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कहानी- दिवास्वप्न (Short Story- Divaswapna)


 
सामने बैठी कामिनी का चेहरा उस चेहरे से बिल्कुल भिन्न था, जो अब तक मेरी यादों के झरोखे से झांकता रहा था. अपने तसव्वुर में उसके छूने की कल्पनामात्र से ही मैं स्वयं को रोमांचित महसूस करता था, पर उस रोज़ जाते समय जब कामिनी ने मेरी बांह पर हाथ रख शुभकामनाएं दीं, तो मुझे वैसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ.


 
 
कैसे-कैसे अजब खेल खेलती रहती है यह ज़िंदगी हमारे साथ. ऐसे लगता है जैसे ऊपर बैठा कोई हमारे जीवन का मास्टर प्लान बना रहा है और हमें बस उसी हिसाब से चलना होता है. हार-जीत का फ़ैसला वही करता है, हमें तो बस आंख मूंदकर उसे स्वीकारना होता है. पर परिस्थितियों को स्वीकारना हमारी मजबूरी हो सकती है, उनके आगे टूटना नहीं.
कोई नहीं बता सकता कि किसकी ज़िंदगी में आगे चलकर क्या मोड़ लेगी, मैं भी कैसे जानता?
तब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था, जब दीदी का विवाह हुआ. घर जैसे सूना हो गया और मैं उदास. मां ने समझाया, “दिल्ली दूर ही कितनी है. छुट्टियों में चले जाना.”
और मैं छुट्टियां होते ही दिल्ली जा पहुंचा. ख़ूब ख़ुश हुआ दीदी-जीजू से मिलकर. ख़ूब मन लगा मेरा. दीदी तो थीं ही, उनके ठीक नीचे वाले फ्लैट में मेरा हमउम्र हेमंत रहता था. उसके घर के सभी लोग बहुत अच्छे थे. स्नेहिल मां, जो हर रोज़ कुछ नया बना कर खिलाती और छोटी बहन कम्मो. नाम तो उसका कामिनी था, पर सब प्यार से उसे ‘कम्मो’ बुलाते. कनक कली सी हिरनी जैसी चंचल और मासूम आंखों वाली कम्मो. सो अब मेरा समय दीदी के घर से अधिक वहीं कटता था. यह उम्र ही शायद ऐसी होती है, जब लड़कियों से बात करना, आसपास उनकी उपस्थिति अच्छी लगने लगती है और कोई लड़की देखकर मुस्कुरा भर दे, तो कई दिनों तक- और रातों को भी, बस वही चेहरा दिखाई देता है.
सच तो यह है कि दीदी के घर हर छुट्टी में पहुंच जाने का एक कारण यह भी था- एक प्रमुख कारण. दो वर्ष यूं ही बीत गए.
शुद्ध भावनात्मक स्तर पर ही था मेरा प्यार. पर यह बात तो सिर्फ़ मैं ही जानता था. किसी से भी नहीं कही मैंने अपने मन की बात, कामिनी से भी नहीं. मैंने तय किया कि पहले कुछ बन जाऊं तभी अपने मन की बात कहूंगा. स्कूल के तुरंत पश्‍चात् अपने-अपने पसंदीदा क्षेत्र में एडमिशन लेने की होड़ शुरू हो जाती है. जगह-जगह फॉर्म भरना, टेस्ट देना- कभी शहर में, कभी शहर के बाहर. बहुत तनाव और उलझन भरे दिन थे वे. पर एक चेहरा प्रेरणास्रोत बन हर पल मेरे साथ रहा. इस बीच हेमंत के पिता का तबादला कानपुर हो गया. वहां के कॉलेज में परीक्षा देने के बहाने वहां भी मैं हो आया. हालांकि मेरा कोई इरादा नहीं था इंजीनियरिंग करने का. बस, कामिनी को देखने का एक और अवसर मिल गया. हेमंत से भी बराबर पत्र-व्यवहार करता रहा, पर एक वर्ष पश्‍चात् उसके पत्र आने बंद हो गए. शायद वह भी मेरी तरह पढ़ाई में व्यस्त हो गया था. मुझे तो कामिनी का सूत्र बांधे था. अतः उत्सुक था संपर्क बनाए रखने के लिए, पर जब मेरे दो पत्र लौट आए तो मुझे खटका. शायद उसके पिता का फिर से तबादला हो गया था. मैंने उन लोगों को ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की. जिस किसी से भी पूछ सकता था- पूछा, पर कुछ भी पता न चला.

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मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली. नौकरी भी लग गई. पर एक चेहरा था, जो सदैव साथ-साथ रहा, एक मधुर एहसास बन कर. यूं तो मैं अपनी नौकरी में व्यस्त ही था, पर हर पारिवारिक समारोह, शादी-ब्याह, तीज-त्योहर के अवसर पर मुझ पर विवाह के लिए दबाव पड़ता, बस इस एक मुश्किल को छोड़कर मुझे ये समारोह अच्छे ही लगते हैं. इन्हीं मौक़ों पर सब एक-दूसरे के क़रीब आते हैं और सौहार्द बढ़ता है. बस, कामिनी का स्थान मैं किसी और को देने के लिए तैयार नहीं था.
अगला विवाह मेरे ममेरे भाई का तय हुआ था और बारात जबलपुर जानी थी. बचपन की मेरी अनेक मीठी यादें हैं मामाजी और उनके परिवार के साथ. छुट्टियां हम दोनों भाई-बहन उन्हीं के घर बिताते थे. बहुत अच्छी थीं हमारी मामी. ख़ूब स्नेह-सत्कार करतीं हमारा. मनोज मुझसे तीन वर्ष बड़ा था, पर हम दोनों में ख़ूब पटती थी. फिर मामाजी बीमार रहने लगे. उनके गुर्दे धीरे-धीरे जवाब दे रहे थे. काफ़ी उपचार के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका. ‘रीनल फेलियर’ नाम दिया था डॉक्टरों ने उनकी बीमारी को. मां कई बार उन्हें देखने गई थीं और जब अपने इकलौते भाई को वह अंतिम विदाई दे कर आई थीं, तो कई दिनों तक हमारे घर का वातावरण बोझिल रहा था.
फिर मनोज के मामाजी मां-बेटे दोनों को अपने साथ लिवा गए. उनका कहना था कि उनकी नज़रों के सामने रहेगा, तो कुछ बन जाएगा. मनोज से मिलना-मिलाना कुछ कम हो गया था और उन्हीं की सख्त, पर सही निगरानी का ही फल था कि मनोज अब एक क़ाबिल कंप्यूटर इंजीनियर बन चुका था और उसका विवाह होने जा रहा था. हमारी मामीजी की बगिया में फिर से बहार आने वाली थी और हम सब ख़ुश थे उनकी इस ख़ुशी पर.
जबलपुर स्टेशन और फिर जनवासे में बारात की बहुत अच्छी देखभाल की जा रही थी. उस भीड़भाड़ में एक चेहरा था, जो कुछ परिचित-सा लग रहा था. उसका अमेरिकी स्लैंग के साथ बोलने का ढंग और गठा हुआ शरीर… फिर भी वह कुछ अपना-सा लग रहा था. था तो वह कन्यापक्ष का ही. भाग-दौड़ कर के वह सबकी सुख-सुविधा जुटाने का उपक्रम कर रहा था. ‘कौन हो सकता है?’ दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने पर भी मैं उसे कोई नाम नहीं दे पा रहा था. जब वह मेरे समीप आया तो ख़ुशी से बोला, “श्रीधर तुम.”
अब तो मुझे भी देर नहीं लगी अपने खोए हुए हेमंत को पहचानने में. अपने बारे में उसने बताया कि यहां तो उसे कहीं दाख़िला मिला नहीं, पर सौभाग्यवश अमेरिका में छात्रवृत्ति भी मिल गई और दाख़िला भी. वहीं पढ़ाई करके अब नौकरी भी वहीं कर रहा है. एक-दूसरे का हालचाल जान लेने के पश्‍चात् जब मैंने पूछा, “पर तुम यहां कैसे?”

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तो हंस कर बोला! “लो मेरी ही बहन के विवाह में बाराती बन कर आए हो और मुझ से पूछते हो कि मैं यहां कैसे?”
कोई नहीं जान पाएगा, कितना कठिन हो गया था उस वक़्त मेरे लिए अपने भावों को नियंत्रण में रख पाना. लगता था किसी ने मेरे मन पर दहकता अंगारा रख कर आदेश दिया हो, “ख़बरदार! चेहरे पर कोई शिकन न आए.” मुझे मुस्कुराना था- पुराने दोस्त से दुबारा मिलने की ख़ुशी में. हर्ष और उल्लास के इस अवसर पर मुझे मुस्कुराना था.
अभिनय क्या केवल मंच पर ही किया जाता है? सोचा था, कामिनी के सामने नहीं पड़ूंगा, पर सायंकाल जब बारात पहुंची तो हेमंत ने कहा, “कम्मो से नहीं मिलोगे? देखो कैसी गुड़िया-सी लग रही है दुल्हन के रूप में.” और वह हाथ पकड़कर भीतर ही ले गया मुझे.
“कम्मो, पहचाना इसे? श्रीधर… दिल्ली वाले घर में ऊपर के फ्लैट में इसकी दीदी रहती थी.” हेमंत मेरे परिचय के सूत्र थमाता जा रहा था और कम्मो के चेहरे पर धीरे-धीरे पहचान के भाव उभर रहे थे. मैं अधिक देर वहां नहीं रुक पाया. अच्छा है, अपने मन की बात कभी उस पर ज़ाहिर नहीं की थी. कम से कम वह तो एक समर्पित जीवन जी पाएगी.
मेरे संयम की कठिन परीक्षा हुई थी उस दिन. मेरे सामने मेरे सपनों पर प्रहार हो रहा था. मैं देख रहा था और हाथ बांधे खड़ा था. कर ही क्या सकता था? किससे कहता अपनी अंतर्वेदना?
वह मुझे दोबारा न मिलती, तो उसकी याद ख़ुशबू के झोंके की तरह मन में समाई रहती. उसका विवाह मेरे किसी अपरिचित से हुआ होता और मैं जान भी लेता, तो उससे दूरी बनाए रखना कठिन न होता. पर विधि ने तो उसे ठीक मेरे सामने ला बिठाया था- भाभी के रूप में और मुझे आंखें बंद करने की मनाही थी. यही सज़ा थी मेरी. पर क्यों? जीने का मक़सद ही जैसे ख़त्म हो गया था.
पर मेरे संयम की और परीक्षा अभी बाकी थी. मनोज की उसी शहर में नौकरी लग गई, जहां मैं रहता था. विधि ने एक और चुनौती रख दी थी मेरे सम्मुख. पहले से भी कठिनतर. काश! यादें कंप्यूटर पर लिखी बातें समान होतीं. ‘डिलीट’ पर जाकर क्लिक किया और सब ग़ायब. बिना कोई नामोनिशान छोड़े.
मनोज से प्रगाढ़ स्नेह होते हुए भी उसके घर जाना टाल देता. पारिवारिक उत्सवों में बहाना बना कर घर में दुबका बैठा रहता, पर रिश्ता इतना क़रीबी था कि मिलना हो ही जाता. और मुझे कामिनी का सामना करना पड़ जाता.
पर मैं यह भी जानता था कि मुझे वास्तविकता से समझौता करना ही है. मैं इसके लिए बहुत प्रयत्न भी कर रहा था.
बहुत गहरे थे मेरे संस्कार और मुझे विश्‍वास था कि मैं भाववश कभी कुछ अनुचित नहीं करूंगा. मेरे हृदय पर बुद्धि की विजय होकर रहेगी. बस, कुछ समय की मोहलत चाहिए थी.
कोई भी स्थिति अंतिम नहीं होती. मनोज के घर पिछले तीन वर्षों में एक-दो बार ही गया था, पर मां से उसका हालचाल मालूम होता रहता. पता चला कि उसके गुर्दे भी ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. और हालत तेज़ी से बिगड़ रही है. मामा का चेहरा सामने घूम जाता. विरासत में ही मिलती है यह बीमारी. बस, तसल्ली यही थी कि चिकित्सा विज्ञान ने इस बीच काफ़ी उन्नति कर ली थी. मनोज को डायलेसिस पर रखा गया. प्रत्येक सप्ताह डायलेसिस किया जाने लगा. उनकी राय में किडनी अगर किसी निकट संबंधी की ली जा सके, तो निश्‍चित रूप से बेहतर रहेगा. दरअसल, हमारे शरीर में प्रकृति प्रदत्त दो गुर्दे होते हैं जबकि एक से भी बख़ूबी काम चलाया जा सकता है. अतः कोई भी स्वस्थ व्यक्ति बिना किसी ख़तरे के अपना एक गुर्दा किसी ज़रूरतमंद को दे सकता है. मामी अपनी किडनी देने को उतावली थी, पर मां- बेटे का ब्लड ग्रुप भिन्न था. सौभाग्यवश मेरा ब्लड ग्रुप और मनोज का ब्लड ग्रुप एक ही था. और मैंने अपना गुर्दा देने का निर्णय लिया. माता-पिता को भी इस बात के लिए राज़ी कर लिया.
बहुत बार मुझे तो ऐसे लगता है कि चमत्कार और विज्ञान में अंतर दिनोदिन कम होता जा रहा है. सर्जरी के पश्‍चात् शाम को जब मुझे होश आया, तो पास बैठे पापा ने बताया कि मेरे शरीर से गुर्दा निकाल कर मनोज के शरीर में उसका सफल प्रत्यारोपण किया जा चुका है.
दूसरी सुबह पलंग का सिरा ऊपर उठवा कर मैं आराम से लेटा था, जब मां के साथ कामिनी ने प्रवेश किया. मेरा कुशल क्षेम पूछने के पश्‍चात् कहने लगी, “भाई के मित्र होने के नाते आप मेरे भाई समान हैं और मनोज के रिश्ते से देवर. पर मनोज को नया जीवन देकर आप हमारे लिए ईश्‍वर तुल्य हो गए हैं. मैं आपका आभार न तो शब्दों द्वारा व्यक्त कर सकती हूं, न कभी चुका सकती हूं….”
मुझे यह आभार की बातें बहुत असहज करती हैं. क्या उत्तर दिया जाए इन बातों का? अतः मैंने बात का रुख मनोज की देखभाल एवं उसके भावी इलाज की तरफ़ मोड़ दिया. अभी तो उसे भविष्य में लंबे समय तक बहुत सावधानी की ज़रूरत थी. डॉक्टर के अनेक निर्देशों का पालन करना था. कई बार मानव शरीर प्रत्यारोपित गुर्दे को अस्वीकार भी कर देता है. अतः उचित अंतराल पर टेस्ट कराते रहना पड़ता है. खान-पान की एवं अन्य अनेक सावधानियां रखनी पड़ती हैं. तब पहली बार मुझे महसूस हुआ कि सत्य का सामना करने से हम जितना घबराते हैं, वास्तव में वह उतना कठिन होता नहीं. बस, कल्पना में ही हम ऐसा मान लेते हैं. कामिनी से बात करते हुए मैंने अनुभव किया कि मैं उससे सामान्य रूप से ही बात कर पा रहा हूं- जैसे किसी भी परिचित से की जाती है.

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एक दिवास्वप्न में ही तो जी रहा था मैं अब तक. यह जानते हुए भी कि वह कोरी भावुकता है- नासमझी है, यह जानते हुए भी कि टूट चुका है मेरा स्वप्न. मैं आंखें मूंद उसी में विचर रहा था.
इस दिवास्वप्न में जीने के कारण ही तो मैं अपने एक आवश्यक कर्त्तव्य से भी विमुख रहा था अब तक. मैंने निश्‍चय किया कि भविष्य में मैं मनोज की तीमारदारी की पूरी ज़िम्मेदारी लूंगा. अस्पताल ले जाने, दवा आदि के इंतज़ाम में भरसक योगदान करूंगा. मामाजी की अनुपस्थिति में तो यह काम मुझे पहले ही करना चाहिए था, पर मैं अपने कर्त्तव्य से दूर भागता रहा था. क्या मैं नहीं जानता था कि कामिनी और मनोज की ख़ुशियां परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं? मेरी दिली कामना थी कि ये ख़ुशियां यूं ही बरक़रार रहें.
मेरा विवेक जागृत हो चुका था. कामिनी से स्वाभाविक ढंग से ही बात करते हुए मैंने उसके माता-पिता के बारे में, हेमंत के बारे में पूछताछ की. दिल्ली में ग्रीष्मावकाश की मस्ती याद की. सामने बैठी कामिनी का चेहरा उस चेहरे से बिल्कुल भिन्न था, जो अब तक मेरी यादों के झरोखे से झांकता रहा था. अपने तसव्वुर में उसके छूने की कल्पनामात्र से ही मैं स्वयं को रोमांचित महसूस करता था, पर उस रोज़ जाते समय जब कामिनी ने मेरी बांह पर हाथ रख शुभकामनाएं दीं, तो मुझे वैसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ.
ज़िंदगी ने हमें ‘डिलीट’ की सुविधा न दी हो, अपनी यादों को मिटाने के लिए, पर सही और ग़लत में पहचान करने की बुद्धि, उन पर अमल करने की क्षमता अवश्य दी है. उन्हें अनदेखा कर उन्हें धुंधलाने की शक्ति अवश्य दी है. बुद्धि के आदेश पर मैंने स्वयं को कटिबद्ध कर लिया नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करने के लिए.

Usha Wadhwa
उषा वधवा


 

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