
“ये सब आप इनके सामने नहीं देना चाहते थे, है न? ऐसा क्यों भइया?” मैंने पूछ ही लिया. “बस, झिझक लगती है. दिखावा जैसा?” “मैं एक मिनट में आई...” बस इतना कहकर मैं वहां से उठ आई थी. आज दिन में दूसरी बार मैं बाथरूम में छिपकर, फफक कर रो रही थी. लेकिन कितना अंतर था, दोनों आंसुओं के स्वाद में!
घड़ी इतनी सुस्त हो चुकी थी कि लगा अब बंद हो जाएगी. कमरे में लगी नकली गेंदे की लड़ियां थोड़ी और नकली लगने लगी थीं. भाभी ने उबासी रोकने की कोशिश करते हुए मुझे आवाज़ दी, “क्यों रिंकी, राखी बांधने का कितने बजे का मुहूर्त है?”
मैंने किचन प्लेटफॉर्म पर गीला कपड़ा मारते हुए धीरे से कहा, “भाभी, शाम को तीन से पांच.” मुझे लगा बस इतनी सी लाइन बोलते हुए मैं हांफने लगी हूं. एक बार को तो लगा कि जैसे चक्कर आ जाएगा और यहीं फ़र्श पर मैं गिर पड़ूंगी. कमज़ोरी और थकावट से आंखें भर आईं, वहीं किचन के सिंक में नल खोलकर पानी के छींटे पहले आंखों पर मारे, फिर चेहरा भी धो लिया. दुपट्टे से अपना चेहरा पोछते बस मैं किचन से बाहर आई ही थी कि भैया-भाभी आपस में बात
करते-करते मुझे देखकर रुक गए.
“मैं सोच रहा था थोड़ी देर सो लेता. वैसे भी राखी बंधवाने में तो अभी टाइम है, तब तक तुम लोग तैयारी करो.”
भइया के भीतर जाते ही भाभी ने दो बार लगातार पूछा, “बताओ क्या करवाना है? अरे, बताओ तो सही अकेले लगी हो.”
“कुछ नहीं भाभी, बस प्लेट में राखियां ही तो सजानी हैं. मिठाई तो आप लोग ले ही आए हैं.”
भाभी ने बस एक औपचारिकता निभाई थी. मैं इससे पहले कि हां या ना बोलूं, वह भी उसी कमरे की ओर बढ़ गई थीं, जिसमें भइया जाकर लेटे हुए थे.
“हां, मैं कर लूंगी अकेले. बिल्कुल कर लूंगी.. सुबह से कर ही रही हूं. ये लोग सुबह आठ बजे आ गए थे. आते ही इनके बच्चों ने उधम मचाना शुरू किया और भाभी ने गोल-मोल बातें शुरू कर दीं.
“देखो रिंकी, बाज़ार से कुछ मंगवा लो, आज खाने का झंझट मत रखना.”
“नहीं भाभी, त्योहार है. आधी तैयारी तो मैंने करके रखी है, बाकी का मिलकर हो जाएगा.”
मेरे बोलते ही भइया और भाभी की आंखें मिलीं, भइया ने मोर्चा संभाला, “दरअसल तुम्हारी भाभी तो मेमसाहब बनी बैठे रहती हैं. खाना बनाने, परोसने सबके लिए स्टाफ है. तुमको पता है, इनसे अब कुछ काम होता नहीं है.”
मैं कटकर रह गई थी. भइया और मुझमें क़रीब दस साल का अंतर था. भाभी के साथ भी इतना ही होगा. इनके लिए मैं बच्ची ही जैसी हूं, ये दिखावा, बातें सुनाना. हमारे रिश्ते के बीच आना ज़रूरी था?
“नहीं भाभी, आपको कुछ नहीं करना है, लगभग हो ही गया है.”
किसी तरह मैं बस इतना ही बोल पाई. कामवाली भी छुट्टी पर थी, त्योहार सबका था. पहले तो मैंने नाश्ते के लिए आलू के परांठे बनाने शुरू किए. एक-एक परांठा प्लेट में रखते, बाहर पहुंचाते उतनी थकावट नहीं हुई थी, जितनी भइया का चेहरा देखकर हुई.
“अरे, ये क्या है? सुबह-सुबह परांठा कौन खाता है? फिर दिन में भी तुम तला ही कुछ खिलाओगी.”
परांठे को एक कोने से पकड़े वो अजीब सी शकल बना रहे थे.
“हां तो! त्योहार है, आज भी तला नहीं खाना है?”
मैंने अगली लोई में आलू भरा. भइया का तुरंत जवाब आया, “तुमको मिडिल क्लास मेंटेलिटी से निकलने में कितना व़क्त लगेगा रिंकी? ये कहां लिखा है कि त्योहार पर सड़ा-गला ही खाया जाए.”
मेरी आंख से एक बूंद आंसू निकलकर आटे पर गिरते-गिरते बचा. पूछते-पूछते रह गई, बहन के यहां जाकर नाक भौं सिकोड़ते बैठ जाना. न ख़ुद एक ग्लास पानी लेना, न अपनी पत्नी को लेने देना... ये होता है क्या हाई क्लास? कितने साल हुए भइया ने कभी सिर पर हाथ फेरकर पूछा नहीं,
“कैसी हो रिंकी?”
ऐसा नहीं कि ये दूरियां पहले से थीं. जो कुछ भी हुआ, धीरे-धीरे ही हुआ. धीरे-धीरे ही भइया ने सफलता की सीढ़ियां चढ़ीं. बिज़नेस का विस्तार किया, रुपए-पैसे की गागर में धीरे-धीरे ही डूबे और धीरे-धीरे ही रिश्तों के सागर से बाहर भी निकले. मेरी क़िस्मत का फेर था कि शादी होकर मैं यहीं आई, इसी शहर में!
हालांकि एक शहर में रहते हुए भी हम साल भर में तीन-चार बार ही मिलते थे, जिसमें मेरी कोशिश रहती थी कि मैं ही वहां चली जाऊं. उन लोगों का यहां आना, सिरदर्द बढ़ाने जैसा होता था. कभी मेरे पति के कपड़ों पर चुटकुले बन जाते, कभी मेरी डाइनिंग टेबल पर बिछा कवर चीप लगता. इस बार भी रक्षाबंधन पर जाने की कोशिश मैंने की थी, लेकिन ये लोग ज़िद पर अड़ गए कि यहां आएंगे. असली कारण तो मुझे बाद में समझ आया!
यहां एक बुटीक है, इतनी भीड़ रहती है वहां, बोली आज आ जाओ, तो खाली मिलेगा, भाभी ने आते ही बता दिया था और आलू के परांठे की बेइज़्ज़ती करके, उसको खाकर दोनों बुटीक के लिए निकल भी लिए थे.
पीछे रह गए थे बच्चों के शोरगुल, लड़ाई-झगड़े में फंसी मैं, लंच की तैयारी के साथ घर सजाती हुई मैं और मन ही मन शुक्र भी मनाती हुई मैं कि अच्छा है मेरे पति आज घर से बाहर हैं.
भइया-भाभी बुटीक से आने के थोड़ी देर बाद ही अंदर कमरे में सोने चले गए थे, मैं काम निपटाकर सोफे पर जैसे ही बैठी, लगा कोई बोतल में गर्म पानी भरके दे दे तो सिकाई कर लूं! मम्मी की बात याद आ रही थी, पूर्णिमा पर मन वैसे ही भारी हो जाता है! भीतर की उथल-पुथल बढ़ती है. अब इसे क्या कहा जाए कि रक्षाबंधन भी पूर्णिमा के दिन ही होता है. कहां तक संभाली जाए ये हलचल? सोचते-सोचते आंखें बंद की ही थीं कि भतीजा भागते हुए आया और फोन थमा गया, “बुआ, आपका फोन कब से बज रहा था.”
देखा तो फोन में कई मिस्ड कॉल्स थीं. एक ससुराल से थी, एक ऑफिस के काम से बाहर गए पति की थी, तीसरी बिल्लू भइया की थी. पहले से ही झुंझलाया मन थोड़ा और ख़राब हो गया. अब बिल्लू भइया को भी राखी बंधवाने आना होगा. पिछले साल तो आए नहीं थे, अब क्या हो गया?
बिल्लू भइया यानी मेरे दूर के चाचा के बेटे. हमारे मकानों के बीच उतनी दूरी नहीं थी, जितनी हम दोनों भाई-बहन उनसे बनाकर रखते थे.
भइया के मुंह से अक्सर “बिल्लू ज़बरदस्ती हम लोगों से हिलना-मिलना चाहता है...” जैसी बातें निकलती थीं, जबकि मम्मी का कहना था, “बड़ा प्यारा बच्चा है, रिंकी को इतना प्यार करता है. बहन नहीं है न उसकी.”
बात सच भी थी. मुझे कौन सा सामान कब चाहिए, ये बिल्लू भइया को पता नहीं कैसे मालूम हो जाता था. पहले तो मुझे लगता था मम्मी इशारा कर देती होंगी, लेकिन एक दिन वो ख़ुद ही बता गए, “तुम्हीं तो बता रही थी वो नया पैन तुम्हारी सब सहेलियों के पास है, तुम्हारे पास नहीं है.” ये तो एक बात थी, इस तरह के न जाने कितने सामान मुझ तक पहुंचते रहते. तो भी, कोई तो वजह थी कि मैं उनसे बहुत जुड़ नहीं पाई. हमारे बीच उनके घर का रहन-सहन आया होगा, चाचा और पापा का मनमुटाव भी आ ही गया होगा... या भइया का उनको लेकर उल्टी-सीधी बातें करना भी मुझे एक दूरी बनाकर रखने पर बाध्य करता रहा होगा. समय बीतने के साथ ये दूरी बढ़ती ही गई और जब चाची चल बसीं, तब तो ये लोग गांव जाकर ही रहने लगे थे.
दो साल पहले वो अचानक सामने आ गए थे, यही दिन था.. रक्षाबंधन! मैं दरवाज़ा खोलते ही चौंक गई थी. मटमैला कुर्ता-पैजामा पहने, हाथ में जूट का थैला लिए वो सामने खड़े थे. “चौंक गई न! ताईजी से पता लिया और सीधे बस पकड़कर यहां. तुमने तो राखी ही नहीं भेजी इस बार!”
मुस्कुराते हुए वो सीधे आकर सोफे पर बैठ गए थे. मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा था. मेरे पति ने ज़रूर आगे बढ़कर उनका स्वागत किया था. राखी बंधवाते हुए वो एकदम चुप थे, लेकिन जेब से सौ का नोट निकालकर मेरी ओर बढ़ाते हुए वो रुआंसे हो गए थे, “आशीर्वाद समझकर रख लो, कभी पैसा हुआ तो...” इतना बोलकर उन्होंने अपनी आंखें पोंछ ली थीं.
उनके जाने के बाद इस सरप्राइज़ को बनाए रखने के लिए जब मैं मम्मी से लड़ बैठी तो वो गंभीर हो गई थीं, “बहुत परेशान है आजकल वो. गांव में रहना आसान थोड़ी है. उसकी सारी ज़मीन झगड़े में फंसी है, पैसे की बहुत किल्लत है. और ये बताओ रिंकी, अगर आ गया तो क्या हो गया?”
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इस घटना के अगले साल उनकी शादी हो गई थी. मेरा जाने का इतना मन भी नहीं था, ऊपर से प्रेग्नेंसी ठहर जाने के बाद तो एक ठोस कारण भी था मेरे पास. मुझे याद है, उनका एक बार फोन आया था, मैंने उठाया नहीं था. मिसकैरेज जैसी दुर्घटना का दुख, मन पर लादे हुए मैं किसी से भी बात नहीं करना चाहती थी. फिर उनसे तो बिल्कुल भी नहीं. पिछले साल भी मैने राखी भेज दी थी, जिससे वो न आ जाएं और इस साल भी... फिर आज फोन क्यों आ रहा था?
“हां भइया, कैसे हैं?”
“तुमसे तो बात ही नहीं हो पाती रिंकी. हम सोचे आज तो...”
“राखी मिल गई भइया?”
उनकी बात काटकर मैने पूछा, “राखी मिल गई न, आएंगे तो नहीं आज?”
“वो तो मिल गई थी, लेकिन एक काम से शहर आए हैं, तो सीधे आकर बंधवा लेंगे, पांच साढ़े पांच मान लो.”
आज मेरी हालत वैसे ही ख़राब थी. मैंने साफ़ मना करते हुए टाल दिया, “अभी तो मैं ख़ुद ही बाहर निकल रही हूं भइया. फिर कभी आइए न, भाभी को लेकर आइएगा.”
“तुम्हारी भाभी कहां आ पाएंगी फ़िलहाल. ख़ुशख़बरी है, बुआ बनने वाली हो तुम. अच्छा सुनो, एक बहुत ज़रूरी काम है तुमसे, आएंगे तो आज ही.”
जहां तक मेरा संदेह गया, ज़रूर डिलीवरी से संबंधित कोई काम होगा. यहां शहर में रुकने की समस्या होगी, तो मेरे यहां ही ठिकाना ढूंढ़ा जा रहा होगा. मम्मी उनके बारे में बताती रहती थीं कि अब उनके दिन बदल गए हैं. गांव में कोई फैक्ट्री लगा ली है, ज़मीन-जायदाद के सारे केस भी वो जीत गए हैं. जब सब कुछ है पास तो कोई कमरा किराए पर लेकर वहां डिलीवरी करवाएं न, यहां कैसे मैनेज हो पाएगा? दिमाग़ में आए सारे विचार इधर से उधर घूम ही रहे थे कि अंदर कमरे से बाहर आते भइया-भाभी दिखाई पड़े.
“बिल्लू भइया का फोन था, आने के लिए कह रहे थे...”
“मना कर देती न.”
“कोशिश की थी भइया. बोले ज़रूरी है आना.”
“बुलाओ फिर, खिलाओ-पिलाओ. बाहर बोर्ड लगवा लो कि ये धर्मशाला है, कोई भी आ सकता है. तुम भी न, धीरे-धीरे मम्मी जैसी होती जा रही हो. सबको बटोर कर चलना होता है तुमको.”
मैं भइया का चेहरा ही देखती रह गई! कहते नहीं बना कि चलो, मैं तो मम्मी जैसी होती जा रही हूं, आप भी तो पापा जैसे होते जा रहे हैं, कहीं किसी से कोई मतलब नहीं. बस अपने सुख दुख, अपनी सफलता, अपने क़िस्से, अपनी जीत, अपनी हार! मेरे मिसकैरेज के समय बस एक बार ये दोनों आए थे, रटी रटाई “हिम्मत रखो...” जैसी लाइन बोलकर इनके कर्तव्य पूरे हो गए थे. अवसाद के भारी दिनों में इनके घर गई तो बच्चों का चेहरा देखकर राहत मिली, सोचा हफ़्ते भर रह लूं तो मन संभल जाएगा. लेकिन पहली ही रात मेरे सामने आईना लाकर रख गई थी, लो देखो अपनी जगह!
“मुझे नींद आ रही है, कब तक बातें चलेंगी तुम दोनों की.”
रात दस बजे भइया ने कमरे में आकर टोक दिया था. भाभी ने शायद उनको चुप रहने को कहा होगा या ये मेरा भ्रम रहा होगा, भइया ने बात आगे बढ़ाई थी, “एक्चुअली किसी और रूम में मुझे नींद नहीं आती.”
“तो क्या हुआ, मैं बच्चों के कमरे में सो जाऊंगी.”
ये कहते हुए मैं बिस्तर से उतर ही रही थी कि भइया ने मना कर दिया, “एक सेटअप होता है बच्चों का, उनको डिस्टर्ब मत करो. गेस्ट रूम में सो जाओ न, सबसे बढ़िया एसी वहीं का है.”
“सबसे बढ़िया एसी की ठंडक लेने तो मैं आई नहीं थी, मैं तो रिश्तों की गर्माहट में दुख को पिघलाने आई थी. वो तो और जमता चला जा रहा था. हर बीतते पल के साथ. जिन छोटे-छोटे बच्चों की रात ख़राब होने का डर था, उन्हीं बच्चों को गोदी में झुलाते, सुलाते मैंने कितनी रातें बैठे-बैठे काटी थीं. उस रात, गेस्ट रूम के बिस्तर पर अकेले लेटते ही लगा पति को फोन करके कह दूं कि अभी तुरंत घर वापस आ रही हूं. लेकिन रिश्तों की सच्चाई पर एक झीना पर्दा जो पड़ा हुआ था, उसको खींचकर सब कुछ अनावृत कर देने का मन नहीं किया.
अगली सुबह बहाना बनाकर मैं वहां से चली आई थी. उसके बाद से कभी भी चार-पांच घंटे से ज़्यादा वहां बिताए ही नहीं. बस रिश्ते कैलेंडर के हिसाब से चलते रहे.. भाई दूज, रक्षाबंधन, बर्थडे!..
खाना खाते हुए मैंने कुछ कहने की कोशिश की, बड़ी हिम्मत करके, “खाना खाकर, राखी...”
“हां, वो निपटाओ, सुबह से दोपहर हो गई तुम्हारे मुहूर्त के चक्कर में.” खीरे की पतली स्लाइस चबाते भइया अनमने थे. बच्चों ने खाने की ख़ूब तारीफ़ की, भाभी ने भी थोड़ी बहुत, भइया का मुंह बना ही रहा.
“खाना अच्छा लगा भइया? हरी चटनी दें?”
“अब इसमें क्या अच्छा, क्या ख़राब. कुछ नया तो बनाया नहीं. सालों से यही पूरी सब्ज़ी, खीर, दही वड़ा.. मेरे फोन का चार्जर ला दो अंदर से.”
बड़े अच्छे समय पर ये मांग उठी, नहीं तो सब मुझे रोते देख लेते! अंदर बाथरूम में जाकर कसकर रोई, मुंह धोया, चार्जर उठाकर बाहर आ गई. सब कुछ फटाफट, जल्दी-जल्दी हो गया था. उतना जल्दी जितना जल्दी रोना आ गया था.
एक उबाऊ रस्म अदा की गई, जिसको राखी बांधना कह सकते हैं. मैंने हिसाब लगाया, हर बीतते साल के साथ ये ऊब बढ़ती ही जा रही थी. वही सब हर साल की तरह, मेरा राखी बांधना और भइया का मुझे एक सूट थमा देना. इतना ही नहीं, मुझे पैकेट खोलकर देखना भी होता था और साथ में ‘ये तो बहुत सुंदर है’ कहना भी इस स्क्रिप्ट का पार्ट होता था, इस बार भी वही हुआ. सबके जाने के बाद, किचन समेटते, घर ठीक करते कब पांच बज गए, पता ही नहीं चला.
बिस्तर पर लेटकर सारी मिस्ड कॉल का जवाब दिया. कब आंख लग गई, ये भी नहीं पता चला. नींद में ही लगा कि कोई बहुत देर से घंटी बजा रहा है.
“इस समय सो गई थी? तबीयत ठीक है?”
बिल्लू भइया दरवाज़े पर खड़े थे. मैंने अपने बिखरे बाल ठीक करते हुए उनको अंदर बुलाया. पहले से बेहतर लग रहे थे. शरीर थोड़ा भर गया था. कपड़े भी साफ़ थे, लेकिन थे एकदम सिकुड़े हुए.
“वो कहां हैं?”
मेरे पति के बारे में पूछते हुए, वो भीतर झांक रहे थे. ये जानते ही कि वो घर में नहीं हैं, वो थोड़ा निश्चिंत हो गए.
“चलो, एक तरह से ठीक ही है. तुमसे ख़ास बात करनी थी.” मैंने अपने आपको जवाब देने के लिए तैयार करते हुए कहा, “हां, बताइए.”
“अभी नहीं, पहले राखी बांधो... अभी ठीक समय है, पहले रुको, इधर आओे.”
मुझे अपने पास बुलाकर बड़े प्यार से सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, “कितनी थकी लग रही हो बिटिया, तबीयत गड़बड़ है कुछ.”
पता नहीं इस एक सवाल में कुछ था या उस शब्द ’बिटिया’ में कुछ था, एकदम से आंखें भर आईं. दिनभर झेला अक्खड़पन और तेज़ दुखने लगा था.
“थाली ले आएं भइया. पहले राखी.”
“नहीं, रुको अभी. कोई निपटाने वाला काम थोड़ी है, राजी ख़ुशी होगा तब ही होगा.” इतना कहकर उन्होंने बैग से एक कटोरदान निकाल लिया. मेरी ओर बढ़ाते हुए उनकी आंखें झुकी हुई थीं, “ताक़त वाला लड्डू है, तुम खाओ हर दिन. हमको तो कुछ ही दिन पहले पता चला वो सब...” हिचकते, झिझकते उनका इशारा मेरे मिसकैरेज की ओर था. हाथ में कटोरदान लिए मैं जड़ बैठी रह गई थी. उनका चेहरा उतरा हुआ था. दुख में डूबता हुआ वो आदमी वही था, जिसका आना मैं टाल रही थी. अचानक ध्यान भइया पर चला गया, कभी उन्होंने इस बारे में कोई बात ही नहीं की, क्यों नहीं की?
“भाभी की तबीयत कैसी है? कब है डेट?”
अपने आप सवाल निकलते चले गए. सब कुछ बताते हुए वो अचानक रुके, “देखो रिंकी, बच्चा होने पर बुआ का बहुत काम होता है. ये रस्म, वो नेग, सब तुमको करना है, कोई बहाना नहीं उस समय, ठीक है?”
ये ठीक कैसे है? मैं तो जो सोचकर बैठी थी, वो ठीक था न.. कि वो मेरी मदद लेंगे, मेरे घर रुकेंगे, मैं मना कर दूंगी...
“भइया, डिलीवरी वहां गांव में होगी क्या? ढंग का हॉस्पिटल है?”
मेरे पूछते ही भइया, ठठाकर हंस पड़े. जेब से मोबाइल निकालकर वहां के बड़े अस्पताल की फोटो, नए घर की फोटो, बगीचे की फोटो दिखाते हुए इस तरह ख़ुश होते रहे जैसे बचपन में वो मम्मी के साथ बैठकर, स्कूल के क़िस्से सुनाते व़क्तहोते थे. भाभी की तो फोटो मैंने देखी थी, तब भी उनको थोड़ा और ख़ुश करने के लिए मैने पूछ लिया, “भाभी की तो दिखाइए.”
कहते ही उन्होंने भाभी की तारीफ़ करते हुए, तस्वीरें दिखानी शुरू कीं. कभी कोई पेंटिंग बना रही थीं, कभी कुछ लकड़ियां जोड़कर फ्रेम बना रही थीं.
“कुछ न कुछ करती रहती है, खाना खिलाने और बनाने का बहुत शौक है.. ये लड्डू उसने ही तो भेजा है.”
कटोरदान पर मैंने हथेलियां फेर दीं.
“देखो, घर भी सजाती रहती है. ये फोटो वाला पेड़ बनाया है, क्या बोलते हैं फैमिली ट्री. सबकी फोटो है, तुम्हारी कितनी सारी हैं लो देखो.”
गले में आकर कुछ भारी सा अटक गया. न चाहते हुए भी एक बार फिर ध्यान भइया के घर में लगी तस्वीरों पर चला गया. कहीं नहीं थी मैं वहां! ऐसे मौक़ों पर अपनी भाभी को दोष देना सही था ही नहीं, भाभी और ननद के रिश्ते वाला पेड़ तब मज़बूत हो पाता है, जब भाई-बहन के प्रेम की धूप उस पर पड़ती है. मेरी जगह मेरे भाई के जीवन में क्या थी जो मैं भाभी से बैर पालूं?
“लाओ, जल्दी राखी बांधो. क्या सोचने लग गई.” बिल्लू भइया मुग्ध भाव से मुझे देखते हुए एकदम चाचा जी लग रहे थे, फिर लगा पापा ही लग रहे थे.
उनको राखी बांधना, टीका लगाना, मिठाई खिलाना... ये सब औपचारिक पल नहीं थे, उत्सव के पल थे. हंसना-हंसाना, बचपन की बातें याद करना, मैं अपराध बोध से दबती जा रही थी. कितना याद था इनको, सब कुछ ही तो. दो साल पहले बीता रक्षाबंधन याद आया, क्यों ऐसा बर्ताव किया था मैंने? क्योंकि तब मैं अपने सगे भाई पर टिककर खड़ी इतरा रही थी. क्या पता था, जिस रिश्ते पर टिकी थी वहां झुंझलाहट के सिवा कुछ और बचा था ही नहीं!
“भइया, आप कुछ ख़ास बात बताने वाले थे?” बिल्लू भइया, मेरे पूछने से पहले ही अपना बैग खंगालकर भूमिका बनाने लगे थे, “हां, बता रहे.. ये देखो, ये लो...” बैग से एक लंबी सी डिबिया निकली और कपड़े का एक छोटा थैला. डिबिया में सोने की चेन झिलमिला रही थी.
“नहीं भइया, सवाल ही नहीं उठता, ये मैं नहीं ले सकती.”
“अभी मारेंगे एक.” नकली ग़ुस्से में झापड़ का इशारा करते हुए बिल्लू भइया भावुक हो गए थे. अपने बगल में मुझे बैठाते हुए बोले, “तुम्हारी शादी के बाद पहली बार आए थे तो हालत ठीक नहीं थी. पिछले साल तो और ख़राब हाल था. तब सोचा था कि ज़मीन-जायदाद का मामला निपटे तो अपनी बहन के लिए कुछ करें, बेचारी को क्या ही दिया अब तक.”
उनके चेहरे पर आंसुओं की धारा स्पष्ट थी. अब तो मना किया ही नहीं जा सकता था. डिबिया से चेन निकालकर पहनने लगी, तभी उन्होंने उस थैली की ओर इशारा किया, “अब इसमें क्या है?”
“घर में कुछ शुभ होता है तो बच्चों का हिस्सा अलग कर देते हैं. ज़मीन बिकी थी तो ये तुम्हारा हिस्सा... मना नहीं करना, तुम बच्ची ही तो हो.” थैली में रखी गड्डियां, रुपयों की बहुत बड़ी संख्या बता रही होंगी. लेकिन मेरे बगल में बैठा वो इंसान, वो तो अनमोल था.
“ये सब आप इनके सामने नहीं देना चाहते थे, है न? ऐसा क्यों भइया?” मैंने पूछ ही लिया.
“बस, झिझक लगती है. दिखावा जैसा?”
“मैं एक मिनट में आई...” बस इतना कहकर मैं वहां से उठ आई थी. आज दिन में दूसरी बार मैं बाथरूम में छिपकर, फफक कर रो रही थी. लेकिन कितना अंतर था, दोनों आंसुओं के स्वाद में! कुछ तय करके मैं बाहर आई. भइया के लिए गर्म पूरी तलकर थाली सजाई. जैसे ही भइया ने खाना शुरू किया, मैंने नोटों की गड्डियों वाला छोटा थैला, उनके बैग में रख दिया.
“फिर खाना नहीं खाएंगे हम.” उन्होंने थाली खिसका दी थी, मैंने थाली उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “अभी बच्ची बोल रहे थे न मुझे. तो मेरा पैसा, यहां रहे चाहे मेरे उस घर में रहे, एक ही बात है न. जब चाहिए होगा ले लूंगी.” बिल्लू भइया पता नहीं क्या-क्या बोलते जा रहे थे, मैं उनसे लड़ते-झगड़ते हंसी जा रही थी. खिड़की के बाहर पूरा खिला चांद इस नोंक-झोंक पर निहाल था. पूर्णिमा का एक फ़ायदा भी तो होता है, अंधेरा मिट जाता है, सब रौशन हो जाता है.


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