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कहानी-  मुखौटे के अंदर (Short Story- Mukhaute Ke Andar)

"अब तो हम शान से कहेंगे कि लेखिका हीरा चंद्रा को हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं."
"सिर्फ़ जानते ही नहीं, हम कहेंगे कि मिसेज चंद्रा हमारी ख़ास मित्रों में से एक है."
मन ही मन मुस्कुराती हुई मैं मुखौटों को पहचानने की कोशिश कर रही थी.

काफ़ी देर से रसोईघर के दरवाज़े से मैं मिसेज राघवन को रोटी बनाते हुए देख रही थी. वे बार-बार रोटी बेलकर पतली रोटी बेलने की कोशिश में रोटी बेलतीं और फिर बिगाड देतीं, हर बार आटा बेलन पर चिपक जाता था. झुंझलाकर उन्होंने मोटी सी रोटी तवे पर सेंकने के लिए डाल दी, तो मैं अपनी हंसी रोक नहीं पाई.
"क्यों भाभीजी, रोटी बनाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ रही है?" हंस कर मैंने कहा.
"अइ… अइयो… आप इधर कब से खड़ी हैं, आइए बैठिए. देखिए न इतनी देर से रोटी बनाने की कोशिश कर रही हूं. लेकिन हर बार भारत का नक्शा बन जाता है." वह खिलखिला के हंस पड़ीं. उनके हाथ से बेलन लेकर मैंने कहा, "लाइए, मैं रोटी बना देती हूं." मेरी रोटी फूलते देखकर वह ख़ुश हो गई थीं.
"क्या करें, हमसे तो रोटी नहीं फूलता. डॉक्टर ने‌ डोसा, ला, परांठा, उत्तपम सब खाने से मना किया है. नर्सिंग होम में तो रोटी मिलती थी खाने में. घर में आकर हमको
रोटी बनाना सबसे कठिन काम लगता है."
"आप फ़िक्र मत करिए. भाईसाहब के लिए रोज़ गरम-गरम रोटियां मैं बना दिया करूंगी." और फिर काफ़ी दिनों तक मैंने गरम रोटियां राघवन साहब के घर पहुंचाईं. राघवन साहब का घर पास ही था, इसलिए मुझे कोई परेशानी भी नहीं थी
"क्या रोटियां बनाती हैं आप समय की पाबंदी से. घड़ी साढ़े बारह बजाना चाहे भूल जाए, लेकिन आपका रोटी पहुंचाने का समय कभी भी नहीं बदलता." राघवन भाईसाहब के चेहरे पर संतुष्टि देखकर मुझे ख़ुशी की अनुभूति होती.
जिस दिन सुशांत ने राघवन साहब के दिल का दौरा पड़ने की ख़बर घर आकर सुनाई थी. मुझे अपने पिताजी याद आ गए थे. वह भी तड़पे होंगे मेरे लिए ऐसे ही और मैं ही नहीं पहुंच सकी थी. उन दिनों पटना में बाढ़ आई हुई थी  हम लोग पूरी तरह सुरक्षित थे. फिर भी घर की कोई ख़बर हमें नहीं मिल पाती थी. उन्हीं दिनों पिताजी चल बसे थे. ठीक यही हाल आजकल दिल्ली में है, इतनी हिंसा भड़की है कि कहीं से कोई ख़बर मिलना मुश्किल है. राघवन साहब के बच्चे दिल्ली में हॉस्टल में रहते हैं. बूढ़ी मां मोतियाबिंद की वजह से देख नहीं पातीं, इसीलिए उन्हें मद्रास में ख़बर नहीं दी है.
बेकार में परेशान होंगी.


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राघवन साहब हमारे पड़ोसी हैं. रिटायर होने में कुछ महीने ही बाकी हैं. इसलिए ज़्यादातर छुट्टी लेकर ताश पार्टियों में समय व्यतीत करते हैं. हर वक़्त उनके यहां जमघट लगा रहता है. लेकिन जब से उन्हें दिल का दौरा पड़ा है, तब से लोगों का आना-जाना कम होने लगा है. हां, पड़ोसी होने के नाते हम लोगों ने राघवन साहब की दवा, फल, नर्सिंग होम लाने-पहुंचाने की पूरी ज़िम्मेदारी ले ली थी. कई-कई बार सुशांत नर्सिंग होम का चक्कर लगाते, मिसेज राघवन को मैं हिम्मत बंधाती कि हम लोगों के रहते वह बिल्कुल फ़िक्र न करें.
मिसेज राघवन का मेरे व्यवहार पर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही था, क्योंकि हम लोगों का उनके घर कभी ताश या किटी पार्टी में आना-जाना था ही नहीं. हमारा मिलना जुलना होली-दीवाली तक ही सीमित था.
राघवन साहब की तबियत पहले से काफ़ी सुधर गई, तो लोगों ने फिर उनके घर मजमा लगाना शुरू कर दिया था. रात के बारह बजे तक ताश की मंडली जमने लगी थी. चाय-कॉफी का दौर फिर पहले की तरह शुरु हो गया, तो हम लोगों का आनाजाना कम हो गया.
उस दिन मेरी गैस ख़त्म हो गई थी. सोचा कि मिसेज राघवन के पास तो दो-तीन सिलेंडर अलग से रखे रहते हैं. और दो दिन पहले ही उनकी नई गैस भी आई थी. उनसे सिलेंडर मांग लूं. एक-दो दिन में मेरी आ जाएगी, तो वापस कर दूंगी. हालांकि कुछ भी न मांगने का मेरा उसूल मेरे पैर आगे नहीं बढ़ा पा रहा था, फिर भी हिम्मत कर ली मैंने. मिसेज राघवन के ड्रॉइंगरूम के बाहर मेरे पैर ठिठक गए थे.
"अरे, वो रोटियां तो मैं कुत्ते को फेंक दिया करती थी और बदले में इडली और सांबर खूब भेजा करती थी." मिसेज राघवन की आवाज़ ने मेरे कदम शिथिल कर दिए थे. अंदर से आती आवाज़ें मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल रही थीं. कॉलबेल पर हाथ रखते ही अपना नाम सुना तो हाथ वहीं रुक गए.
"मिसेज चंद्रा को तो लेखिका बनने का भूत सवार है."
"ठीक कहती हो तुम, वह ख़ुद को न जाने क्या समझती है. पूरा जाड़ा बीत गया. हम सब महिलाएं मिलकर धूप में बैठती हैं, पर उन्हें गपशप करने की फ़ुर्सत ही नहीं है."
सुनंदा का स्वर था.
"क्या मिसेज चंद्रा की कोई कहानी छपी है कहीं?"
मिसेज नायडू मुंह में पान रखती हुई बोलीं.
"हां, सुना तो है. स्थानीय पत्रिका में छपी है कोई कविता, लेकिन कौन पढ़ें."
"मैंने एक दिन मिसेज चंद्रा से कहा था कि हमारे लेडीज़ क्लब की मेंबर बन जाइए, तो पूछने लगीं, 'क्या होता है क्लब में.' मैने बताया, दो सौ रुपए महीने सब सदस्यों से लेकर जमा करते हैं और जिसके घर में महीने में एक बार ताश पार्टी होती है, वहीं रुपए‌ ख़र्च हो जाते हैं चाय-नाश्ते में. तो मिसेज चंद्रा ने माफ़ी मांग ली थी- यह कहकर कि ताश तो मैं कभी खेलती नहीं."
"कुछ आता हो तब तो क्लब की सदस्य भी बनें."
हा.. हा.. हा.. हा… ज़ोरदार ठहाके गूंज गए.
"हमारे पति तो सब पोथी-पत्रा आग में झोंक दें."
"और नहीं तो क्या."


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एक-एक आवाज़ जानी-पहचानी है, लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा दुख मिसेज राघवन की बातों से हुआ और कुछ सुनने की हिम्मत मुझमें नहीं थी.
"ख़ैर कुछ भी कहिए, आख़िर उन्होंने भाईसाहब के लिए बहुत दिन तक गरम-गरम रोटियां भेजी तो, वरना वह तो किसी के घर बहुत ज़्यादा आती-जाती तक नहीं." नीरा की बातों ने मेरे कदमों की चाल बढ़ा दी और मैं उल्टे पैरों वापस आ गई.
घर में आते समय पोस्टमैन को देखा. शायद मेरी कोई रचना या कविता वापस आई है, क्योंकि लिफ़ाफ़ा वही है, जो मैंने टिकट लगाकर, अपना पता लिखकर रचना के साथ भेजा था, ताकि अस्वीकृत होने पर रचना वापस की जा सके.
"मम्मी, आपकी रचनाएं, संपादक के खेद सहित." सुमि हंसी.
"फिर से कोई कविता या कहानी वापस आई है क्या?" सुशांत ने पूछा.
मेरी चुभन बढ़ गई. सोचने लगी, सब मुझ पर हंसते हैं, क्योंकि मेरी कोई कविता, लेख, कहानी, किसी पत्रिका में नहीं प्रकाशित हुई है. यहां तक कि जब पोस्टमैन ज़ोर से लिफ़ाफ़ा ग्रिल के अंदर फेंकता है, तो वह मेरे दिल पर चोट करता है. मैं क्या करूं? एक दिन सब कहानी, कविताओं में आग लाग दूं, तो क़िस्सा ही ख़त्म हो जाएगा, लेकिन… एक छोटी सी स्थानीय पत्रिका में एक बार मेरी कविता छपने की सूचना मुझे मिली थी. उसी दिन से मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया था.
"लाओ सुमि, देखें तो क्या है?" सुशांत ने हाथ बढ़ाया. मेरे तन-बदन में आग सी लग गई. सुमि के हाथ से लिफ़ाफ़ा छीन कर में अंदर आ गई. सफ़ेद रंग का. मेरे हाथ का लिखा पता, लंबा लिफ़ाफ़ा, मैं समझ गई, कोई कविता वापस आई है.
सुमि की आवाज़ें मेरे कानों में सुइयां चुभो रही थीं.
"हमें खेद है, हम आपकी रचना का उपयोग अपनी पत्रिका में नहीं कर पा रहे हैं. अन्यत्र उपयोग के लिए रचना वापस की जा रही है." वही रटे-रटाये से कुछ वाक्य, जो कहानी-कविता की वापसी की अवस्था के बाद सुनने या पढ़ने को मिलते थे.
तकिये के नीचे लिफ़ाफ़ा रखकर, आंख बंद कर मैं लेट गई बुझे मन से. लिफ़ाफ़ा खोलकर देखने की इच्छा नहीं हुई. नहीं, अब और हंसी नहीं उड़वाउंगी अपनी. आज ही सारी कहानियों, कविताओं को आग लगाकर ख़त्म कर डालूंगी, न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.
"नाराज हो गई क्या मैडम? एक कप चाय नहीं पिलाओगी." सुशांत ने पलंग पर लेटते ही चिकोटी काट ली, मैं चुपचाप उठी और किचन में चाय का पानी गैस पर चढ़ाकर विचारमग्न हो गई. आज के बाद सब ख़त्म कर दूंगी. कभी काग़ज़ पेन को कोई रचना लिखने के लिए हाथ नहीं लगाऊंगी.
"अरे भई, कहां हो बेगम? यह देखो तुम्हारी कहानी का ८००/- रुपए का चेक आया है." सुशांत ने पलंग पर उछलते हुए कहा तो जल्दी से आकर मैंने झपट कर लिफ़ाफ़ा छीन लिया. बेकार में मुझे चिढ़ा रहे हैं, यह सोचकर.
लेकिन… यह क्या… मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था.
'संपादक के अभिवादन सहित' पर मेरी निगाहें स्थिर हो गईं. क्या ये सच है? इतनी बार निगाहों ने 'संपादक के खेद सहित पढ़ा है.' अनगिनत रचनाएं वापस आ जाती है. इसी डर से आज मैं लिफ़ाफ़ा खोल कर नहीं देख रही थी.

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जंगल की आग की तरह यह ख़बर कॉलोनी में फैल गई. अगले दिन सब पड़ोसिनें मिठाई खाने और मुबारकबाद देने आईं. सबकी ज़ुबान पर प्रशसा थी. सब मेरी तारीफ़ों के पुल बांधते जा रहे थे.
"अब तो हम शान से कहेंगे कि लेखिका हीरा चंद्रा को हम बहुत अच्छी तरह जानते हैं."
"सिर्फ़ जानते ही नहीं, हम कहेंगे कि मिसेज चंद्रा हमारी ख़ास मित्रों में से एक है."
मन ही मन मुस्कुराती हुई मैं मुखौटों को पहचानने की कोशिश कर रही थी.

- मंजरी सक्सेना

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