ छोड़… अब मेरा पसीना तुझे महक नहीं रहा?" उन्होंने प्यार से उसका सिर सहलाया था. इनका प्यार, परवाह सब कुछ भले नकली हो, सबका सपना चाहे मनी मनी हो, पर उनके प्रति मेरे प्यार व लाड़-दुलार का एहसास तो असली है, जिस पर कोई बंदिश नहीं, किसी की नहीं, मेरी भी नहीं… ये भी क्या कम है…
"चल अब बिछा बोर्ड…" कहकर मुस्कुराए थे, पर उनकी आंखों के कोर नम थे. अपनो के साथ में और अपनों की याद में.
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