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कहानी- अंतिम यात्रा (Short Story- Antim Yatra)

"ध्यान से सुन लो बुआ, वह व्यक्ति तुम्हारा भाई हो सकता है, मेरा पिता या मेरी मां का पति नहीं. मेरे लिए मां भी वही थी और पिता भी. मेरी मां का श्रृंगार एक मां की भांति ही होना चाहिए. जिस व्यक्ति का मां के जीवनकाल में उनसे कोई रिश्ता नहीं रहा, उसका मृत्यु के बाद उनसे कैसा रिश्ता?"

"माधवी की अंतिम विदाई है. इसे दुल्हन की तरह सजाओ, सुहागिन आज सुहागिन दिखनी भी चाहिए." अभी मैं आदेश दे ही रही थीं कि मयंक बोल उठा, "ये मेरी मां हैं. इनको मां की तरह सजाओ, सुहागिन अथवा दुल्हन की तरह नहीं. यह किसी की सुहागिन नहीं... दुल्हन नहीं है."
"अपने पिता के जीवित होने पर भी तुम ये कैसी बातें कर रहे हो? माधवी का पति जीवित है. वह सुहागिन है. उसे अंतिम विदाई उसी तरह दी जानी चाहिए," कहते हुए मैंने जब उसे बाहर जाने के लिए कहा तो वह बिफर गया, "किसकी सुहागिन? कैसी सुहागिन? कैसा
पति? वह पति जिसने पर नारी के कारण उसे परित्यक्ता का जीवन जीने को बाध्य किया. कौन पति? जिसने अपने होते हुए पत्नी को विधवा बना डाला. ध्यान से सुन लो बुआ, वह व्यक्ति तुम्हारा भाई हो सकता है, मेरा पिता या मेरी मां का पति नहीं. मेरे लिए मां भी वही थीं और पिता भी. मेरी मां का श्रृंगार एक मां की भांति ही होना चाहिए, जिस व्यक्ति का मां के जीवनकाल में उनसे कोई रिश्ता नहीं रहा, उसका मृत्यु के बाद उनसे कैसा रिश्ता?.." वह अपनी री में बोलता जा रहा था और मैं उसकी बातों को सुनकर पच्चीस वर्ष पूर्व की दुनिया में जा पहुंचीं,
अब से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व साधारण शक्ल-सूरत, लेकिन आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी माधवी के घर में बहू बनकर आने पर सारे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. अपने व्यवहार से थोड़े ही दिनों में उसने सबका दिल जीत लिया और ननद, देवर व सास-ससुर सबकी ज़रूरत बन गई. यदि किसी का दिल वह नहीं जीत पाई तो वह था सुदेश. सुदेश मेरा भाई व उसका पति. इस घर में उसका सर्वेसर्वा, जिसके भरोसे वह ब्याह कर इस घर में आई थी.

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एक अय्याश चरित्रहीन व्यक्ति, जिसने नारी को मात्र एक शरीर समझा कभी उसकी भावनाजों व प्यार को समझने का प्रयास ही नहीं किया. माधवी का प्यार व समर्पण उसे माधवी की कमज़ोरी प्रतीत होता और उस पर अत्याचार करना अपना अधिकार. सुदेश की हरकतों, आदतों व उससे शादी के लिए उसने कभी हमें दोषी नहीं माना.
वह अपने इस विश्वास पर अडिग रही कि प्यार व समर्पण पत्थर को भी पिघला देता है. फिर सुदेश तो इन्सान है, जिसमें कहीं न कहीं भावनात्मक अंश अवश्य होगा. लेकिन जब सामने वाला न सुधरने की ज़िद लेकर बैठा हो तो कोई क्या करे.
मयंक के जन्म पर सभी को पुनः यह आशा बंधी कि शायद बच्चे का मुंह देखकर सुदेश अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करे. लेकिन अफ़सोस कुत्ते की दुम की तरह न केवल सुदेश का व्यवहार अपरिवर्तनीय रहा, बल्कि ये सोचकर कि एक बच्चे की मां माधवी अब कहां जाएगी, वह और भी लापरवाह हो गया.
एक दिन जब वह दौरे पर बम्बई गया, तो वापस आया उसका पत्र, जिसमें उसने माधवी से तलाक़ अथवा दूसरी शादी की इजाज़त के बारे में लिखा था. उस स्थिति में यदि माधवी चाहती तो सुदेश को तलाक़ देकर अपने अन्य सभी दायित्वों से मुक्ति पा सकती थी, लेकिन नहीं, उसने तलाक़शुदा की ज़िंदगी स्वीकार करने की जगह सुदेश को दूसरी शादी की इजाज़त देकर त्याग का परिचय दिया. साथ ही व्यक्तित्व की सुदृढ़ता दिखाते हुए सुदेश के समस्त दायित्वों को अपना कर्तव्य मान लिया. उसका विश्वास था कि जिसे प्यार व समर्पण न बांध सका, उसे ज़ोर-ज़बरदस्ती से बांधने से कोई लाभ नहीं. यह टूटी तो ज़रूर, लेकिन जल्द ही संभलकर एक सुदृढ़ नारी के रूप में सामने आई. देखकर लगा जैसे २६-२७ की उम्र में ही वह परिपक्व हो गई है.

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एक साल के मयंक व बूढ़े सास-ससुर के साथ उसने पुनः अपना जीवन संघर्ष शुरू किया. सुदेश बीच-बीच में माता-पिता से मिलने आता रहता. लेकिन न तो उसने माधवी से मिलने का प्रयास किया और न ही माधवी ने उसे प्रेरित किया. मम्मी-पापा से ही पता चला कि उसने दूसरी पत्नी से तलाक़ ले लिया है. वास्तव में वह बहता पानी था, जिसे कोई भी बांध नहीं पाया. जब तक मम्मी-पापा रहे सुदेश की सूचना मिलती रही. पता चला कि वह कपड़े की तरह औरतें बदल रहा है. मालूम नहीं वह क्या तलाश रहा था. शायद माधवी सा समर्पण अथवा चरित्र की सुदृढ़ता? लेकिन वापस आने का साहस न तो वह कर सका और न माधवी ने ही उसे प्रेरित किया.
शायद वक़्त के थपेड़ों ने उसे सीधा कर दिया था. और वह सत्य जिसे वह माधवी के जीते जी स्वीकार करने को तैयार नहीं था, उसकी मृत्यु पर उसे खींच लाया. इसीलिए माधवी की मृत्यु की सूचना किसी मित्र के माध्यम से मिलते ही वह चला आया. उसे देखने के बाद, उसके जीवित होने पर माधवी की दुल्हन की तरह सजाने का प्रसंग उठ खड़ा हुआ. लेकिन शायद मयंक ठीक ही कह रहा है. माधवी को एक मां व नारी के रूप में ही सजाना ठीक है. जिसे जीते जी सुहागिन का सुख न मिला हो, उसे अब वह देने से क्या लाभ. इससे पहले कि मैं मयंक के निर्णय पर स्वीकृति की मुहर लगाती, मयंक ने मुझे झकझोरते हुए कहा, "बुआ, तुम मां को मेरी मां के रूप में सजाओ, उसकी चिता को अग्नि उसका बेटा देगा, नामधारी पति नहीं. इस आदमी को यहां से जाने के लिए कह दो, मेरा व मेरी मां का इससे कोई संबंध नहीं."
अपने ही कर्मों के हाथों असहाय सुदेश में मयंक की बात को काटने का साहस शायद बाकी नहीं था. इसलिए बाहर वालों की तरह मूक रहा.

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माधवी की अंतिम यात्रा में सम्मिलित हो वापस चला गया, जो वास्तव में एक मां की अंतिम यात्रा थी, किसी सुहागिन की नहीं.
- अमीता आनंद

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