मुझे ज़िंदगी के रथ पर बिठा दो
और उसके अश्वों को
पवन वेग से दौड़ा दो
उस काल खंड तक
जब
प्यार में खो गए
सब पलों का दर्द
बेमानी हो जाता है
इक नई शुरुआत के आश्वासन पर..
या फिर
इस रथ को
ले चलो अतीत की ओर
उस बिंदु तक
जहां
कुछ ग़लत मोड़ मुड़ आए थे
इक ऐसी राह पर
जिसके आगे
फिर कोई मोड़ नहीं है..
या फिर
घूमते इस काल चक्र से
कहो तो
चुरा लूं वह पल
बस वही एक पल
जब हम साथ जिए थे..
सहेज रखूं उसे ही मन मस्तिष्क में
संबल बन जाए वह
मेरे इस एकाकीपन का...
- उषा वधवा
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