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कहानी- वर्चुअल वर्ल्ड (Short Story- Virtual World)

मीनू त्रिपाठी

सोशल नेटवर्किंग के ज़रिए हम कितने पुराने लोगों से जुड़े, लेकिन जुड़ने के बाद हमें वो ख़ुशी हासिल नहीं हुई, जिसकी यादें हमारे मन में बसी थी. ऐसे में लगता है, ना मिलते तो ठीक रहता… लोगों की उदासीनता ओढ़ने से अच्छा है, उन्हें पुरानी सोंधी यादों में ही रहने दिया जाए. कितने पुराने लोगों से ऑनलाइन जुड़े पर रोज़ उनको सामने देखने के बाद भी वो जुड़ाव महसूस नहीं होता है, जो हम एक-दूसरे से यादों और ख़्यालों में जुड़कर महसूस करते थे. कुछ दिनों तक संपर्क में रहने के बाद संपर्क टूटता-सा लगता है."


"पापा आपको शिकायत किससे है? इस लैपटॉप से या मुझसे."
"ना मुझे तुमसे शिकायत है और ना ही तुम्हारे लैपटॉप से… बस चिंता है… इस तरह समय बर्बाद करना ठीक नहीं है. इसे छोड़ोगे तो अपने मोबाइल में बिज़ी हो जाओगे. कुछ बाहर की दुनिया से भी सरोकार रखना है या फिर इसी में अपनी दुनिया ढूंढ़नी है… दिनभर स्क्रीन ताकने से अच्छा है किसी दोस्त से मिल कर आ जाओ. एक- दूसरे की सुनोगे, तो जीवन के रास्ते नज़र आएंगे, कुछ नया जानोगे, समझोगे.."
"पापा, इससे ज़्यादा कोई हमें अपडेट रख सकता है क्या… रही चैटिंग की बात, तो मैं टाइमपास नहीं कर रहा हूं. इस स्क्रीन की बदौलत जर्मनी में बैठे अपने दोस्त अनिकेत से पता चल रहा है कि वहां जॉब ऑप्शन कैसे हैं. लेकिन आपको तो बस बुराई ही नज़र आती है. इसकी बदौलत ही हम बिना घंटों की लाइन में लगे, बिल जमा करने और टिकट लेने जैसे कामों को घर बैठे चुटकियों में निपटाते हैं और समय को बचाते हैं."
"हां, वो समय तुम सब इसीलिए बचाते हो, ताकि मैसेज और सोशल नेटवर्किंग में समय बरबाद कर सको." अपने मोबाइल पर मैसेज करते माया की थिरकती उंगलियां सहसा रुकी सिर उठाकर देखा, तो अतुल ग़ुस्से में ख़डे मां-बेटे को घूर रहे थे.
सब… शब्द पर माया का ध्यान गया… ओह! सब में वो ख़ुद भी है… तो आज लक्ष्य के साथ उसे भी ताना मारा जा रहा है.
"क्या हुआ अतुल? आज इतना क्यों इरीटेड हो रहे हैं. ऑनलाइन सोशल अकाउंट पर एक-दूसरे से कनेक्ट होनेवाली ये जेनरेशन वास्तविक दुनिया और ज़रूरी रिश्तों से दूर हो रही है. ये चिंता की बात नहीं होनी चाहिए…" अतुल की बात पर माया सहसा बोली. "लक्ष्य' मुझे भी तुम्हारा दिनभर लैपटॉप और मोबाइल पर झुके रहना अच्छा नहीं लगता है." मौक़े की नज़ाकत को समझकर उसने लक्ष्य को डांटना ठीक समझा. अतुल अपने प्रेसेंटेशन में व्यस्त थे ऐसे में वो अतुल का मूड ख़राब नहीं करना चाह रही थी. आज छुट्टी के दिन पूरा ऑफिस घर पर ही खुल गया. प्रेसेंटेशन के चक्कर में ना खाने की सुध थी ना सोने की… ऊपर से लक्ष्य को देख करके चिढ़ जाते हैं. उनका मानना है कि लक्ष्य हमेशा अपने मोबाइल या लैपटॉप
में आंखें गड़ाए बैठा रहता है. हालांकि माया जानती है कि लक्ष्य अक्सर ई-बुक डाउनलोड करके पढ़ता रहता, लेकिन अतुल को लगता है कि वो उसमें गेम, चैट या मूवी देखकर अपनी आंखों और दिमाग़ पर बेवजह का ज़ोर डाल रहा है. और कहीं सोशल नेट्वर्किंग साइट पर बैठे देख लिया, तब तो वर्चुअल वर्ल्ड को लेकर एक नया
बखेड़ा शुरू हो जाता है- "लोगों से जुड़ने के लिए क्या अब एक यही साधन रह गया है…" अतुल जब भी ये बात कहते हैं घर में विवाद हो जाता है.
लक्ष्य और माया का मानना है कि लोगों को जोड़ने में इसने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, जबकि अतुल का मानना है कि इसने एक ऐसी अभासी दुनिया निर्मित की है, जिसमें लोग एक-दूसरे से जुड़े होने का भ्रम पाले असलियत से दूर वर्चुअल वर्ल्ड में चले जाते हैं. उस दुनिया में भीड़ के बीच भी इंसान अकेला है. माया ने एक बार फिर अतुल की ओर देखा…
"आज के ज़माने में कोई कंप्यूटर में सिर्फ़ काम ही करे ऐसा प्रण कैसे ले सकता है."

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अतुल अब भी फाइलों में डूबे हुए थे. आदततन माया ने धीरे से लैपटॉप लॉग ऑन किया मेल चेक की, थोड़ी-सी ऑनलाइन शॉपिंग साइट चेक की… लुभावने प्रस्ताव थे पर महीने की शुरुआत में ही ढेर सारा सामान ऑनलाइन से मंगा कर बजट बिगाड़ लिया था.
सो चुपचाप मन मारकर अपनी मचलती इच्छाओं पर किसी तरह काबू किया. अतुल जान जाते, तो उनका पहला प्रश्न होता, "क्या इसकी ज़रूरत है..?" अब अतुल को कौन समझाए कि हर ख़रीददारी के पीछे ज़रूरत नहीं होती है. मन में कुलबुलाती इच्छाएं
भी होती हैं. जो ऑनलाइन ऑर्डर के साथ ही शांत होती हैं. अतुल ने तो उसकी इस आदत को देखकर एक तरीक़ा भी सुझाया था कि जब भी किसी चीज़ पर मन अटके तो आंखें बंद करके लंबी सांस लो और मन ही मन ख़ुद से पूछो कि क्या मुझे उसकी ज़रूरत है… अक्सर पाने की तीव्रता इससे शांत होती है. अतुल को चिढ़ाने के लिए भी माया कभी-कभी ऐसा करती है, तो अतुल हंसते हैं. तभी माया की नज़र एक धानी रंग के कुर्ते पर पड़ी… लगभग इसी रंग का कुर्ता उसने कॉलेज के दिनों में पहना था. ये रंग कुछ याद दिलाता है… बरसात की बूंदें और हरी-हरी धुली दूब… पुराने बीते दिनों के भूले-बिसरे पलों की याद ने अनायास माया के होंठों पर मुस्कान की रागिनी छेड़ दी थी. कॉलेज की मस्ती के वो दिन… वो सहेलियां… उस दिन तय हुआ सब हरे रंग के सूट में आएंगी. माया ने लगभग ऐसे रंग का धानी सूट पहना था. कॉरीडोर से निकलते हुए किसी ने सरगोशी की थी ब्यूटीफुल… मुड़कर देखा, तो वो जयंत था.
माया मुंह नीचे करके मुस्कुरा दी, तो जयंत के हौसलों के पंख निकल आए, उत्साहित होकर बोला, "जानती हो माया, तुम्हारे इस कुर्ते का रंग और वो भीगी हरी दूब बिल्कुल एक सी हैं."
धानी रंग की ऐसी व्याख्या पहले नहीं सुनी थी. ध्यान कुर्ते से हट कर जयंत की ओर आ गया. कहां होगा जयंत..? एक-एक करके लगभग सभी सहेलियां मिल गई, लेकिन जयंत को नहीं ढ़ूंढ़ पाए. माया की उंगलियां फिर थिरकी…
एक बार सर्च पीपल में जा कर ढूंढ़ने की कोशिश की. अनगिनत चेहरों के बाद एक पहचाना-सा चेहरा आया जयंत मांजरेकर… हां, यही तो है… आगे के उड़ चले बालों के बावजूद माया पहचान गई थी. तभी अतुल की आवाज़ आई, "माया, प्लीज़ चाय पिलाओगी…"
"हां-हां…" कहती माया जल्दी से लॉग आउट करते हुए रसोई की
ओर चली गई.
चाय के पानी के साथ ही अतीत के वो निश्चिंत मस्त पलों की यादें भी खदबदाने लगी थी. आज ही निकिता को मैसेज करती हूं कि उसने जयंत को ढूंढ़ लिया है या फोन कर देती हूं. फोन पर ढंग से बात तो होगी. निकिता ने तो अपना अकाउंट नाम के लिए ही खोल रखा है. पता नहीं कब मैसेज देखेगी… देखेगी भी या नहीं… देखकर भी कहां कोई केमेंट करती है. बस कभी-कभी एक आध लाइक आ जाता है.
जिससे दोस्ती का अस्तित्व बस बना रहता है. जब वो नहीं मिली थी, तो कल्पनाओ में ही अपनी दोस्ती की गर्मी की आंच ख़ुद तक पहुंच जाती थी. अब एक-दूसरे के जीवन में ताक-झांक करने के बावज़ूद ऊष्मा प्राप्त नहीं होती, बल्कि मन कई दुविधाओ से भी घिर जाता है. कहीं जान-बूझकर उसे अनदेखा तो नहीं कर दिया है… वही सधे, घिसे-पिटे कभी-कभार आनेवाले कमेंट… जाने क्यों मन को नहीं छूते. बावजूद इसके दिन में जब तक कई बार लॉग ऑन ना कर ले चैन नहीं मिलता.
कभी-कभी लगता है कि अतुल की चिढ़ जायज़ है, पर वो भी क्या करे… दिन में तीन-चार लॉग ऑन ना करे, तो चैन कहां पड़ता है. सोशल साइट्स से पीछा छूटता है, तो ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट्स खुल जाती है. उफ… विचारों के घोड़े कहां-कहां दौड़ने लगे थे. अभी तो जल्दी से जयंत को एड करना है. जल्दी से चाय का कप लेकर
अतुल के पास गई, तो वो आंखें मूंदें कुर्सी पर सिर टिकाए बैठा था. चाय देखकर माया से बोला, "तुम भी बैठो." अतुल बातें करने के मूड में थे, पर वो दस मिनट में आती हूं. कहती हुई चली गई. उसका सारा ध्यान जयंत को एड करने में लगा था.
अतुल जानते थे कि पांच मिनट का कहकर वो एक घंटे से पहले नहीं उठनेवाली… वो चुपचाप चाय का घूंट भरने लगे थे. फ़ुरसत के पल निकाले, तो उसका भी कोई फ़ायदा नहीं. माया की उद्विग्नता बता रही थी कि वो किसी चीज़ में डूबी है. ऐसी दशा कमोबेश तब होती है, जब वो ऑनलाइन कुछ मंगवानेवाली होती है… अलग-अलग
साइट पर जाकर पड़ताल करके उसे मंगवाती है. अतुल कुछ नहीं बोले, कोई फ़ायदा भी नहीं था. उतावलेपन से माया ने लॉग ऑन किया इस बार जयंत को ढ़ूंढ़ने में ज़्यादा समय नहीं लगा. उसका प्रोफाइल चेक किया. कुछ तस्वीरें मिली उसकी पत्नी
और बिटिया के साथ… एक बार फिर उसके होंठों पर मुस्कान आ गई थी. पुरानी ख़्यालों में एक बार फिर गुम होती चली गई थी माया. लगा निकिता पीछे से पुकार रही है.
"तू आराम से आना माया… तुम्हारी सीट उस हीरो ने रिज़र्व करके रखी होगी." सच ही था, वो जब बस में चढ़ती, जयंत अपनी सीट से उठकर बिना कुछ कहे आगे चला जाता… और वह झेंपती-मुस्कुराती उस जगह पर बैठ जाती थी. उसे याद आया किस तरह एक बार उसके पेन की स्याही ख़त्म हो गई थी. लेक्चर छूटा जा रहा था. एक-दो बार पेन को झटका देकर परेशानी में इधर-उधर देखा.. तभी आगे बैठे जयंत ने बिना पीछे मुड़े उसकी ओर पेन बढाया, तो निकिता की हंसी छूट गई थी. बाद में सबने कितना चिढ़ाया था. उस दिन से जयंत के नाम के आगे, तेरा विशेषण लग गया था. तेरे जयंत की दो आंखें आगे और दो पीछे हैं. जो हमारी माया पर लगी होती हैं. सच भी था जयंत की मौजूदगी वो सहज महसूस कर लेती थी. दोनों के बीच जुड़ा ये मीठा संबंध यहीं तक जुड़ा रहा था. ना माया ने कुछ कहा और ना जयंत ने… छलावे और भुलावे की मीठी खुमारी में खोए कॉलेज ख़त्म होने के साथ अलग हो गए थे. ना कोई शिकवा ना शिकायत. हां, इस साथ बिताए पलों ने अपना अस्तित्व बनाए रखा था. इस तरह जयंत भी मन के कोने में बीते दिनों की मिठास लिए बस गया था. क्या उसे एड करूं… क्या सोचेगा वो… क्या जयंत ने भी कभी उसे याद किया होगा या शायद ना भी किया हो.. उसे ढूंढ़ने की कोशिश की हो या ना भी की हो… कैसे रिएक्ट करेगा? या वो भी उसकी फ्रेंड लिस्ट में एक बढ़ी संख्या बन कर रह जाएगी या कहीं ज़्यादा ही वो क़रीब आने की कोशिश करे, क्या पता? कहीं पुरानी कसक उभरे या फिर वर्तमान के बोझ तले दम तोड़ दे… पुरानी मासूमियत से भरे रिश्तों में सयानापन आ गया तो… पुराने दिनों की मिठास कायम रहेगी या नए स्वाद से परिचय होगा…
अनायास ही माया ने आंखें मूंद ली थी. उसी दशा में जाने कैसे वही प्रश्न उभरा… इसकी ज़रूरत है क्या… बड़ी देर तक उसी स्थिति में रुकने के बाद आंखें खोली, तो मन शांत सा लगा. एक बार फिर नज़र पड़ी चंद तस्वीरें उसकी ख़ुशहाल ज़िंदगी को बयां कर रही थी. बिल्कुल वैसा ही ख़ुशहाल जैसा उसका परिवार है. ये नई शुरुआत
बीती मीठी यादों को बोझिल ना बना दे… पुरानी यादें जो गाहे-बगाहे अपना सिर उठाकर एक मुस्कान होंठों तक ले आती हैं. उस प्रवाह में नई शुरुआत कोई रुकावट ना पैदा कर दे या फिर एक-दूसरे की ज़िंदगी में झांकने का बस ज़रिया मात्र ना बन जाए… अभी भी जयंत कुछ मीठी यादों के साथ उसके मन के किसी कोने में है… चुपचाप शांत अपने वजूद को बनाए बैठा है. वही जयंत उसे भाता है… समय अंतराल ने जाने कितने परिवर्तन ला दिए होंगे उसके व्यक्तित्व में, ख़ुद वो भी तो कितना बदल गई है… सोचकर झटके से उसने लॉग आउट किया, तो अच्छा लगा. कुछ-कुछ वैसा ही जैसा किसी वस्तु के प्रति आकर्षण भांप मन ख़ुद पर काबू पा कर सुकून महसूस
करने लगे. माया के मन को भी सुकून लगा, जो जहां है वहीं ठीक है. कमरे में आई तो अतुल उसे ध्यान से देख रहे थे.
"क्या मंगाया?"
"मैं शॉपिंग नहीं कर रही थी."
"इतनी तल्लीनता से तो तभी बैठती हो, जब कुछ मंगाना होता है…" उसकी बात पर माया मुस्कुराकर बोली, "नहीं अतुल, एक कॉलेज मेट को देखा सोशल साइट, पर…"
"फिर उससे बात की…"
"नहीं…"
"क्यों..?"
"बस ऐसे ही… जाने क्यों मन नहीं किया, इसलिए नहीं कि मुझे उससे कोई आपत्ति है. बस इसलिए की ज़रूरत नहीं है. हम अपने जीवन में बहुत से पड़ाव पार करते हैं. उन पड़ावों से जुड़ी यादों की एक
अपनी समय-सीमा और उनसे जुड़ी मिठास और पहचान होती है…. जिसे याद करके हम इस भागदौड़भरी ज़िंदगी में सुकून-सा महसूस करते है. सोशल नेटवर्किंग के ज़रिए हम कितने पुराने लोगों से जुड़े, लेकिन जुड़ने के बाद हमें वो ख़ुशी हासिल नहीं हुई, जिसकी यादें हमारे मन में बसी थी. ऐसे में लगता है, ना मिलते तो ठीक रहता… लोगों की उदासीनता ओढ़ने से अच्छा है, उन्हें पुरानी सोंधी यादों में ही रहने दिया जाए. कितने पुराने लोगों से ऑनलाइन जुड़े पर रोज़ उनको सामने देखने के बाद भी वो जुड़ाव महसूस नहीं होता है, जो हम एक-दूसरे से यादों और ख़्यालों में जुड़कर महसूस करते थे. कुछ दिनों तक संपर्क में रहने के बाद संपर्क टूटता-सा लगता है."
"क्या बात है माया… आज दर्शन से जुड़ी बातें लग रही है. कहीं सोशल नेटवर्किंग से मोह भंग होने के शुभ संकेत तो नहीं हैं. ऐसा हुआ तो मुझसे ज़्यादा ख़ुशनसीब कोई नहीं होगा. कम से कम तुम मुझे समय तो दोगी. "

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"आप मेरी शिकायत कर रहे हैं?"
"नहीं… ये दुआ कर रहा हूं कि लोग मैसेज और चैट के ज़रिए नहीं, आमने-सामने एकांत में बातें करें."
"पापा की सारी बातें घूम-फिर कर वहीं आ जाती है." लक्ष्य ने कहा, तो माया हंस दी.
एक-दूसरे की खिंचाई करते सबके साथ माया को अच्छा लगा था. वास्तविकता तो यही थी कि सोशल साइट्स से एक ऊब माया के मन में बहुत दिनों से पनप रही थी… लेकिन उसकी पकड़ से मुक्त होना उसके लिए उतना सहज नही था, जितना अतुल समझते थे…
"अतुल कहीं बाहर चले क्या?"
"कहां?"
"रिसॉर्ट."
"आइडिया बुरा नहीं है, बस एक शर्त है. अपना स्मार्ट फोन घर पर छोड़ जाना…"
"ये ज़्यादती है अतुल… बड़ा अधूरा-सा लगेगा.."
"नहीं लगेगा… एक बार ट्राई करके तो देखे…"
"और कोई ज़रूरी कॉल हुई तो..?"
"मेरा मोबाइल है ना…"
"पापा आपका पुराना बेचारा-सा मोबाइल, बिल्कुल स्मार्ट नहीं है…" "कोई बात नहीं, स्मार्ट नहीं है, इसलिए अपनी उपस्थिति को बेवजह दर्शाएगा नहीं…" कहते हुए अतुल ने माया और लक्ष्य के हाथ से उनका स्मार्ट फोन लिया. स्मार्ट फोन को हसरत से निहारते लक्ष्य और माया जहां इनके बगैर कुछ समय बिताने की कल्पना से मायूस थे, वहीं अतुल सोच रहे थे, काश! उन सबका साथ और तारों भरा आकाश… इस कमी को पूरा कर पाए, तो आज का ये प्रयोग सफल हो सकता है.

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