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कहानी- जयपुरी रजाई (Short Story- Jaipuri Razai)

कौशल्या ने काम शुरू करने से पहले एक छोटा सा डिब्बा अपने शॉल के भीतर से निकालकर  मांजी की तरफ़ बढ़ाते हुए प्रेम भाव से कहा, "मांजी, यह आपके लिए गुड़-तिल की गज़क है. आप कह रही थीं न कि आपको ग्वालियर की गज़क बहुत पसंद है, इसलिए वहां से आते वक़्त आपके लिए ले आई." 
यह दृश्य देखकर हमारे साथ मांजी की आंखें भी सजल हो गईं.

       
मैं हफ़्ते भर बाद अपने मायके जयपुर से लौटी थी.  घर बेहद गंदा हो रखा था और मांजी आज सुबह से हमारी मेड कौशल्या को भला-बुरा कहने लगी थीं, "आजकल इन कामवालियों की बातों का भरोसा नहीं करना चाहिए, दो दिनों की छुट्टी का बोलकर गई थी और देखो आज तीसरा दिन हो गया. नौ बज गए पर कौशल्या का कोई अता-पता नहीं."
"मांजी, सर्दी के दिन है, हो जाती है देर. आप परेशान न हों, वो आ जाएगी और अब तो मैं आ गई न. आप अब बिल्कुल चिंता न करें, मैं सारा काम कर लूंगी." मैंने सासू मां का ग़ुस्सा शांत करने के लहज़े से कहा और फिर मैं उन्हें जयपुर से लाई हुई जयपुरी रजाई दिखाने लगी.
गर्म रजाइयों को देखकर मांजी का ग़ुस्सा कुछ ठंडा हो गया.

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"वाह! क्या गर्म रजाइयां हैं, जयपुर की रजाई की तो बात ही अलग है, एकदम हल्की-फुल्की और गर्म." मांजी ने रजाइयों पर हाथ फेरते हुए कहा.
तभी पापाजी बोल पड़े, "अब यह नई रजाइयां आ गईं, तो क्यों न हम पुरानी रजाइयों में से एकाध रजाई कौशल्या को दे दें?"
"पापाजी, आपने तो बिल्कुल मेरे मन की बात कह दी."  मैंने ससुरजी की बात का समर्थन करते हुए कहा.
"बिल्कुल नहीं! इन कामवालियों को ज़्यादा सिर पर चढ़ाने की ज़रूरत नहीं है. मेहमान आते-जाते रहते है कम से कम तीन-चार अतिरिक्त रजाइयां तो घर में होनी चाहिए. किसी को कुछ नहीं देना. ज़्यादा दयाभाव भी ठीक नहीं." हम पर आंखें तरेरते हुए मांजी ने अपना निर्णय सुना दिया.

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तभी हरे रंग के फटेहाल शॉल के नीचे पीले रंग का पुराना सा हाफ स्वेटर पहने ठिठुरन से भरे सर्द मौसम की सूचना देती सी कौशल्या आ गई.
कौशल्या ने काम शुरू करने से पहले एक छोटा सा डिब्बा अपने शॉल के भीतर से निकालकर  मांजी की तरफ़ बढ़ाते हुए प्रेम भाव से कहा, "मांजी, यह आपके लिए गुड़-तिल की गज़क है. आप कह रही थीं न कि आपको ग्वालियर की गज़क बहुत पसंद है, इसलिए वहां से आते वक़्त आपके लिए ले आई." 
यह दृश्य देखकर हमारे साथ मांजी की आंखें भी सजल हो गईं. उन्हें महसूस हुआ कि अभावग्रस्त व्यक्ति अपनी क्षमता से ज़्यादा प्रेम भाव रखता है. वह गज़क का डिब्बा  कौशल्या का प्रेम भाव ही तो था शायद. ऐसा ही कुछ सोचते हुए मांजी के मन में उसके प्रेम के प्रति प्रेम जाग उठा और उन्होंने पुरानी रजाई की जगह नई जयपुरी रजाइयों में से एक रजाई उठकर कौशल्या की ओर बढ़ाते हुए कहा, " लाओ दो अपने पीहर की प्रसिद्ध ग़ज़क और यह लो बहू के शहर की प्रसिद्ध जयपुरी रजाई." 

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कौशल्या, मांजी की इस भेंट से ख़ुश हो उठी. और मांजी और कौशल्या के बीच हुए इस प्रेम-विनिमय की गर्ममाहट को हम सब महसूस करने लगे.

writer poorti vaibhav khare
पूर्ति वैभव खरे

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