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कहानी- कर्मयोगी (Short Story- Karmyogi)

"मैं सच कह रहा हूं धोंडू." निश्छलता से मैं भावावेश में बोलता गया, "तुम्हारा जीवन, तुम्हारी जिजीविषा दूसरों के लिए भी उदाहरण बन सकती है. तुम्हारे पास कोई मदद का साधन नहीं, तुम्हें किसी का सहारा नहीं, कोई तुम्हारी मदद करनेवाला नहीं, फिर भी तुम बच्चे होने के बावजूद जूझते रहे, लड़ते रहे भूख से और टूटने का नाम भी नहीं लिया?"

मिरज जंक्शन आ गया था. गाड़ी बदलने के लिए मुझे यहां उतरना पड़ता था. पुल पार कर मैं दूसरे प्लेटफॉर्म पर गया. मेरी गाड़ी आने में अभी देर थी, वहीं एक बेंच पर बैठ इंतज़ार करने लगा, तभी एक पॉलिशवाला बच्चा आया, "… पॉलिस… पॉलिस… साहेबजी पॉलिस?" और मेरे सामने खड़ा होकर आशा भरी नज़रों से मुझे निहारने लगा. मैंने अपने जूतों की ओर देखा. सफ़र में काफ़ी गंदे हो गए थे. खोलकर उसके सामने कर दिए. वह फुर्ती से बैठ मनोयोग से उन्हें चमकाने लगा. बरबस मुझे डेढ़-दो वर्ष पुरानी एक घटना स्मरण हो आई, तब भी गाड़ी बदलने मैं यहां उतरा था. अभी मुश्किल से पंद्रह-बीस कदम चला था कि चौदह-पंद्रह वर्षीय एक लड़का साथ-साथ चलने लगा,
"साहेबजी… ले चलूं?"
"नहीं भाई."
"ले चलने दो न साहेबजी…" वह आर्त स्वर में गिड़गिड़ाने लगा, "दो रुपया दे देना?"
"अरे भई, कहा न नहीं. हल्का-सा लगेज है…"
"तो एक रुपया ही दे देना. ले चलने दो साहेबजी… बड़ी मेहरबानी होगी, दो दिनों से भूखा हूं…"
हैरत से रुककर मैंने उसकी ओर देखा, फटी कमीज़, फटी नीकर, बिखरे बाल, नंगे पैर… सामान्यतः ऐसे बच्चे भूखे होने का बहाना कर भीख मांगते हैं, यह पहला लड़का दिखा जो भूखे होने की दुहाई दे काम मांग रहा था.
"अरे वाह." मेरे मुख से बेसाख्ता निकल गया, "तुम्हारी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी. भूखे होने के बावजूद तुम काम मांग रहे हो, भीख नहीं."
"पहले मैं भीख मांगता था साहेबजी" सूटकेस की ओर बढ़ रहे उसके हाथ यकायक सकुचा गए.
"तुम?"
"हां साहेबजी." आंखें झुका वह हौले से बुदबुदाया.
मैं कुछ समझ नहीं पाया.
होंठ भींच उसने धीरे से नज़रें उठाई, "मैं तो जनम का भिखमंगा था… न मां न बाप.., इधर-उधर मांग कर खा लिया… किसी का फेंका हुआ उठा लिया…"
"फिर?"

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"एक बार एक औरत मिली… यहीं इसी टेसन पर… वो जो तीन नंबर प्लेटफॉर्म है न… वहां… उस घड़ी के नीचे…"
कुछ महीने हो गए. धोंडू यानी वह लड़का उस दिन भी अपनी रोज़ की आदत के मुताबिक मुसाफ़िरों से भीख मांग रहा था. वह महिला अपने बच्चे के संग बेंच पर बैठी ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी. धोंडू उनके सम्मुख हाथ पसारकर खड़ा हो गया.
"मेमसाहेब?"
"क्या है?"
"कुछ खाने को दो न? भूख लगी है."
महिला ने कुछ क्षण उसे ऊपर से नीचे तक देखा, फिर
अपने सम्मुख बैठा, स्नेह से समझाया, "देखो, जो शरीर से लाचार होते हैं, भीख मांगना उनकी मजबूरी हो सकती है. तुम क्यों मांगते हो? भगवान ने तुम्हारे हाथ-पांव सब सही सलामत दिए हैं…"
धोंडू ध्यान देने का नाटक कर मुंह ताकता वैसा ही बैठा रहा. यह सोचते हुए कि बकने दो, जो बकती है. भाषण देने के बाद खाने को तो देगी ही. सुनते रहो…
महिला ने हिम्मत नहीं हारी. पूर्ववत् स्नेह से समझाती रही, "अभी मैंने देखा, उस छोटी बेबी ने अधखाया वड़ा फेंका, उस बड़े पर उधर से एक कुत्ता लपका, इधर से तुम भी…" "अच्छा लगा तुम्हें वैसा करते हुए? इंसान होकर, कुत्ते की बराबरी करते हुए?"
धोंडू सकपकाकर महिला का मुख देखता रह गया.
महिला फिर भी चुप न रही. उसने उसके सुप्त मनोभावों को उभारा, "तुमने उसके पहले एक सेब खाया था… वो उधर पटरी के वहां पड़ा था…"
"वो तो किसी मुसाफ़िर का गिरा हुआ था. कोई मालिक नहीं था उसका. मैं उठाकर खा गया…"
"उतनी 'गंदी' जगह का?"
महिला के चेहरे पर उल्टी करने जैसे भाव उभर आए, "ज़रा देखो पटरी के वहां? तुम्हें घिन नहीं आई?"
"…अ…" वह कोई सफ़ाई पेश नहीं कर पा रहा था, "ग़रीब को काहे की घिन मेमसाहेब?”
"इसमें गरीब-अमीर की कौन-सी बात आ गई बेटे? आख़िर तुम भी एक इंसान हो? जैसा दूसरों का शरीर है, वैसा ही तुम्हारा भी है. दूसरों को बीमारी लगती है, तुम्हें भी लग सकती है. फिर क्या खाना चाहिए ऐसी गंदी जगह का?"
धोंडू के मुंह से बोल नहीं फूट पा रहे थे. जिंदगी में पहली बार कोई उससे इतनी इज़्ज़त से बात कर रहा था. उसे इंसान समझ प्रेम से समझा रहा था, वरना आज तक हर कोई उसे कुत्ते की तरह दुत्कार कर..? हठात् उसकी आंखों से आंसू ढुलक पड़े.
"कुछ समझ में आई मेरी बात?" महिला ने आगे झुक उसके कंधे पर हाथ रखा.
"मेमसाहेब." रूंधे कंठ उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया, "मेरे को तो एक ही बात समझ में आई."
"कौन सी?"
"आप बहुत अच्छी हैं. आप मेरे को खाने को नहीं देंगी… चलेगा, मेरे को कोई ग़म नहीं. आप मेरे से इत्ता प्रेम से बोली… मेरे को ये बहुत अच्छा लगा. पहली बार कोई इत्ता प्रेम से बोला… आज मेरे मां-बाप होते…"
"तो तुम्हारे माता-पिता नहीं हैं?"
होंठ भींच उसने सिर हिला अपने अश्रुपूर्ण नैन झुका लिए.
"ओह…" महिला का स्वर संवेदना से भीग गया, "अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?"
"धोंडू।"
"देखो धोंडू… तुम चाहते हो न, तुमसे भी लोग प्रेम से बात करें, तुम्हें सम्मान दें, दुत्कार नहीं?"
"हां मेमसाहेब.”
"फिर कुछ काम किया करो. भीख नहीं मांगना, अपनी मेहनत की कमाई खाना. मेहनत करनेवाले की हमेशा इज़्ज़त होती है. करोगे न?"

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महिला के समझाने का ढंग इतना प्रेरणादायक एवं मन को छू लेने वाला था कि धोंडू ने उसी क्षण वादा किया. अब कभी भीख नहीं मांगेगा. मेहनत-मजूरी कर जो भी रूखी-सूखी मिलेगी उसी में गुजारा कर लिया करेगा. शुभारम्भ करवाने के लिए महिला ने अपना सामान उससे उठवाया. 
और… उस दिन के बाद… धोंडू ने फिर कभी भीख नहीं मांगी. हमाली करता, मकान का गारे-मिट्टी का काम करता. दिनभर भटकता, जो भी पैसे मिलते उसी में गुज़ारा कर लेता.
यूं बीच-बीच में ऐसा कई मर्तबा हुआ कि उसे पेट भरने लायक मजदूरी नहीं मिली, उस वक़्त भूख की व्याकुलता के कारण उसके मन में पुनः भीख मांगने का विचार सिर उठाता, लेकिन तभी उसकी आंखों के सम्मुख उस देवी सरीखी महिला का चेहरा चमकने लगता, उनके द्वारा दी गई 'धरती माता की सौंगध' याद आती और वह दूने आत्मविश्वास से भर भीख मांगने का विचार दूर छिटका, पानी पी दिन गुज़ार देता. अभी बेचारे को फिर पिछले तीन दिनों से कोई मजूरी नहीं मिली थी…
घुटनों में मुंह छुपा वह फूट-फूटकर रो पड़ा, "अब मुझसे सहन नहीं हो रही साहेबजी… भूख बिल्कुल भी सहन नहीं हो रही. दो दिन हो गए, अनाज का एक दाना मुंह में नहीं गया. पानी पीकर दिन गुज़ार रहा हूं साहेबजी.
अंतड़ियां खिंचने लगी हैं. अब तो पानी का घूंट लेता हूं, तो पेट में दर्द होने लगता है. मेरे पे मेहरबानी करो जी, एक रुपया नहीं तो पचास पैसे दे देना, मेरे से सामान उठवा लो साहेबजी, दया करो."
मेरा हृदय हाहाकार कर उठा. भीग आई आंखों को पोंछ उसके कंधे पर हाथ रखा, "अच्छा-अच्छा निराश मत होओ. सूटकेस उठा लो. तुम्हें पांच रुपए दूंगा." सुनते ही उसका चेहरा खिल उठा, एहसान के भाव से उसके हाथ जुड गए. इसमें सूटकेस उठा लिया. कुछ कदम चलने के बाद मैंने स्नेह से उसकी पीठ थपथपाई, "एक बात बतलाओ धोंडू? जब तक तुम्हें मजूरी नियमित नहीं मिल पाती तब तक तुम कोई छोटा-मोटा काम-धंधा क्यों नहीं कर लेते? मसलन बूट पॉलिश?"
"साहेऽऽब…" आंखें फाड़ उसने मेरी ओर देखा.
"खाने को फूटी कौड़ी नहीं है मेरे पास. बुरुष, पॉलिश‌ ख़रीदने को पैसा कहां से लाऊंगा?"
मैं हौले से मुस्कुरा दिया, उससे इसी उत्तर की आशा थी मुझे. अपनी योजना आगे बढ़ाते हुए मैंने उसके चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं.
"अच्छा, यदि में पॉलिश दिलवा दूं, तब कर लोगे?"
चलते हुए हठात् वह रुककर मुझे अविश्वास से देखने लगा.
"बोलो?"
"मगर साहेबजी…" वह अब भी विश्वास नहीं कर पा रहा था.
"मैं आपका ठिकाना जानता नहीं. मेरा ठिकाना कोई है नहीं, मैं आपका कर्ज़ चुकाऊंगा कैसे?"
"उसका भी उपाय है…" मैंने एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर कहा, "जब तुम्हारे पास कुछ पैसे जमा हो जाएं, तब तुम किसी और भीख मांगनेवाले बच्चे को पकड़ लेना. उसे अपने साथ रोज़गार पर लगा लेना… मेरा कर्ज़ा पट जाएगा?"
आह्लाद में डूबे धोंडू की आंखें यकायक छलछला आई.
वह आश्चर्य से मुझे घूरने लगा. उसे अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं उसे ब्रश-पॉलिश दिलवा दूंगा? उसकी पीठ थपथपा मैंने घड़ी देखी? मेरी गाड़ी आने में फ़िलहाल एक घंटा था. उसे संग ले मैं स्टेशन के बाहर आया. और एक जनरल स्टोर से उसे बूट पॉलिश का सारा सामान दिलवा दिया.
धोंडू स्वप्नलोक में विचरता-सा मेरे पीछे-पीछे चलता रहा. उसे यह सब परीकथा सा लग रहा था. स्टेशन लौट मैं एक बेंच पर बैठ गया.
"अच्छा धोंडू." मैंने जूते खोल उसके सम्मुख कर दिए, "अपने धंधे का श्रीगणेश करो. मेरे जूते पॉलिश कर दो."
आहलाद में डूबे धोंडू की आंखें यकायक छलछला आईं. आस्तीन से आंसू पोंछ उसने धरती मां को प्रणाम किया और थैली में से डब्बी-ब्रश निकाले. डब्बी खोल उसने थोड़ी सी पॉलिश जूते पर लगाई और फिर ब्रश को आड़ा-तिरछा चलाने लगा. अनुभव तो कुछ था अनअभ्यस्त हाथों से कोशिश करता रहा.
"कोई बात नहीं, एक-दो दिन के अभ्यास में अच्छी तरह चमकाने लगोगे…" उसका उत्साह बढ़ा मैंने जेब से दो रुपए निकाले और उसकी ओर बढ़ा दिए.
"… य… य… ये क्या साहेब..?" चौंककर वह दो क़दम पीछे सरक गया. 
"तुम्हारी मजूरी."
"मजूरी" होंठों में बुदबुदा वह रोने लगा, "यह आप क्या गजब कर रहे हैं साहेबजी?… मजूरी आपने पहले ही मेरे पर कितना ख़र्च…"
"वे तो कर्ज़ के हैं धोंडू, उसका अलग है. ये तुम्हारी मजूरी के हैं, इंकार नहीं करते रख लो."
वह फिर भी मना करता रहा. मैंने उठकर जबरन उसकी जेब में डाल दिए. मेरा हाथ पकड़ वह फूट-फूट कर रो पड़ा.
"अरे… अरे… यह क्या करते हो?" .
मेरा हृदय भी भर आया. मैंने दूसरे हाथ से उसकी पीठ थपथपाई, "इस तरह अधीर नहीं होते धोंडू. ईश्वर पर भरोसा रखो. श्रीकृष्ण भगवान का नाम सुना है न?"
"हां साहेबजी." उसने अपना अश्रुपूर्ण चेहरा हिलाया, "उन्होंने कहा था, फल की चिंता मत करो, बस कर्म करते रहो. काम करते रहो, मैं सब देख लूंगा. वे हरेक की चिंता करते हैं धोंडू. वे तुम्हारा भी ख़्याल रखेंगे."
"सच्ची साहेबजी?"
"हां धोंडू, तुम्हारे भी अच्छे दिन आएंगे. चारा पैसे जमा हो जाएंगे. तुम्हारा घर बस जाएगा. इसी तरह मेहनत करते रहो. भगवान मेहनत करनेवाले का साथ देते हैं, तुम्हारा भी देंगे."
धोंडू की आंखों से झर-झर आंसू बहते रहें.
मेरी गाड़ी लग गई थी. कोई विशेष भीड़ नहीं थी. मैंने खिड़की वाली सीट पर मेरा सामान जमा दिया और आराम से बैठ गया. धोंडू नीचे जाकर खड़ा हो गया. गाड़ी रवाना होने में अभी १५-२० मिनट की देर थी. मैंने उसे कहा कि अब वह कोई ग्राहक तलाशे, ग्राहकी का समय है. मगर वह बात अनसुना कर वहीं सटा खड़ा रहा. जब मैंने तीन-चार मर्तबा आग्रह किया, तब सूनी आंखों से मुझे निहार खड़े रहने के लिए मौन याचना करने लगा. उसकी आंखों में छाये एकाकीपन को देख मैं कांप उठा. उफ़! कितना अकेलापन था उसकी आंखों में. इतना बड़ा देश करोड़ों की आबादी, भयावह रूप से बढ़ रही जनसंख्या, मगर इतने सारे लोगों में उसका 'अपना' कहनेवाला एक इंसान नहीं! कितना सालता होगा उसे यह अकेलापन?
मेरा दिल भर आया.

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उसने धीरे से नज़रें उठाई, "मेरी याद आएगी साहेबजी?"
"बहुत याद आएगी धोंडू." मेने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा, "और सच कहूं तो प्रेरणा मिलेगी मुझे तुमसे. कठिनाइयों से लड़ने की, मुसीबतों से जूझने की."
वह हैरत से मुझे घूरने लगा.
"मैं सच कह रहा हूं धोंडू." निश्छलता से मैं भावावेश में बोलता गया, "तुम्हारा जीवन, तुम्हारी जिजीविषा दूसरों के लिए भी उदाहरण बन सकती है. तुम्हारे पास कोई मदद का साधन नहीं, तुम्हें किसी का सहारा नहीं, कोई तुम्हारी मदद करनेवाला नहीं, फिर भी तुम बच्चे होने के बावजूद जूझते रहे, लड़ते रहे भूख से और टूटने का नाम भी नहीं लिया?"
धोंडू विस्फारित नज़रों से मेरे ऊंचे-ऊंचे साहित्यिक शब्दों को सुनता रहा.
"आप तो बेकार ही मेरी तारीफ़…"
"इसमें बढ़-चढ़कर कुछ भी नहीं है धोंडू, तारीफ़ के क़ाबिल तुम हो ही. मैं संयुक्त परिवार का हूं, फिर भी कभी-कभी हिम्मत हार जाता हूं. तुमसे मैं सदा प्रेरणा पाऊंगा धोंडू. अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की. देखना, एक दिन तुम ज़रूर सफल होगे."
गाड़ी ने सीटी दे दी थी. वह धीरे-धीरे रेंगने लगी. धोंडू ने एक बार मेरा हाथ अपनी आंखों से लगा प्रणाम किया और साथ-साथ चलने लगा.
"अब तुम गाड़ी से दूर हो जाओ धोंडू देखो, इसकी गति तेज होती जा रही है."
"मुझे कुछ नहीं होगा साहेबजी." वह गाड़ी के संग-संग दौड़ने लगा.
मैं उठकर दरवाज़े पर आ गया. धोंडू भी उधर आ गया. गाड़ी की गति तेज होने लगी थी.
"अच्छा धोंडू" हाथ उठा मैंने सस्नेह उसे निहारा, "विदा, भगवान ने चाहा तो फिर मिलेंगे."
"ज़रूर साहेबजी, मेरे को भूलना मत." वह कमज़ोरी के कारण हांफने लगा था, "मेरे पर भरोसा रखना साहेबजी. में आपका भरोसा तोडगा नहीं."
गाड़ी अब प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी थी. प्लेटफॉर्म के सिरे पर आ वह बुरी तरह हांफने लगा. खंबे का सहारा ले वह हांफते हुए पूरी ताक़त से चीखने लगा, "वो मेमसाहेब का भरोसा नहीं तोड़ा साहेबजी, आपका भी नहीं तोडूंगा, मेरे पे भरोसा रखना साहेबजी ईऽऽ भूलना मत मेरे को…"
रेलगाड़ी की गड़गड़ाहट तेज होती जा रही थी. उसमें धोंडू की आवाज़ खोती गई. बोगी के द्वार पर खड़ा मैं हाथ हिलाता रहा, कुछ ही क्षणों में वह ओझल हो गया.
अपनी सीट पर आ में धम्म् से बैठ गया.
उसके बाद डेढ़-दो वर्ष बीत गए. इस दौरान छह-सात मर्तबा मैं उधर से निकला. कंपनी का हेड ऑफिस मुंबई था. दो-तीन बार कंपनी के काम से जाते हुए, अपने नेटिव प्लेस खंडवा आते-जाते हुए, गाड़ी बदलते समय अनायास मेरी नज़रें प्लेटफॉर्म पर दौड़ने लगतीं, मगर हर बार निराशा हाथ लगती. धोंडू फिर कभी नज़र नहीं आया.
आज इस बच्चे को देख हठात् धोंडू फिर याद आ गया.
बच्चे ने जूते चमका दिए थे. जेब से दो रुपए निकाल मैंने उसकी ओर बढ़ाए, मगर लेने का उपक्रम न कर वह मौन बैठा रहा. मैं पशोपेश में पड़ गया, भला और कितने लेगा? तभी गौर किया वह मुझे न देख, मेरे पीछे की ओर देख. मंद-मंद मुस्कुराए जा रहा है?
मैंने तुरंत मुड़कर पीछे देखा, चंद कदमों के फ़ासले पर धोंडू खड़ा मुस्कुरा रहा था. पहले से चुस्त-तंदुरुस्त, कपड़े ठीक-ठाक, पांव में जूते भी.
हैरत से मैं किलक पड़ा, "अरे! धोंडू तुम?"
"हां साहेबजी" आह्लाद में डूबा सा धोंडू आगे बढ़ा और मेरे पांव छूने लगा. मैंने पकड़कर गले लगा लिया, "बहुत ख़ुशी हो रही है धोंडू तुम्हें देखकर." मेरा गला भर आया था, "मुझे ख़ुशी है कि तुम अब भी डटे हुए हो."
"हां साहेबजी." रोते हुए उसकी आंखें चमकने लगीं, "और मैंने… मैंने आपका कर्ज़ा… आपका कर्ज़ा भी उतार दिया."
"सच!"
"हां साहेबजी" वह उस बच्चे को खींचकर मेरे पास लाया, "ये जॉनी है, पहले ये भी.. अब मेरे साथ…" उसका गला भर आया.
मेरी आंखों से आंसू बह चले. मैं गर्व से उन नन्हें कर्मयोगियों को देखता रहा. स्व रोज़गार का कितना सुंदर उदाहरण पेश किया था उन दोनों ने. मैंने पूरी शक्ति से दोनों को भींचकर हृदय से लगा लिया. हम तीनों की आंखें ख़ुशी से चमक रही थीं.

- प्रकाश माहेश्वरी

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