दरवाज़ा खोला तो देखा, कमरा एकदम खाली है. न अमित, न अमित का सामान. मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गई. बहुत ही ग़ुस्सा आया अमित पर. पर क्या करती? चुपचाप घर लौट आई. रात भर अपने सपनों के महल ढह जाने का मातम मनाती रही और तकिए को अपने आंसुओं से गीला करती रही. घर में कोई भी मेरा दुख न जान पाया..
"आज के अपने हंसते-खेलते परिवार को देखकर जब कभी मैं बीते समय के अंधकार में डूब जाती हूं, तो मुझे दहशत सी होने लगती है. मैं किस भटकन के कगार पर पहुंच चुकी थी.
मेरा परिवार एक सुसंस्कृत परिवार था. पैसे की कमी न थी और लड़के-लड़की में कोई भेदभाव न समझा जाता था. अपने दो भाइयों अखिल और अभिषेक की मैं छोटी दुलारी बहन और माता-पिता की आंखों का तारा थी. सब के स्नेह ने मुझे थोड़ा स्वाभिमानी बना दिया था. मां कभी-कभी दूसरे परिवार में जाने की दुहाई देकर मुझ पर अंकुश लगाने का प्रयत्न करती, पर
स्वयं की ममता के कारण अधिक कठोरता नहीं कर पातीं.
इसी प्रकार स्नेह के झूले में झूलते मैं अठारह वसंत देख और कॉलेज में आ गई. अपने पुरुष सहपाठियों की आंखों में अपने सौंदर्य के प्रति रुझान देखकर मुझे सुंदरता पर गर्वित होने का मौक़ा मिलता.
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मेरे भाई अभिषेक का एक मित्र था. वह गरीब था. अभिषेक ने हमारे घर उसे एक छोटा सा कमरा दिलवा था. ट्यूशन करके वह अपनी पढ़ाई कर था. मैं भी कभी-कभी उससे मदद लेने चली जाती. ऐसे ही एक दिन उसकी डायरी नज़र पड़ी. वह उस समय घर पर नहीं था. डायरी में उसके द्वारा लिखित कुछ कहानियां और कविताएं थीं.
एक कविता पर नज़र पड़ी. नाम था, 'अर्चना को अर्पण', अपना नाम देखकर मैं कविता पढ़ने लगी, पढ़कर लग रहा था कि मैं आकाश में उड़ने लगी हूं. मेरे बारे में कोई इस प्रकार सोच सकता है, यह पढ़कर मन आलोड़ित हो उड़ने लगा. अपने को मैं महारानी समझने लगी.
अमित को आता देखकर मैंने वह डायरी अपने बैग में रख ली. उस दिन मेरा पढ़ने में मन नहीं लगा, मैं जल्दी ही घर चली आई. रात में मैने डायरी निकाली और पढ़ने लगी. उस डायरी को पढ़ते-पढ़ते मैं अमित के सपनों में खो गई. मैंने भी एक छोटा सा प्रेम पत्र लिखा, जिसमें अपनी भावनाओं को दर्शाया और पत्र डायरी में रख दिया.
अगले दिन वह डायरी जब मैने अमित को दी, तो वह सिटपिटा गया. उसका मुंह उतर गया कि शायद मैं अपने घर में शिकायत कर दूंगी. मैने उसे कुछ नहीं कहा और डायरी देकर घर चली आई, पर उस दिन से मैं सदैव सपनों में खोई रहती और उन सपनों का राजकुमार होता 'अमित'. मैं अपने ख़्यालों में डूबी हुई थी कि सुना, मां और पिताजी मेरे विवाह की चर्चा कर रहे थे. अब तो मेरा दिल धक-धक करने लगा. मुझे अपने सपने बिखरते नज़र आए.
सवेरा होते ही में अमित के पास जा पहुंची. उसे अपनी व्यथा सुनाई.
"मैं तुम्हारी हूं अमित. चलो हम शादी कर लें. तुम मेरे मां-पिताजी से मेरा हाथ मांग लो." अमित दुविधा में पड़ गया, उसने मुझे बताया कि मैं ग़रीब हूं. अभी मेरे अपने ही रहने-खाने का ठिकाना नहीं है, तुम्हें किस तरह मांगू? तुम्हें कहां रखूंगा? तुम इतने नाजों में पली हो.
पर मैं तो अपने जज़्बात में इतनी मग्र थी कि मुझे अमित की समझदारी उसकी बेवफ़ाई लगी. अंत में मैंने उसे भागने के लिए प्रेरित किया. उसने मुझे बहुत समझाया, पर मैं तो अपने ही चाहत को परिपूर्ण करना चाहती थी. अतः उसे भागने के लिए प्रेरित करती रही. एक दिन उसने केवल इतना ही कहा, "देखो अर्चना, तुम तो मेरी हालत जानती हो. भागने के लिए कुछ रुपए तो चाहिए, ताकि कुछ समय हम निश्चित रह सकें."
मैंने कहा, "तुम चिंता मत करो. वह समस्या मैं सुलझा लूंगी." एक सप्ताह बाद रात्रि में बारह बजे अमित के घर में जाने का निश्चय किया. यह सात दिन तो बस जैसे गुज़र ही नहीं रहे थे. क्या-क्या योजना बनाती, क्या-क्या ख्याली पुलाव बनाती अमित को लेकर.
अंत में वह रात आ पहुंची. मां-पिता से बिछोह का दुख मेरे ऊपर कुछ असर नहीं डाल रहा था. मैं केवल अमित के साथ के नशे में चूर थी. एक छोटे से बैग में रुपए और कुछ जेवर तथा कुछ कपड़े लेकर मैं रात में बारह बजे अमित के घर जा पहुंची. अमित के घर में रोशनी थी, लगा कि अमित भी मेरा इंतज़ार कर रहा है, पर यह क्या? दरवाज़ा खोला तो देखा, कमरा एकदम खाली है. न अमित, न अमित का सामान. मैं तो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गई. बहुत ही ग़ुस्सा आया अमित पर. पर क्या करती? चुपचाप घर लौट आई. रात भर अपने सपनों के महल ढह जाने का मातम मनाती रही और तकिए को अपने आंसुओं से गीला करती रही. घर में कोई भी मेरा दुख न जान पाया.
समय बीतते देर नहीं लगती. मेरी तो आकांक्षाएं ही मर गई थीं, अतः मा-बाप के चयन के अनुसार अरुण के साथ मेरा विवाह हो गया. अरुण अच्छे पति थे, मेरा बहुत ही ख़्याल रखते थे. सब सुख उन्होंने प्रदान कर रखे थे, पर कभी-कभी मन के कोने में टीस उभर आती थी और मैं अमित के ख्यालों में डूब जाती. लेकिन पत्नी धर्म का निर्वाह ठीक से कर रही थी. अरुण भी प्रसन्न थे. अपने मित्रों में मेरी अथाह प्रशंसा करते वे अघाते नहीं थे, एक पुत्ररत्न पाकर तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा.
लेकिन शायद भगवान मेरी टीस की व्यथा समझ रहा था. एक दिन में बाज़ार में सामान ख़रीदकर टैक्सी के इंतज़ार में खड़ी थी कि एक एयरकंडीशन कार मेरे सामने रुकी. उसमें अमित को पीछे बैठे देखकर आश्चर्य में पड़ गई. अमित ने दरवाज़ा खोला, तो मैं बेहोशी सी हालत में हो गई. वह मुझे अपने साथ होटल में ले गया. होटल फाइवस्टार था. वातानुकूलित कमरे में मैं आश्चर्य और प्रसन्नता से सम्मोहित उसके सामने बैठी थी. मैं उससे कुछ पूछूं उससे पहले ही वह अपनी दास्तान सुनाने लगा.
उसके पलायन का कारण मेरे साथ जीवन की कामना थी, पर कुछ बनना था. उसकी कविता, कहानियां पसंद की जाने लगीं. एक कहानी किसी फिल्म निर्माता को पसंद आ गई. फिल्म हिट हो गई. तो लक्ष्मी जी घर में विराजमान हो गईं. बंगला, कार, नौकर सब सुख उसके पास है, पर केवल अर्चना की कमी है. मैं उसकी बातों में खो गई. मेरे सोए हुए जज़्बात फिर उभर आए. मन में ज्वार-भाटा उठने लगा. अमित ने सुझाव दिया, "अर्चु, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. चलो दो साल पहले की अभिलाषा आज पूर्ण कर लेते हैं." मैं अपने बीते सपनों के साकार होने की ख़ुशी में झूम उठी. उसी रात बारह बजे स्टेशन पर मिलने का वादा कर मैं घर लौटी.
घर में सामान्य रहने की कोशिश करते हुए सब काम करने लगी. पति के आने का समय निकल गया. वे तो कभी देर नहीं करते थे. रात के १० बजे वे आए, साथ में एक छोटा सा बच्चा था. मेरी आंखों के प्रश्न को देखकर उन्होंने बच्चे को नौकरानी को दे दिया. फिर बताने लगे कि यह बच्चा उनके दोस्त प्रमोद का है. आज प्रमोद की पत्नी अपने पुराने प्रेमी के साथ भाग गई और प्रमोद उस अपमान को सह न सका, उसने आत्महत्या कर ली. इस बच्चे ने उन दोनों का क्या बिगाड़ा था? यह अनाथ हो गया, इसलिए मैं इसको यहां ले आया हूं. अर्चना तुम तो अन्नपूर्णा हो. इस बच्चे को भी अपने बच्चे के समान अपनी ममता देना. एक मासूम की ज़िंदगी बच जाएगी." अरुण तो अपनी कहानी सुना कर खाना खाकर थकावट के कारण सो गया, पर मैं अपने अंतर्मन की छटपटाहट के कारण सो न सकी और न अमित के पास जा सकी. अपने बच्चे के अनाथ होने के भय से मैं भटकन की इस कगार पर पहुंच कर भी गिरते-गिरते बच गई.
- इन्दु गुप्ता
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