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कहानी- कशमकश (Short Story- Kashmakash)

मैं इधर-उधर बिखरे काग़ज़ात को समेटने लगी. मम्मी के बनाए उन नक्शों में मुझे उनके टूटे हुए ख़्वाबों की किर्चें नज़र आ रही थीं. अधूरे ख़्वाबों को ज़िंदगीभर ढोना सहज नहीं होता. सारी ज़िंदगी मैंने मम्मी के होंठों पर मुस्कान देखी थी, पर आज मुझे उस मुस्कान के पीछे छिपी कसक भी नज़र आ रही थी. आज यदि इतिहास स्वयं को दोहराता है, तो संभव है कल को मेरे मन में भी ऐसी ही वेदना छिपी होगी. मम्मी ने मेरी कशमकश को दूर कर दिया था. Hindi Kahani की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्‍चात् काउंसलिंग और अंत में इंटरव्यू सभी में मैंने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की और मेरा चयन आईआईएम कॉलेज (अहमदाबाद) में हो गया. मम्मी-पापा बहुत ख़ुश थे. घर में उत्साह का माहौल था. उस दिन सुबह बैंक जाने के लिए मैं घर से निकलने लगी, तो मम्मी बोली, “प्रिया, तुम्हारे अहमदाबाद जाने में 15 दिन बचे हैं, अब अपनी जॉब से रिज़ाइन करके तुम्हें जाने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए.” मम्मी की बात का जवाब दिए बगैर मैं चुपचाप बाहर निकल गई. मम्मी को कैसे बताऊं मन में चल रही कशमकश के बारे में. मन में विचारों का तूफ़ान उठ रहा था. ज़िंदगी ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई थी कि कौन-सी राह चुनूं समझ नहीं आ रहा था. कुछ दिन पूर्व तक मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य था. आईआईएम कॉलेज से एमबीए करके जीवन में ऊंचा मुक़ाम हासिल करना, पर अब हालात बदल गए थे. अब करियर के साथ-साथ संजय को पाने की चाह भी दिल में घर बना चुकी थी. संजय की याद आते ही पलकों के रास्ते मन के आंगन में कुछ माह पूर्व की स्मृतियां खिली धूप-सी उतर आईं. कैट की परीक्षा देने के पश्‍चात् मैं घर में खाली बैठी बोर हो रही थी, इसलिए मैंने एक प्राइवेट बैंक में जॉब ढूंढ़ ली. कुछ दिनों बाद वहां मेरी मुलाक़ात संजय से हुई. संजय चार्टेड अकाउंटेंट था. वह बैंक का ऑडिट करने आया करता था. एक शाम उसी सिलसिले में वो बैंक में था. उसकी मदद के लिए मैं और मेरा एक कलीग रुके हुए थे. काम पूरा होने के पश्‍चात् जब मैं बैंक से निकली, शाम के सात बज रहे थे. अंधेरा घिर आया था. मैं सड़क पर ऑटो की प्रतीक्षा में खड़ी थी, तभी संजय की कार समीप आकर रुकी. उसने कार का दरवाज़ा खोलते हुए कहा, “बैठिए, मैं आपको घर छोड़ देता हूं.” “नहीं नहीं, मैं स्वयं चली जाऊंगी.” मैंने इनकार किया. संजय बोला, “आज आप मेरी वजह से लेट हुई हैं, इसलिए आपको हिफाज़त से घर पहुंचाने की ज़िम्मेदारी भी मेरी है. प्लीज़ बैठिए.” उसके आग्रह को मैं टाल न सकी. रास्ते में वह इधर-उधर की बातें करता रहा. उसने बताया कि उसके पिताजी का पिछले वर्ष स्वर्गवास हो चुका था. घर में बस उसकी मां थी, जो जल्द-से-जल्द उसकी शादी कर देना चाहती थी. लेकिन शादी जैसे गंभीर फैसले पर वह जल्दबाज़ी नहीं करना चाहता था. घर आ चुका था. मैं उसे अंदर लेकर आई. मम्मी-पापा संजय से मिलकर प्रसन्न हुए. गरम-गरम कॉफी के दौरान पापा की कई फाइनेंस संबंधी समस्याएं उसने मिनटों में सुलझा दीं. संजय का ऑफिस बैंक के समीप था, इसलिए अक्सर उसका बैंक में आना-जाना लगा रहता था. धीरे-धीरे हम दोनों के बीच मित्रता होने लगी. हम अक्सर बाहर मिलने लगे. धीरे-धीरे मुझे एहसास होने लगा कि संजय मुझे चाहने लगा है. एक दिन कॉफी पीते हुए उसने कहा, “प्रिया, हम दोनों की बहुत-सी बातें एक-दूसरे से मिलती हैं. हम दोनों की पसंद-नापसंद, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया सभी कुछ मिलता है. सच पूछो तो मुझे ऐसी ही लड़की की तलाश थी, जो व्यावहारिक, ख़ूबसूरत व समझदार हो. क्या तुम ज़िंदगीभर साथ निभाने के लिए मेरा हाथ थामना पसंद करोगी?” संजय मुझे पसंद था. उसकी इंटेलिजेंसी, लगन, ज़िंदगी में ऊंचाइयां छूने की चाहत, सेंस ऑफ ह्यूमर सभी कुछ मुझे भाता था. मैंने उसे अपनी स्वीकृति दे दी. यह भी पढ़े: बेटी की शादी का ख़र्च बड़ा हो या पढ़ाई का? (Invest More In Your Daughter’s Education Rather Than Her Wedding) परिधि लांघकर सदियां बन गए. उस अनजानी ख़ुशी को आंचल में समेटे मैं हवा में तैर रही थी कि तभी कैट की परीक्षा का परिणाम आ गया. मैं सफल रही. उसके पश्‍चात् काउंसलिंग व इंटरव्यू के बाद मुझे आईआईएम कॉलेज में एडमिशन मिल गया. मैंने यह ख़बर संजय को सुनाई. बधाई देते हुए वो गंभीर स्वर में बोला, “प्रिया, अब समय आ गया है कि हम अपने संबंधों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर लें. इधर मैं तुम्हारे घरवालों से हमारी शादी की बात करने की सोच रहा हूं और तुम अहमदाबाद जाने की सोच रही हो. नहीं प्रिया, अब मैं तुमसे दूर नहीं रह पाऊंगा.” “यह क्या कह रहे हो तुम?” मैं आश्‍चर्य से बोली, “ज़िंदगी में यह मुक़ाम हासिल करने की मेरी बचपन से तमन्ना थी. इसके लिए मैंने रात-दिन मेहनत की. अब जबकि मंज़िल मेरे सामने है, तो मैं उससे कैसे मुंह मोड़ लूं. स़िर्फ दो साल की तो बात है.” “दो साल? इतना समय मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा? पहले तुम्हारा जो भी सपना रहा हो, पर अब तुम्हारी प्राथमिकता शादी होनी चाहिए. प्रिया, शादी के बाद भी तुम एमबीए कर सकती हो, आईआईएम कॉलेज से न सही, मुंबई के किसी अच्छे कॉलेज से.” “लेकिन संजय...” “प्लीज़ प्रिया, हम दोनों के प्यार की ख़ातिर तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी.” उसी दिन से मेरे मन में कशमकश चल रही थी. मम्मी-पापा से भी मैं बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी. लेकिन परिस्थितियों का सामना तो करना ही था. उस शाम घर पहुंचकर मैंने मम्मी से कहा, “मम्मी, मैं अहमदाबाद नहीं जाऊंगी.” “क्यों?” मम्मी आश्‍चर्य से बोलीं. “मैं और संजय एक-दूसरे को चाहते हैं और शादी करना चाहते हैं.” “प्रिया, मैंने तुमसे संजय के साथ मेलजोल रखने पर इसलिए कभी कुछ नहीं कहा, क्योंकि मैं जानती हूं तुम समझदार हो. भावुकता में बहकर जीवन का इतना बड़ा फैसला करना ग़लत है फिर मैं और तुम्हारे पापा अभी तुम्हारी शादी नहीं करना चाहते. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है. अभी तुम्हें अपना करियर बनाना है. अपने पैरों पर खड़ा होना है. समय के साथ तुम्हारे अंदर परिपक्वता आएगी और तुम अपने जीवन का सही फैसला कर सकोगी.” “लेकिन मम्मी, मैं संजय को खोना भी नहीं चाहती.” मम्मी ने गौर से मेरा चेहरा देखा और मुझे अपने बेडरूम में ले गईं. अपनी आलमारी खोल उन्होंने कुछ पेपर्स निकाले और बोलीं, “प्रिया, आज मैं तुमसे अपनी कुछ व्यक्तिगत बातें शेयर करना चाहती हूं. इन पेपर्स को देखो. ये मकान के नक्शे हैं, जो कभी मैंने बनाए थे. प्रिया, मैं मुंबई में आर्किटेक्चर का कोर्स कर रही थी. सेकंड ईयर में थी, जब कॉलेज की तरफ़ से दार्जिलिंग घूमने गई थी. वहीं तुम्हारे पापा मुझे पहली बार मिले. वह भी अपने मित्र के साथ वहां घूमने आए थे और हमारे ही होटल में ठहरे थे. दार्जिलिंग में हम लोग छह दिन रहे और इस दौरान तुम्हारे पापा से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गई. वह इंजीनियर थे और मुंबई में उनकी अपनी फैक्टरी थी. मुंबई आकर हम लोग मिलते रहे. छह माह पश्‍चात् उन्होंने मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. प्रिया, मैं अपना चार साल का कोर्स पूरा करना चाहती थी, पर तुम्हारे पापा को भी खोना नहीं चाहती थी. तुम्हारे नाना-नानी ने भी सोचा, इतना अच्छा लड़का मिल रहा है, तो शादी कर दी जाए. मेरी शादी हो गई. तुम्हारे पापा ने मुझसे वादा किया था कि शादी के बाद मेरी पढ़ाई जारी रखवाएंगे. लेकिन ऐसा संभव न हो सका. पहले तुम्हारी दादी बीमार प़ड़ गईं, फिर गृहस्थी में ऐसी उलझी कि आर्किटेक्ट बनना ख़्वाब ही रह गया. दो वर्ष की पढ़ाई तो व्यर्थ गई ही, साथ ही कभी आत्मनिर्भर भी न बन सकी. हां, तुम्हारे पापा से मुझे कभी कोई शिकायत नहीं रही. उन्होंने मुझे हर ख़ुशी, हर सुख दिया, लेकिन फिर भी मेरे मन में हमेशा इस बात का मलाल रहा कि मैं आर्किटेक्ट न बन सकी. प्रिया, जीवन में कभी-कभी परीक्षा की ऐसी घड़ी आती है, पर तब हमें बहुत सोच-विचार कर दिल से नहीं दिमाग़ से काम लेना चाहिए, क्योंकि भावावेश में किए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. अपने अथक परिश्रम को व्यर्थ मत जाने दो. इस समय अपने मन पर काबू रख अपना भविष्य संवार लो. संजय वास्तव में तुम्हारे लिए गंभीर होगा, तो दो साल तुम्हारी प्रतीक्षा अवश्य करेगा.” मम्मी कमरे से बाहर चली गईं. मैं इधर-उधर बिखरे काग़ज़ात को समेटने लगी. मम्मी के बनाए उन नक्शों में मुझे उनके टूटे हुए ख़्वाबों की किर्चें नज़र आ रही थीं. अधूरे ख़्वाबों को ज़िंदगीभर ढोना सहज नहीं होता. सारी ज़िंदगी मैंने मम्मी के होंठों पर मुस्कान देखी थी, पर आज मुझे उस मुस्कान के पीछे छिपी कसक भी नज़र आ रही थी. आज यदि इतिहास स्वयं को दोहराता है, तो संभव है कल को मेरे मन में भी ऐसी ही वेदना छिपी होगी. मम्मी ने मेरी कशमकश को दूर कर दिया था. अब मैंने फैसला कर लिया कि मैं अहमदाबाद आगे की पढ़ाई के लिए जाऊंगी. अगले दिन मैंने संजय से कहा, “देखो संजय, मुझे ग़लत मत समझना. आज जो मुझे देश के इतने प्रतिष्ठित कॉलेज से एमबीए करने का अवसर मिला है, उसके पीछे स़िर्फ मेरी मेहनत नहीं है, बल्कि मेरे मम्मी-पापा की तपस्या भी शामिल है. उन्होंने भी मेरे साथ कितनी ही रातें जागकर बिताई हैं. अपनी मेहनत के साथ-साथ मैं उनकी तपस्या को व्यर्थ नहीं जाने दूंगी. मैं एमबीए करने अवश्य जाऊंगी. हो सके तो तुम मेरी प्रतीक्षा करना.” यह भी पढ़े: दोराहे (क्रॉसरोड्स) पर खड़ी ज़िंदगी को कैसे आगे बढ़ाएं? (Are You At A Crossroads In Your Life? The Secret To Dealing With Crossroads In Life दस दिन बाद अहमदाबाद जाते हुए एयरपोर्ट पर मम्मी-पापा मुझे छोड़ने आए थे. मेरी आंखों में आंसू थे. अपने घर से दूर जाने का ग़म तो था ही, साथ ही अपने प्यार को खो देने की टीस भी हृदय में उठ रही थी. हफ़्तेभर से संजय की कोई ख़बर नहीं थी. स्पष्ट था कि वह प्रतीक्षा के लिए तैयार नहीं था, तो क्या मैंने संजय को पहचानने में भूल की थी? क्या उसका प्यार सतही था? उसमें गहराई नहीं थी? मन में उठ रहे सवालों के साथ सामान लिए मैं आगे बढ़ रही थी, तभी कानों में संजय की आवाज़ आई. वह मेरा नाम पुकार रहा था. मैंने मुड़कर पीछे देखा. हाथों में गुलाब का बुके लिए संजय तेज़ी से मेरी ओर बढ़ रहा था. क़रीब आकर वह बोला, “सॉरी प्रिया, इतने दिनों से न तो तुमसे मिला और न फोन किया. दरअसल, मेरा एक छोटा-सा एक्सीडेंट हो गया था.” मैंने कुछ कहना चाहा, तो उसने रोक दिया, “कुछ मत कहो प्रिया. बस सुनो. मैं तुम्हारी दो साल तक प्रतीक्षा करूंगा. मैं तुमसे ही शादी करूंगा.” ख़ुशी से मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मैंने कृतज्ञतापूर्ण नज़रों से मम्मी की ओर देखा. उनके सही मार्गदर्शन की वजह से ही मुझे ख़ुशी के ये अनमोल पल प्राप्त हुए थे. दिल में पूर्णता का एहसास लिए मैं अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गई. Renu Mandal      रेनू मंडल

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