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कहानी- गंवार (Short Story- Ganwaar)

"इतनी बड़ी तो कोई बात नहीं हुई पापा, जो आप मुझे गांव भेज दो… है ही क्या वहां! मिट्टी, गंदगी और गंवार लोग.""राघवऽऽ… अब अगर तुमने ज़ुबान से एक भी शब्द गांव और वहां रहनेवालों के लिए निकाला, तो अच्छा नहीं होगा." अब तक शांति से बात करते नवीन ने ग़ुस्से से तिलमिलाते हुए कहा.

"राघव याद है ना, कल तुम्हारे दादू गांव से आ रहें है और अब वो हमारे साथ ही रहेंगे."
"हम्म!" अपने मोबाइल में नज़रें गढ़ाएं हुए ही राघव ने जवाब दिया.
"तुम्हें उनके साथ रुम शेयर करना है… जगह बना लो!"
"व्हाट? देखो मम्मा, पहले ही बोल रहा हूं… मैं दादू के साथ रुम शेयर नहीं रह सकता. व्हाट अबाउट माय प्राइवेसी?"
नवीन और चारु ने एक-दूसरे की तरफ देखा. राघव को पूरी उम्मीद थी कि पापा ना सही मम्मा तो उसका पक्ष लेंगी.
"ठीक है, तो तुम हाॅल में सो जाया करना. वैसे भी पापा पहले की तरह  कुछ दिन के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए आ रहे हैं."
चारु की बात सुन राघव को ग़ुस्सा तो बहुत तेज आया, लेकिन जानता था कि उसकी एक नहीं चलनेवाली, बस पैर पटकता हुआ वहां से चला गया.
नवीन अपने माता-पिता की इकलौती संतान है. नवीन के पिता कैलाश, मेहनतकश किसान थे, जिन्होंने जी तोड़ मेहनत करके नवीन को पढ़ाया. कैलाश अपने बचपन में पढ़ाई में होशियार थे और आगे पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालातों के चलते ज़्यादा नहीं पढ़ सके.
उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था, अपने बेटे नवीन को उच्च शिक्षित बनाना. नवीन ने भी अपने पिता का सपना साकार करने के लिए पूरी मेहनत की और उसी का नतीजा है कि आज नवीन मुंबई में मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर है. नवीन की शादी कैलाश ने अपने दूर के रिश्तेदार की पढ़ी-लिखी बेटी चारु से की. चारु, एक ऐसी लड़की, जिसमें आधुनिकता और संस्कार दोनों का समावेश है.

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नवीन के माता-पिता अब तक गांव में ही रहते थे. नवीन और चारु ने बहुत बार कहा मुंबई आने, पर वे दोनों नहीं मानते थे. कहते, "हमारा मन गांव में ही लगता है."
नवीन साल में एक-दो बार गांव जाता. वे लोग भी मुंबई जाते तो थे, पर ज़्यादा समय नहीं रुकते.
नवीन ने अपने माता-पिता के लिए गांव में हर सुविधा का इंतज़ाम कर दिया था. कोई दिन नहीं जाता, जब वो और चारु वीडियो कॉल पर उनसे बात ना करते हों. एक बेटे के जो फ़र्ज़ होते हैं, उन्हें नवीन बख़ूबी निभा रहा था.
पिछले महीने नवीन की मां रात को जो सोई, तो फिर सुबह उठी ही नहीं. नवीन-चारु पहली फ्लाइट से गांव पहुंचे. पत्थर बने  कैलाश बेटे का स्नेहिल स्पर्श पा फूट-फूट कर रो पड़े. पिता को छोटे बच्चे की तरह अपनी बांहों में भर नवीन ने कलेजे से लगा लिया. एक उम्र में इंसान ख़ुद को कमज़ोर महसूस करने लगता है, अगर संतान लायक हो तो बुढ़ापे की लाठी बन सहारा देती है, नहीं तो उम्र का ये पड़ाव काटना मुश्किल हो जाता है.
"नवीन तेरी मां चली गई." कंपकंपाती आवाज़ में इतना  बोल अपनी पत्नी के पार्थिव शरीर की ओर देखने लगे. गहरे सदमे में थे. यूं तो जीवनसाथी का किसी भी उम्र में जाना कष्टकारी होता है, लेकिन बीतते वक़्त के साथ लगाव गहरा.. बहुत गहरा होता जाता है, शायद इसलिए साथी से अलग होने की पीड़ा भी असहनीय होती है.
बेटे का स्पर्श पिता को समझाने के लिए पर्याप्त था कि नवीन सब संभाल लेगा.
तेरहवीं के बाद जब सभी मेहमान विदा हो गए, तब चारु ने अपने ससुर कैलाशजी को समझाया, "पापा, अब तक तो आप दोनों थे, इसलिए हम निश्चिंत थे, लेकिन अब!.. आप अकेले यहां कैसे रहेंगे?"
कैलाशजी कुर्सी पर ख़ामोश बैठे रहे. चारु ने उनके सामने घुटनों पर बैठ, धीरे से उनके झुर्रीदार हाथ थाम लिए. एक अनकहा वादा, एक अबोला आश्वासन!
 "मैंने सब इंतजाम कर दिया है. आप हमारे साथ चल रहे हैं." नवीन ने निर्णय सुनाते हुए कहा और चारु ने उनके हाथों को और मज़बूती से थाम लिया.
कैलाश अब भी सिर झुकाए बैठे थे. विचारों का मंथन चल रहा था… सालों से जिस जीवनसंगिनी पर निर्भर थे उसका अचानक चले जाना.. ख़ुद की तबीयत का ठीक नहीं रहना.. नई जगह में सामंजस्य का डर! अपने गांव को छोड़ने की पीड़ा और उस सब से परे बच्चों की परवाह और प्यार! कुछ समझ नहीं आ रहा था. थोड़ी देर कुछ सोचते रहे, फिर चारु के सिर पर हाथ रख कर बोले, "ठीक है, लेकिन अभी तुम दोनों जाओ, मैं अगले महीनें आ जाऊंगा… बहुत काम हैं यहां, ज़मीन ठेके पर देनी होगी और भी बहुत कुछ समेटना होगा."
नवीन-चारु वापस आ गए. वे पिता की मनोदशा समझते थे, लेकिन सत्रह साल का राघव नहीं समझता था. नवीन ने कुछ साल पहले टू बीएचके फ्लैट ख़रीदा था. मुंबई जैसे शहर में इतना बड़ा फ्लैट भी ख़ासा महंगा पड़ता है. फ्लैट बहुत बड़ा नहीं था, इसलिए राघव से दादू के साथ रुम शेयर करने के लिए कहा गया था.
राघव को लग रहा था कि दादू के आने से उसकी प्राइवेसी में खलल पड़ेगा. ऐसा नहीं था कि राघव को अपने दादाजी से लगाव नहीं था. इससे पहले जब भी वो गांव जाता या कैलाश मुंबई आते, तो दोनों की आपस में ख़ूब बनती थी‌. लेकिन अब मामला कुछ और ही था. दादू मेहमान नहीं परमानेंट मेंबर के तौर पर घर में रहनेवाले थे, ऊपर से टीनएज राघव का मन समझौते के लिए तैयार न था.
अगले दिन कैलाश आ तो गए, लेकिन उनके मन में अब भी एक संकोच था कि अब मुझे 'बच्चों के घर' में रहना है. चारु ने उनका सामान राघव के कमरें में लगा दिया. राघव मन ही मन दादू के आने से नाख़ुश था, मगर मम्मी-पापा के सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं कर सकता था. जानता था कि नवीन अपने पिता को कितना प्यार करता है.
कैलाशजी ने नई जीवनशैली से दोस्ती करनी शुरू कर दी. इस उम्र में बदलाव को स्वीकार करना आसान नहीं होता, लेकिन वो कोशिश कर रहे थे. इतने बरसों की अपनी बोलचाल और आदतों को पूरी तरह नहीं बदला जा सकता था, ये बात नवीन और चारु तो समझते थे, लेकिन राघव के हिसाब से दादाजी उनकी सोसायटी में अनफिट थे.
चारु कैलाशजी का पूरा ध्यान रखती… समय पर परहेज़ का खाना, दवाई, शाम को अपने साथ ही घुमाने सोसायटी के पार्क में ले जाती. जहां कैलाश की कुछ हमउम्र लोगों से दोस्ती होने लग. वो सुबह को अपने इन दोस्तों के साथ योगा करते और शाम को सैर के बाद कुछ वक़्त मंदिर में बिताते. शुरू-शुरू में उन्हें लिफ्ट में अकेले जाते घबराहट होती थी, चारु ने उन्हें अच्छी तरह समझाया और अकेले जाने के लिए मोटिवेट किया.
"पापा, आप जाइए मैं यहीं लिफ्ट के बाहर खड़ी हूं, कोई परेशानी आने पर आप मुझे कॉल कर देना."
कैलाश, पहली बार स्कूल जाते बच्चे की तरह घबरा रहे थे. जैसे ही लिफ्ट से बाहर निकले सामने नवीन खड़ा था.
कैलाश के चेहरे की ख़ुशी और आत्मविश्वास देख गले लग गया.
"पापा आज तो आप के लिए हलवा बनना लाज़मी है."
"सच्ची! तू मुझे हलवा खाने देगा?"
"बिल्कुल पापा, लेकिन ज़्यादा नहीं."
कैलाश अब संतुष्ट थे. उनके मन का संशय लगभग ख़त्म हो गया था. राघव के व्यवहार को अच्छी तरह समझते थे, बस उसका बचपना मान अनदेखा कर देते. राघव हर वक़्त चिड़चिड़ाता रहता, वो अपने दादाजी को घर में स्वीकार नहीं कर पा रहा था या शायद करना नहीं चाहता था.
उस दिन संडे था. नवीन और चारु को किसी के यहां लंच पर जाना था. जाने से पहले चारु ने कैलाश और राघव दोनों के लिए खाना बना कर रख दिया था.
"राघव हम लंच के लिए जा रहे हैं. तुम्हारा और दादू का खाना मैंने बना दिया है. दादू दो बजे खाना खाते हैं. माइक्रोवेव में गर्म करके उन्हें खाना खिला देना. दवाई लेनी होती है पापा को." 
"ठीक है मम्मा."
राघव ने लापरवाही से जवाब दिया और मोबाइल में व्यस्त हो गया.
कैलाश गीता का पाठ कर रहे थे और राघव अपने दोस्तों के साथ ऑनलाइन गेम खेल रहा था. आज बिना किसी रोक-टोक के खेलते हुए उसे वक़्त का होश ही नहीं था. दो बजे के क़रीब कैलाश को भूख लगी. उठकर देखा, तो राघव हेडफोन लगाए मोबाइल में बिज़ी था… इतना बिज़ी की उसे दादू की आवाज़ तक सुनाई नहीं दी.
कैलाश वापस अपने बिस्तर पर जा लेटे. भूख लग रही थी साथ ही समय पर दवा भी लेनी थी. मन में आया कि ख़ुद ही खाना लगा ले, लेकिन उन्होंने कभी माइक्रोवेव में खाना गर्म नहीं किया था, इसलिए हिचक रहे थे.
साढ़े तीन बज गए और राघव अब भी मोबाइल में लगा हुआ था. अब भूख बर्दाश्त से बाहर थी. कैलाश उठकर रसोई में गए. कांच के एक बाउल में दाल थी, दूसरे में गोभी-मटर की सब्ज़ी. सोचा सिर्फ़ दाल से रोटी खा लेता हूं. गर्म करने के लिए तो सोचा ही नहीं. कटोरी में दाल पलटने लगे, ना जाने कैसे कांच का बाउल नीचे गिर कर ज़ोरदार आवाज़ के साथ टूट गया और सारी दाल ज़मीन पर गिर गई.
राघव दौड़ कर रसोई में आया और वहां का हाल देख ग़ुस्से से चिल्लाने लगा, "ये क्या कर दिया! कुछ करना नहीं आता क्या आपको!.. जब से आए हो जीना मुश्किल कर रखा है… ना कोई प्राइवेसी छोडी़ है, ना सुख चैन. गंवार कहीं के!"
कैलाश अपराधी से खड़े थे. दाल गिरने से वो घबरा गए थे, ऊपर से राघव का चिल्लाना… निरीह पशु की तरह ख़ामोश खड़े गिरी हुई दाल को देखते हुए मन ही मन ख़ुद को कोस रहे थे.
उधर राघव की इतने दिनों से मन में पल रही फ्रस्ट्रेशन बाहर निकल गई थी. उसके चेहरे पर अपने इस व्यवहार के लिए ज़रा शिकन नहीं थी, जैसे ही पीछे पलटा… सामने नवीन और चारु को खडा़ पाया. एक पल को घबरा गया.
चारु राघव को धकेल रसोई मे घुसी, "पापा, आपको लगी तो नहीं ना?.. आइए, आप अंदर बैठिए… मैं आपका खाना लाती हूं!"
 "वो बेटा… चारू… सारी दाल तो… मुझसे…"
घबराए और अपमानित कैलाश ठीक से अपनी बात कह भी नहीं पा रहे थे.

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"कोई बात नहीं पापा, सब्ज़ी रखी है… मैं उसे गर्म करके आपके लिए खाना लाती हूं."
चारु ने खाना लगा कर पहले कैलाश को खाना दिया और उसके बाद रसोई समेटी.
नवीन बिल्कुल ख़ामोश था और चारु ने भी राघव को कुछ नहीं कहा, इसलिए राघव को लग रहा था कि बात ख़त्म हो चुकी.
घर में अजीब सी ख़ामोशी पसरी हुई थी. हर किसी के मन में अलग-अलग  विचार चल रहे थे. रात को डाइनिंग टेबल पर जब सब इकट्ठे हुए… कैलाश बुझे हुए, आहत थे. नवीन भावशून्य दिख रहे थे और चारु, कैलाश को नॉर्मल फील करवाने की पूरी कोशिश कर रही थी. वहीं राघव के हिसाब से कुछ हुआ ही नहीं था.
कुछ देर बाद नवीन बोला, "राघव तुम कल गांव जा रहे हो! तुम्हारे स्कूल एक महीने बाद खुलेंगे, तब तक तुम गांव में रहोगे और खेत में काम करोगे. मेरी ठेकेदार से बात हो गई है, वो तुम्हें खेत में काम करने के लिए एक महीने के पैसे भी देगा."
 "गांव… क्यों? अब वहां क्या है, दादू भी यहीं आ गए हैं."
"तुम गांव जा रहे हो, क्योंकि जो इंसान मेरे पिता का सम्मान नहीं कर सकता, उसके लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं है. अब तुम मेरे घर में नहीं रह सकते! तुमने पापा को सही टाइम पर खाना नहीं दिया और ऊपर से उनसे दाल गिरने पर शोर मचा रहे थे मानो उन्होंने कितनी बड़ी ग़लती कर दी!"
"इतनी बड़ी तो कोई बात नहीं हुई पापा, जो आप मुझे गांव भेज दो… है ही क्या वहां! मिट्टी, गंदगी और गंवार लोग."
"राघवऽऽ… अब अगर तुमने ज़ुबान से एक भी शब्द गांव और वहां रहनेवालों के लिए निकाला, तो अच्छा नहीं होगा." अब तक शांति से बात करते नवीन ने ग़ुस्से से तिलमिलाते हुए कहा.
"जिस आदमी को आज तुमने अपमानित किया है, वो मेरे पिता हैं! जिन्हें तुम गंवार बता रहे थे उन्हीं की बदौलत आज यहां डाइनिंग टेबल पर बैठ एसी की ठंडक में, पेट भर खाना खा पा रहे हो ! तुम्हारे महंगे स्कूल की फीस जा रही है, तुम्हारे शौक पूरे हो रहे हैं."
"बस कर नवीन, बच्चा है वो! हो गई गलती… जाने दे बेटा."
"जाने दूं! नहीं पापा, अब इतना छोटा नहीं रहा ये… रही बात ग़लती की, तो इसे अपनी ग़लती लग ही कहां रही है! इसके हिसाब से इसने कुछ ग़लत नहीं किया. परिवार के सबसे बड़े सदस्य पर चिल्ला कर… मेरे पापा से ऊंची आवाज़ में बात करके, उन्हें गंवार कह कर भी इसने कोई ग़लती नहीं की है!
राघव जिन्हें तुमने आज गंवार कहा है ना, उनके पैरों की धूल भी नहीं हो तुम। मैंने देखा है अपने पापा को मेहनत करते, एक-एक पैसा जोड़ मुझे पढ़ाते हुए. कोल्हू के बैल की तरह लगे रहते थे पापा… सिर्फ़ एक ही धुन थी कि मेरा बेटा पढ़ ले और आज वही बेटा अपने पिता का अपमान बर्दाश्त कर लेगा, ये तुमने सोच भी कैसे लिया!"
चारु बिल्कुल ख़ामोश बैठी थी. उसके हावभाव से साफ़ पता चल रहा था कि वो नवीन से सहमत हैं, शायद ये फ़ैसला दोनों ने मिलकर ही लिया था.

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"ये घर मैने बनाया है, लेकिन इसकी नींव का पत्थर मेरे पापा हैं राघव. उम्र के इस पड़ाव पर ही संतान की ज़रुरत होती है. आज तुम उनसे ऊंची आवाज़ में बात कर रहे हो, तो कल हमें घर से ही निकाल दोगे!.. खाना खा कर पैकिंग कर लेना. मैंने ट्रेन के टिकट करवा दिए हैं."

- संयुक्ता त्यागी

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Photo Courtesy: Freepik

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