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कहानी- नारी मुक्ति और मैं (Short Story- Nari Mukti Aur Main)

कई बार एकांत में दबे कदमों एक प्रश्न मेरे सामने आ खड़ा होता- नारी मुक्ति का अर्थ क्या है? नारी मुक्ति के नाम पर हम क्या चाहते हैं? क्यों यह एक शब्द मेरे वजूद पर इस कदर हावी है कि मैं आकाश के सामने सहज समर्पण नहीं कर पाती. मुझे आकाश में पुरुष और स्वयं में नारी क्यों दिखने लगती है?

आकाश अभी तक नहीं आए थे. कितनी ही बार मैं गेट तक जा कर लौट चुकी थी. अपनी बेक़रारी पर मैं स्वयं चकित थी. मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था. बुरे-बुरे ख़्याल दिल पर हावी होते जा रहे थे, जैसे-जैसे समय बीत रहा था मन बेकाबू होता जा रहा था. ख़ुद से हारकर मैं गेट पर ही खड़ी हो गई. बलखाती नागिन सी लंबी सड़क पर दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था.
सांझ ढलने लगी थी. पक्षियों का कलरव, जो सदा मेरे मन को भाता रहा है. आज अप्रत्याशित रूप से डरावना लग रहा था. ढलते सूर्य की लालिमा चारों ओर छिटकी हुई थी. सभी पक्षी अपने-अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे. परंतु आकाश अभी तक नहीं लौटे थे. सुबह अपने मित्र के घर से एक घंटे में लौटने की बात कह कर गए थे, पर सांझ ढले तक उनकी कोई ख़बर नहीं थी.
आकाश जैसे इंसान के व्यक्तित्व से यह बात मेल नहीं खाती. उनका हर कार्य बहुत व्यवस्थित व सलीके से होता, नियम-संयम के वे कायल थे. दूसरों को उनके किसी कार्य से कोई असुविधा न हो, इसका ख़्याल उन्हें सदैव रहता. फिर मेरी परेशानी का कारण वे स्वयं बनेंगे, इसका तो प्रश्न ही नहीं उठता. मेरी ख़ुशी के लिए तो वे जान भी देने में नहीं हिचकिचाएंगे, इसमें कोई संशय नहीं. अवश्य ही कुछ अनिष्ट घटित हुआ है. यह ख़्याल आते ही हृदय तेज़ी से धड़कने लगा.

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नयनों में छलक आए मोतियों को नियंत्रित कर मैं पेड़ों की लंबी होती परछाई देखने लगी, अपने अन्दर की इस नारी से तो मेरा परिचय आज और अभी ही हुआ था. क्या प्यार इंसान को इतना बदल देता है?
मैं एक स्वच्छन्द माहौल में पली-बढ़ी, नारी मुक्ति की प्रबल समर्थक, बात-बात में पुरुषों के अहम को आहत करने वाली स्त्री, एक पुरुष के मात्र देर से आने पर इस कदर विचलित हो उठी, स्वयं मैं ही विस्मित थी. आकाश के प्यार का रंग न जाने कब मुझ पर इतना गहरा चढ़ गया कि मैं स्वयं को ही भूल गई. बात-बात में विद्रोह का झंडा उठाने वाली मैं आज अचानक कितनी निरीह हो उठी थी.
आकाश के साथ सात फेरे लिए मुझे कल एक साल हो जाएगा. आकाश का शादी की वर्षगांठ को जोश के साथ मनाने का उत्साह मेरी ठंडी प्रतिक्रिया में फीका पड़ गया था. अपनी मूर्खताएं अब एक-एक कर चलचित्र सी सामने आ रही थी.
मेरी परवरिश एक पुरुषविहीन परिवार में हुई. मैं शायद दो बरस की थी जब मेरे माता-पिता के बीच अलगाव हुआ. मां की आंखों में मैंने सदा पुरुषों के लिए छलकती नफ़रत देखी है. परिवार में बस मैं थी और मेरी मां, जो कई महिला समितियों से जुडी हुई थीं. प्रतिदिन नारी मुक्ति की बातें, गोष्ठियां, जुलूस और हास-परिहास. यह सब स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर रचता बसता गया. जैसे-जैसे में बड़ी होती गई एक अच्छी वक्ता बनती गई. स्कूल, कॉलेत, यूनिवर्सिटी हर जगह वाद-विवाद, भाषण देने में मैं सदा आगे रही. और जब बात नारी मुक्ति की करनी हो, तो भला मुझे कौन हरा सकता था. विद्रोह तो मेरे अंदर रचा-बसा था. युवा होते ही मैं सक्रिय रूप से नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़ गई. मेरे आक्रामक लेख, उग्र भाषण, विद्रोही तेवर, बुलंद हौसले ने मेरे अपने शहर में मेरी एक अलग पहचान बना दी थी, जिससे मुझे एक अनजाना सा सुकून मिलता. कच्ची उम्र में मिली इस प्रसिद्धि में एक नशा सा हो गया था मुझे.
नारी मुक्ति की प्रबल समर्थक मेरी मां अंदर से नारी थीं और एक मां भी थीं. उन्हें मेरे विवाह की चिंता होने लगी. भला मुझ जैसी विद्रोहिणी को कौन अपने घर की बहू बनाता? मां परेशान हो उठीं. ऐसे में हमारे शहर से दूर मौसी ने अपने शहर के एक सज्जन प्रवक्ता आकाश से मेरा परिणय करवा दिया.
विवाह के अवसर पर कहे सखी सहेलियों के शब्द, "अब
तेरा यह तेवर उड़न छू हो जाएगा. देखना भीगी बिल्ली बन कर लौटोगी..." सदा मेरे मस्तिष्क में गूंजता रहता.
आकाश का सरल समर्पण, निश्छल प्रेम, उदार व्यक्तित्व मुझे आश्चर्य में डाल देता.
आकाश के साथ एक छत के नीचे रहते मुझे विश्वास ही नहीं होता कि पुरुष ऐसे होते हैं. मेरी धारणा तो ठीक इसके विपरीत थी. मैं आकाश को नीचा दिखाने के अवसर खोजती रहती, परंतु आकाश तो सचमुच आकाश सा विशाल था. चारों ओर फैला हुआ अपने वजूद का एहसास दिलाता. किंतु कहीं कोई रोक-टोक नहीं, मैं जो चाहती करती. किसी बात की कोई मनाही नहीं थी. अपनी सहेलियों के सामने कैसे जाऊंगी, यह
सोचकर आकाश को लड़ने का अवसर प्रदान कर, उसे नीचा दिखाने का सुअवसर पाने की योजना बनाने लगी,
एक दिन दाल में तीन बार नमक डाला और सख्ती में थोक के भाव से मिर्च और आकाश की तीखी प्रतिक्रिया के लिए तैयार हो कर बैठ गई. परंतु नहीं, आकाश तो पानी के सहारे ही भोजन गले के नीचे उतार ले गए. मैं ही स्लानि से भर उठी. पूछने पर बोले, "कोई बात नहीं, कभी-कभी ग़लती हो ही जाती है. तुम मेरे लिए जान-बूझकर तो ऐसा खाना बनाओगी नहीं.

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तुमसे नहीं खाया जा रहा हो, तो चलो तुम्हें बाहर कुछ खिला लाऊं."
उस दिन तो हद ही हो गई थी. आकाश को किसी सेमिनार में जाना था. मैंने जान-बूझकर आकाश की प्रिय शर्ट के सारे बटन तोड़ डाले और निश्चित हो गई कि आज तो आकाश फटेगा ही. परंतु तेज़ी से तैयार होते आकाश ने शर्ट के टूटे बटन देखें और उतार कर दूसरी पहन कर चले गए. मैं ही सारे दिन बेचैन रही. लौटने पर कहने लगे, "तुम इतनी अपसेट क्यों हो? सेमिनार में जो बोलना था, वह मुझे बोलना था, मेरी शर्ट को तो नहीं? बटन ही तो टूटे हैं फिर लग जाएंगे."
कई बार एकांत में दबे कदमों एक प्रश्न मेरे सामने आ खड़ा होता- नारी मुक्ति का अर्थ क्या है? नारी मुक्ति के नाम पर हम क्या चाहते हैं? क्यों यह एक शब्द मेरे वजूद पर इस कदर हावी है कि मैं आकाश के सामने सहज समर्पण नहीं कर पाती. मुझे आकाश में पुरुष और स्वयं में नारी क्यों दिखने लगती है? मैं सिर्फ़ आकाश की प्रेयसी बन कर क्यों नहीं जी पाती? कहीं नारी मुक्ति का बादल मेरे आकाश पर न छा जाए... मेरी गृहस्थी कहीं छिन्न-भिन्न न हो जाए... सप्रयास इस विचार को मन के किसी अंधेरे कोने में धकेल देती हूं.
अन्तस में छुपा एक विश्वास सिर उठाने लगता है, मैं नारी हूं जो घरती है, आकाश पुरुष हैं जो बीज है. धरती और बीज के बीच प्रेम का एक बंधन है, जो शाश्वत और अटल है. दोनो एक-दूसरे के पूरक हैं. एक-दूसरे के बिना अधूरे. यह आंदोलन कहीं इस अटल रिश्ते को न तोड़ दे.
जिस दिन प्रेम का यह बंधन टूट गया, यह संसार रहने योग्य नहीं रह जाएगा. हर ओर होंगे टूटते परिवार, दरकता दांपत्य और सिसकता बधपन. ऐसे विश्व की कल्पना एक नारी ती नहीं कर सकती, तब फिर इस आंदोलन का क्या अर्थ?
आकाश के साथ रहकर जाना था रिश्तों की मधुरता, प्यार की गरमाहट, कुछ देकर पाने का सुख. यह सब इतना नया था कि अविश्वसनीय लगता. आकाश का साथ, उसका स्पर्श, उसकी हंसी मुझे अच्छी लगती थी, किन्तु मैं यह नहीं समझ सकी थी कि मैं भी आकाश के प्रेम में आकंठ डूब गई हूं. आज आकाश के न लौटने से जाना कि प्रेम की पीड़ा क्या होती है और प्यार की मिठास किसे कहते हैं?
सूर्य पूरी तरह अस्त हो चुका था, चारों ओर फैला तिमिर मुझे डरा रहा था. किसी के कदमों की आहट से नज़रें उठाई. सामने से आकाश आते दिखे. मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी थी. कैसे और कब गेट खोला, कैसे आकाश की बांहों में पहुंची, मुझे कुछ पता नहीं. मुझे अपनी बांहों में थामे हड़बढ़ाए हुए आकाश के स्वर से मुझे होश आया.
"क्या हुआ वसुंधरा? क्या हुआ?"
मेरे आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.
"वसुंधरा बोलो, क्या हुआ?" घबराहट आकाश के चेहरे पर अंकित थी.
"आकाश..."
"हां... हां... बोलो."
"आकाश तुम कहां थे? मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती."
आकाश की बांहों का घेरा थोड़ा और कस गया और चेहरे पर स्मित की मृदुल रेखा खिंच गई, मुझे घर के अंदर लाते हुए आकाश बोले, "मैं तो सोच रहा था आज तुम बहुत ग़ुस्से में होगी."
"मेरी जान निकल गई और तुम..."
"लगता है नारी मुक्ति का तुम्हारा नशा उतर गया. तुम इतनी कमज़ोर कैसे हो गई?"

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"तुमसे प्यार जो हो गया."
"प्यार तो ताक़त देता है, पूर्णता देता है. जानती हो वसुंधरा, समस्या तो इसलिए पैदा होती है कि आधुनिकता के चक्कर में हम नारी मुक्ति का ग़लत अर्थ समझ लेते हैं."
"मैं आज इस मृग मरीचिका से बाहर आ गई हूं आकाश. तुम्हारे प्यार ने मुझे जीत लिया." वसुंधरा की मुस्कान उसकी बात का समर्थन कर रही थी. आज वसुंधरा, आकाश की असीमता में समा गई थी, निश्चिंत, निर्द्वन्द्व.
- नीलम राकेश

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