आगे निकल कर मुझे लगा कि मेरे मन-मस्तिष्क में प्रतिस्पर्धा का भाव इस कदर भर गया था कि कब घर का मोड़ पीछे छूट गया मुझे पता ही नहीं चला.
हर रोज़ जो मैं आसपास की ख़ूबसूरती निहारता था, रुक कर पक्षियों का कलरव सुनता था वह तो आज न देखा न सुना.
तब समझ में आया- यही तो करते हैं हम जीवन में.
प्रतिदिन की तरह सुबह सैर को निकला था कि अपने से लगभग आधा किलोमीटर आगे एक और व्यक्ति को जाते देखा.
मन में एक जनून-सा छा गया कि मुझे उससे आगे निकलना है.
गति बढ़ाई, पहले उस तक पहुंचा और फिर उससे आगे निकल गया.
मन ही मन बहुत ख़ुश हुआ- मैंने उसे हरा दिया है.
यद्यपि वह नहीं जानता था इस बात को. वह तो मस्त हो अपनी गति से ही चल रहा था.
आगे निकल कर मुझे लगा कि मेरे मन-मस्तिष्क में प्रतिस्पर्धा का भाव इस कदर भर गया था कि कब घर का मोड़ पीछे छूट गया मुझे पता ही नहीं चला.
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हर रोज़ जो मैं आसपास की ख़ूबसूरती निहारता था, रुक कर पक्षियों का कलरव सुनता था वह तो आज न देखा न सुना.
तब समझ में आया- यही तो करते हैं हम जीवन में.
हम अपने सहकर्मियों, पड़ोसियों को अपना प्रतिद्वंद्वी मान उनसे बेहतर करना चाहते हैं.
उन्हें बतलाना चाहते हैं कि हम उनसे बुद्धिमान हैं.
यहां तक कि अपनी संतान को भी इस दौड़ का हिस्सा बन जाने की प्रेरणा देते हैं.
बहुत महंगा पड़ता है यह सौदा. क्योंकि हम अपनी सारा समय, सारी ऊर्जा औरों के पीछे भागने में लगा देते हैं. भूल जाते हैं कि अन्तहीन होती हैं यह प्रतिस्पर्धाएं. कोई हमेशा हमसे आगे होगा. बेहतर नौकरी, बेहतर घर, बेहतर गाड़ी, कुछ भी.
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ज़रा सोचिए, बिना प्रतियोगिता के हर इंसान ‘श्रेष्ठ’ क्यों नहीं हो सकता? हर इंसान भाग्यशाली. मनुष्य जन्म मिला है, अपने भाग्य के स्वयं निर्माता हैं हम. स्वस्थ, सुखद ज़िंदगी. प्रतिस्पर्धा बेमानी है. सबका अपना-अपना जीवन. तुलना बेमानी है. अपनी दौड़ लगाये मुदित मन से.
शायद इसी को मोक्ष कहते हों...
- उषा वधवा
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