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रँगा अम्बर नील वर्ण में
सूरज ने छिटका
अबीर गुलाल
हरसिंगार से झरा रँग नारंगी
झूम उठी महुए की डाल
सखियाँ करें हँसी-ठिठोली
गाल गोरी के हुए लाल
वासन्ती हवा के झोंकों में
बौर आम का महक गया
धीमे से कान्हा मुस्काए हैं
बज उठी बाँसुरी की तान
मन में जाग रही है अब तो
कान्हा से मिलन की आस
आया री सखी आया
बैरी फागुन मास…
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कोई नगर का वासी हुआ
कोई महानगर में बस कर
भाग्य पर इठलाया
कोई जन्मभूमि छोड़
विदेश जा बसा
जिसे जहाँ भाया
वो वहीं बस गया
मुझे तो कान्हा
तुम्हारे प्रेम बिन
कभी कुछ न सुझा
मैं तो धन्य हूँ
तेरे हृदय की
निवासी होकर
और तुम भी कन्हैया
सदा मेरे मन के
निवासी होकर रहना…
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ध्यान की नदी में
जब डूबी हुई थी
तब समय की लहरों ने
ईश्वर के हाथ से झरे
कुछ अक्षर उठाकर
मेरी अँजुरी में भर दिए थे
और एक प्रेम धुन
हो गई थी आर-पार
हृदय के
अब मैं उन अक्षरों से
बना रही हूँ
प्रेम गीत का सेतु
अपने दिल से
तेरे मन के रास्ते पर
की किसी दिन पहुँच सकूँ
तुझ तक कान्हा…
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