"... मगर उम्र के एक मुकाम पर एक साथी की सख्त ज़रूरत महसूस होती है. तब व्यक्ति बिल्कुल तन्हा होता है और चाहता है कि काश! कोई होता, जिससे वह अपना सुख-दुख बांट सकता, किसी के साथ हंस सकता, किसी के कंधे पर सिर रखकर रो सकता..."
लेबर रूम के बाहर खड़ी में मन-ही-मन ईश्वर को याद कर, मन्नत मांग रही थी कि डिलीवरी ठीक-ठाक हो जाए, मैं नानी बन जाऊं तो प्रसाद चढ़ाऊंगी. पिंकी अंदर दर्द से तड़प रही थी, तभी तेजी से सीढ़ियां उतरते हुए दीपा आई. मुझे देखकर सांत्वना देते हुए बोली, "घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. और सुन, कल सुबह आ जाना, मैं शादी कर रही हूं."
"शादी!" उन परेशानी भरे क्षणों में भी मैंने चौंककर उसकी ओर देखा, लेकिन वह "मैं चलती हूं, ज़रा जल्दी में हूं. कल तो मिल ही रहे हैं." कहते हुए वहां से चली गई.
मेरी बचपन की सखी दीपा इस अस्पताल में नेत्र विशेषज्ञ है. उसने आजन्म कुंआरी रहने का फ़ैसला किया था, फिर अचानक इस उम्र में शादी, जबकि मैं नानी बनने जा रही हूं, मैं हैरान थी.
विभिन्न टीवी चैनल्स पर आजकल टॉक शोज़ की बहार है. कोई भी एक ऊटपटांग सा छोटा-मोटा बहाना मिला नहीं कि उसे मुद्दा बनाकर बहस शुरू और अन्त में उसके परिणाम भी मनमाने ढंग से अपने अनुसार ही तोड़ मरोड़कर निकाले जाते हैं. आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता और फूहड़पन से भी कतई परहेज नहीं रहता.
अभी हफ़्ते भर पहले ही इसी तरह के एक कार्यक्रम, जिसमें विवाह पीड़ित, परित्यक्ता, अविवाहित महिलाओं की स्थिति पर बहस की जा रही थी, इसमें दीपा ने भी भाग लिया था. तब मैंने उसे ठाठ से कहते सुना और देखा था कि वह अपने कुंआरे रहने के निर्णय पर अडिग और ख़ुश है. डॉक्टर है, कमाती है, उसका अपना काम है,
जो उसे सुख-शांति और पैसा देता है. परिवार है, भाई के साथ रहती है, सो अकेलेपन या असुरक्षा जैसी भावना भी नहीं घेरती, ज़िन्दगी को एन्जॉय कर रही है. फिर भला शादी करने की क्या ज़रूरत? अपना जीवन अपनी तरह से जी रही है.
एक बुजुर्ग व्यक्ति, जो उस टॉक शो का हिस्सा थे, उन्होंने विवाह की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए तर्क दिया, "अभी तो नहीं, मगर उम्र के एक मुकाम पर एक साथी की सख्त आवश्यकता महसूस होती है. तब व्यक्ति बिल्कुल तन्हा होता है और चाहता है कि काश! कोई होता, जिससे वह अपना सुख-दुख बांट सकता, किसी के साथ हंस सकता, किसी के कंधे पर सिर रखकर रो सकता, कोई उसके सिर पर हाथ फिराता, उसे दुलारता. ज़रूरत पड़ने पर सेवा-सुश्रुषा करता."
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उनके इस तर्क को बड़े ही हल्केपन और मज़ाक में लेते हुए एंकर ने जवाब दिया, "सेवा-सुश्रुषा? हुंह... जो काम एक नर्स भी कर सकती है, उसके लिए शादी करके पूरा जीवन क्यों बर्बाद किया जाए? आख़िर के दस वर्षों के लिए पूरे पचास-साठ वर्षों का जीवन क्यों बर्बाद करें? बिल्कुल नहीं, दीपा का आजन्म कुंआरी रहने का निर्णय ही सही है."
मेरे साथ 'ये' भी टीवी देख रहे थे, अचानक बुदबुदा उठे, "ये दस वर्ष ही तो पूरे जीवन पर भारी होते हैं. भावनात्मक सुरक्षा की सबसे ज़्यादा आवश्यकता इसी वक़्त तो होती है."
और मैं, जो एन्कर के निर्णय से लगभग सहमत थी, भी चौंक पड़ी जीवन का यह कटु यथार्थ जानकर.
अभी दो दिन पहले ही तो इसी तरह के एक अन्य टॉक शो में एक भूतपूर्व अभिनेत्री, जो अपने ज़माने में नम्बर वन थी, ने आंसू बहाते हुए अपने अकेलेपन का रोना रोया था कि "कोई पढ़े तो कितना? काम करे तो कितना? अकेलापन है कि ख़त्म ही नहीं होता." और वह रो पड़ी थी.
मैं विचारों में पता नहीं कब तक यूं ही खोई रही कि तभी सेंडिलों की खटखटाहट ने मेरा ध्यान भंग किया. नर्स तेजी से मेरी ओर आ रही थी. मुस्कुराते हुए उसने बताया, "मुबारक हो, लड़का हुआ है." मैंने प्रसन्न होकर थैली में से रुपए निकालकर उसकी मुट्ठी में खोंस दिया. उसने कुछ इस तरह होंठ तिरछे किए, जैसे कह रही हो कि बस इतना ही, इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी दी है लड़का होने की.
वैसे मुझे तो कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था. लड़की होती तब भी मैं इतनी ही ख़ुश होती, फिर भी उससे कहा, "अभी इतना ही ले लो, फिर और दे दूंगी. अभी है नहीं. पिंकी तो ठीक है न. सब नॉर्मल हुआ है न?" वह हामी में सिर हिलाकर चली गई.
उस पूरे दिन व्यस्त ही रही. घर से अस्पताल, अस्पताल से घर के कई चक्कर काटने पड़े, घर आकर फोन के साथ उलझी रही कुछ समय. पिंकी के ससुराल और कुंअर साहब को ख़बर की. कुछ और भी शुभचिंतकों को ख़ुशख़बरी दी. कुछ बधाई के टेलिफोन भी आए. बात फैलने में देर ही कितनी लगती है इस सेटेलाइट युग में? देर रात ही सो पाई.
सुबह भी जल्दी उठकर खाने-पीने का और दूसरा सामान अस्पताल भेजकर घर का सारा काम निपटाया. फिर जैसे ही फ़ुर्सत मिली, दीपा की याद आई. आज तो उसकी शादी है. वही दीपा शादी कर रही है, जो हमेशा शादी का मज़ाक उड़ाती आई है. बहरहाल, जाना तो है ही, मैं ही नहीं जाऊंगी तो कैसे होगा सब? मन-ही-मन मैने सोचा और तैयार होने लगी.
टैक्सी लेकर दीपा के घर पहुंची, वहां से पता चला कि सब आर्य समाज मंदिर गए हैं, वहीं हो रही है शादी. मैंने भी टैक्सी ड्राइवर को वहीं चलने का आदेश दिया.
वहां कार्यक्रम शुरू हो चुका था. दीपा विवाह के मंडप में बैठी हुई थी. साधारण से कपड़ों में. कार्यक्रम भी साधारण ही था. बहुत ही चुनिंदा व्यक्ति आमंत्रित थे. थोड़े से नमकीन के साथ स्वल्पाहार की व्यवस्था भी की गई थी.
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विवाह संपन्न हुआ. मैने उसे बधाई दी. फिर हम दीपा के पतिदेव की कार में उन्हीं के घर आ गए. घर आकर उसके नवविवाहित पतिदेव, जो प्रशासकीय पुलिस अधिकारी थे. शहर में एक स्थान पर दंगा-फसाद की ख़बर पाकर उधर के लिए तुरंत रवाना हो गए.
अब मुझे मौक़ा मिला दीपा को घेरने का. "अभी उस दिन तो बड़ी-बड़ी बातें बना रही थी मैडम टीवी पर, अचानक क्या हो गया?"
"क्यों कुछ ग़लत किया क्या मैंने? तू ही तो सीख दिया करती थी हमेशा से. सो मैंने सोचा अमल कर ही लिया जाए." उसने भी इठलाते हुए जवाब दिया.
"नहीं, वह तो ठीक है, मगर तुझे यह बोधिसत्व कहां और कैसे प्राप्त हुआ?" मैंने उसके पलंग पर पसरते हुए पूछा. थकी हुई तो थी ही मैं. रात नींद जो पूरी नहीं हुई थी.
अब दीपा भी थोड़ी गंभीर हुई और वहीं पलंग के कोने पर बैठकर बाल खोलते हुए बोली, "जिस तरह मुझे अपनी ज़िंदगी ख़ुद जीने का अधिकार है. उसी तरह अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीने का प्रत्येक को अधिकार है. मैं तो अपनी ज़िंदगी अपनी तरह जी रही थी, मगर... तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं दूसरों के जीवन में बाधक हो रही हूं. फिर जीवन के सहन प्रवाह को रोककर उसे उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयास में अपनी शक्ति जाया करने की बजाय मैने उसी प्रवाह के साथ बह जाना ही उचित समझा."
"किसकी जीवनशैली की बाधा बन रही थी तू?"
"तू तो जानती है, मैं यहां भैया-भाभी के साथ रहती हूं. पिछले महीने भाभी के मायके से काफ़ी सारे मेहमान आए हुए थे, उनकी मां-बहनें वगैरह. घर भरा-भरा सा था, इसलिए मैंने भी सोचा कि दो-चार दिन की छुट्टी लेकर गांव चली जाऊं मां से मिलने, तब तक ये मेहमान भी चले जाएंगे और भाभी भी पूरा वक़्त गुज़ार सकेंगी उनके साथ. मुझे लगा मेरी उपस्थिति में शायद वे लोग खुलकर बात नहीं कर पाते थे. भैया-भाभी के लिए चाहे मैं अपनी हूं, पर उनके लिए तो मैं परायी ही थी. सो मैंने एक बैग में थोड़ा-सा सामान डाला और चल पड़ी बस स्टैंड. काफ़ी देर खड़ी रही, पर कोई बस आई ही नहीं. फिर जब बारिश भी होने लगी तो मैं गांव जाने का इरादा त्याग कर वापस घर आ गई. घर के नज़दीक पहुंची तो लगा कि महफ़िल जमी हुई है भाभी और उनकी मां-बहनों की. जोर-जोर से बातें करने की आवाज़ दूर से ही आ रही थी. सीढ़ियों पर आने के बाद तो सब कुछ बिल्कुल स्पष्ट सुनाई दे रहा था. अनायास मेरे पांव ठिठक गए सीढ़ियों पर ही जब उनकी बातों में मुझे अपना ज़िक्र सुनाई दिया.
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ये मेरी भाभी की बहन की आवाज़ थी, "दीदी, तेरे तो ठाठ हैं, जीजाजी भी कमाते हैं और तेरी ननद भी कमा कमाकर घर भरे जा रही है."
"कहां ले जाएगी, कोई आगे है न पीछे, सब तुझे ही मिलनेवाला है." भाभी की मां बोली.
"हां मैंने देखा है, बच्चों को भी संभाल लेती है. उनका होमवर्क वगैरह भी करवा देती है. तेरे तो मज़े हैं, वरना हमें तो बड़ी माथापच्ची करनी पड़ती है बच्चों के साथ. पहले ख़ुद पढ़ो, फिर बच्चों को पढ़ाओ." ये भाभी की बड़ी बहन की आवाज़ थी.
अब भाभी का गंभीर विषादपूर्ण स्वर सुनाई दिया, "पैसों की हमें कौन सी कमी है, जो ननद जी की कमाई पर नज़र रखें और बच्चों के लिए ट्यूटर भी रख सकते हैं. सबसे बड़ी बात है स्वतंत्रता, वह तो नहीं मिलती न. हमेशा उनका ख़्याल रखना पड़ता है. एक तो ननद, वह भी बड़ी, उस पर अविवाहिता, थोडा लिहाज़ तो रखना ही पड़ता है घर में भी और बाहर भी. 'ये' मेरे लिए कुछ उपहार भी लाते हैं तो उनके लिए भी लाना पड़ता है. सो मुझे उन उपहारों को देखकर कोफ्त ही होती है, ख़ुशी नहीं. सोचती हूं, इससे तो न लाएं वही अच्छा!"

वे कहती हैं, मैं अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीना चाहती हूं, अपनी तरह से बंधनमुक्त और इधर हमारा जीना मुश्किल कर रखा है. यह नहीं सोचती कि हम भी तो अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीना चाहते हैं. हमारा तो पूरा समय उनकी फ़िक्र-चिंता करके ही बीतता है. ज़रा देर हो जाए तो लगता है, अरे अभी तक आई नहीं, क्या बात है? दुख-बीमारी में उनका ख़ास ख़्याल रखना पड़ता है, ताकि उन्हें अकेलापन महसूस न हो. तुम्हारे जीजाजी भी नौकरी में बड़े व्यस्त रहते हैं, मुश्किल से थोड़ा बहुत समय निकाल पाते हैं मेरे और बच्चों के लिए, तो उसका भी काफ़ी बड़ा हिस्सा ये हड़प कर जाती है. अब घर में आएंगे तो कुछ देर तो उनके पास भी बैठेंगे ही, चाहे औपचारिकतावश ही सही- दीदी कैसी हो, क्या चाहिए वगैरह बातें होंगी. फिर कहीं घूमने जाओ, सिनेमा या बाज़ार, तो उन्हें भी साथ लेना पड़ता है. छोड़ भी तो नहीं सकते अकेले. और उनके साथ होने से कुछ भी एन्जॉय नहीं कर पाते. मेरी अपनी कोई अहमियत ही नहीं है. मगर क्या करें? निभाना तो है ही, सो निभा रहे हैं."
भाभी ने गहरी सांस ली, कुछ देर चुप रही, फिर बोली, "शादी कर लेती तो आप भी सुखी होती अपने घर-परिवार में और हम भी यहां सुख से रहते. अपना जीवन जीते बंधनमुक्त. मैं जैसे चाहती, अपने बच्चों को रखती. अपने संस्कार देती. बच्चे भी बुआ से ही चिपटे रहते हैं, मेरे पास फटकते भी नहीं. क्या करूं? कुछ कहती नहीं हूं, कहीं उन्हें बुरा न लग जाए. मगर इधर मुझे एहसास हो रहा है कि मैं बहुत तन्हा व पति और बच्चों से दूर होती जा रही हूं, सिर्फ़ ननद जी के कारण, सभी को उनकी ही फ़िक्र रहती है. उन्हीं से सहानुभूति है सबको, मुझसे नहीं. पर क्या करूं? सहे जा रही हूं बस."
दीपा ने गोद से तकिया उठाकर पलंग पर रखा और उस पर अधलेटी होकर बोली, "यह सब सुनकर पहले तो मैं सन्न ही रह गई. मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि भाभी को भी मेरे कारण कभी कोई परेशानी हो सकती है. मैंने कल्पना ही नहीं की थी इसकी. मैं अपना जीवन जीने में इतनी व्यस्त थी कि मुझे पता ही नहीं चला कि अनजाने में ही सही, मैं किसी के जीवन में हस्तक्षेप कर रही हूं. उनके जीवन प्रवाह में बाधक बन रही हूं. खैर, उस समय तो मैंने स्वयं को संयत कर लिया और इस तरह मुस्कुराते हुए घर में आ गईं धड़धड़ाकर, जैसे कुछ सुना ही न हो. पहले तो सब एकदम सकपका गए, फिर मेरी सरल मुस्कान देखकर सहज हो गए. बातों का रुख दूसरी ओर मुड़ गया. भाभी उठकर चाय बनाने चली गई.
मगर इसके बाद मैं इस विषय पर गंभीरता से सोचने लगी. तभी श्री सिन्हा से मुलाक़ात हुई. आंखों का इलाज कराने मेरे पास आए थे. विधुर थे, दो बच्चों के पिता, मेल-जोल बढ़ा, मित्रता हुई. मित्रता प्रगाढ़ हुई और हमने विवाह का फ़ैसला कर लिया."
दीपा ने अपनी बात ख़त्म की ही थी कि तभी पुलिस कमिश्नर साहब की गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया. वे लौट आए थे शायद, मैं तुरंत उठ बैठी. दीपा से कहा, "अच्छा चलती हूं. अब तुम्हें और ज़्यादा बोर नहीं कर सकती आज, वरना पुलिस..." वाक्य मैने जान-बूझकर अधूरा छोड़ दिया और हम दोनों ही खिलखिलाकर हंस पड़े.
हाथ पकड़े दीपा मुझे गेट तक छोड़ने आई. मैंने उसका हाथ दबाते हुए विदा ली, "अच्छा चलूं? लम्बे सुखमय विवाहित जीवन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं, देर आए दुरुस्त आए."
मैं चली जा रही थी तेज क़दमों से टैक्सी स्टैण्ड की ओर. शाम हो चली थी. अस्पताल की ख़बर भी लेनी थी.
- चेतना भाटी

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