"यह देखो चाची आज भी मैं विश्वजीत के नाम का मंगलसूत्र पहने हूं. विश्वास व आशा की एक किरण के सहारे धारण किए हूं. आज भी सुहागिनों की नज़र से बचाकर करवा चौथ का व्रत भी रखती हूं, विश्वजीत ने ही तोड़ा है संबंध, मैंने नहीं. मैं आज तक उससे अपने को अलग नहीं समझ पाई..."
उसको चाची ने केवल इतना ही कहा था, "अर्पिता, तूने कलाइयां सूनी क्यों की हुई हैं, मैं तो बीस साल से कनाडा में रह रही हूं, पर सुहाग की तीनों निशानी कभी नहीं उतारी तू तो भारत में..."
चाची का वाक्य अभी अधूरा ही था. सुन्दर गोरे चेहरे की नसें तन उठीं. गोल बड़ी-बड़ी रसीली आंखों में लाल सुर्ख डोरे खिंच गए. सुनते ही बिफर गई थी. झट उठकर बाहर जाती चाची को झटके से पकड़ कर बैठा, दरवाज़े की चिटकनी लगा दी. वह यह भी भूल गई थी कि कमरे में उन दोनों के अलावा मैं भी हूं.
मैं और अर्पिता थोड़ी देर पहले ही बाज़ार से लौटे थे. बाज़ार से लौट कर अर्पिता ने अपनी ड्रेस बदल ली थी, तभी उसकी चाची आई थी, जो काफ़ी समय से कनाडा में ही रह रही थीं. हर तीसरे साल भारत आतीं, तब अपने सब रिश्तेदारों और परिचितों आदि से मिलती.
अर्पिता अक्सर अपनी चाची के बारे में बताया करती थी कि कनाडा में बरसों रह कर भी चाची भारतीय संस्कार-परम्पराओं का आज भी निर्वाह करती हैं. फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली चाची भारत आते ही अपनी मातृभाषा उसी रफ़्तार से बोलती हैं.
क्या मेरी उपस्थिति में वह दोनों सामान्य होकर बातें कर पाएंगी? जो बातें अर्पिता अपनी हमउम्र चाची को बताने जा रही थी अपने अव्यक्त दर्द को खुरचकर दिखाने जा रही थी. ऐसे माहौल में मेरा वहां बैठा रहना उचित होगा? उनके वातावरण को सहज बनाने का शिष्टाचार निभाने का तकाज़ा मान मैंने उठ जाना बेहतर समझा, पर अर्पिता को देख मैं जड़वत वहीं की वहीं बैठी रह गई. मैं कुछ भी कहने-करने की स्थिति में नहीं थी. अपलक ठहरी हुई पुतलियों से उसके चेहरे पर आते-जाते भाव भंगिमा को अवाक पढ़ती रही. ऐसी उलझन भरी परिस्थिति में मैं पहली बार उलझी थी. जहां मेरी अनुपस्थिति होनी चाहिए वहां मैं उपस्थित थी. बन्द कमरे से बिना आहट किये उठकर निकल जाना एकदम असम्भव था.
यह भी पढ़ें: क्यों टूट रही है हर रिश्ते की मर्यादा? (Why is the dignity of every relationship being broken?)
"चाची, किसके लिए पहनूं चूड़ियां, किसके सुहाग के शुभ के लिए बोलो, अपने या उस..."
उठती हुई चाची को दोबारा झटक कर बैठा दिया था.
"... चाची कहां जा रही हो, आज तुम्हे सुनना पड़ेगा..." सचमुच आज वह सब कुछ सुनाने के मूड में थी, जिसे वह बरसों से अपने सीने में छिपाए थी. उसके स्वर में दर्द था, पीड़ा थी. तभी तो वह चीखती हुई बोली थी, "चाची... सब मुझे ही दोष देते हैं, पर मेरी कोई नहीं सुनता. मेरा अन्तस चीखता रह जाता है, पर उसकी आवाज़ किसी घरवालों ने नहीं सुनी चाची. लेकिन आज तुम्हें मैं उठने नहीं दूंगी, अपनी बात नहीं कह लूं, तब तक चाची तुम्हें यहीं ऐसे ही बैठे रहना है." आदेश या अर्पिता के स्वर में दर्द, चाची इस हमले से सहम गई.
अर्पिता की ज़िन्दगी के बारे में सब जानते थे. उसे दुख न हो यह सोच कोई उसके अतीत-दुख के कारण को दोहराना नहीं चाहता था. उसने एक दिन दफ़्तर में बैठे-बैठे मुझे झकझोरते हुए पूछा था, "शशि क्यों लोग मेरे अतीत को पूछने से डरते से हैं, हर कोई उस बात को छेड़ने से बचना चाहता है, ताकि मुझे पीड़ा न हो, मेरा दर्द बहने न लगे, पर मैं अपने दर्द का बोझ उठाये-उठाये थक गई हूं शशि, बहुत थक गई हूं. अपने बच्चों के साथ भी अपना दुख नहीं बांट पाती, मेरे हमदर्द ही मेरा दर्द हैं."
आज फिर ऐसे ही चाची को पकड़े बैठी थी.
"चाची मैं रोना चाहती हूं किसी नारी के कन्धों पर अपना सिर रख मां की ममता सी अपनत्व और सहानुभूति की छाया चाहती रही हूं. मैंने तुमको चाची के रूप में एक सहेली और बहन समझा है. मैं अपना दर्द तुमको सुनाकर बांटूंगी चाची..."
"तुम... यह क्या कह रही हो अर्पिता. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा. यह तू क्या बोल रही है मैं कुछ नहीं जानती... विश्वजीत ने कभी कुछ नहीं बताया, हमेशा पत्र में लिखता था घर में सब ठीक है."
विश्वजीत के घर में सब ठीक था, पर अर्पिता के घर में कब ठीक रहा. उस दिन मैंने पहली बार अर्पिता को रोती हुई आवाज में सुना था. पीड़ाओं को वह साहसी मन से सहती आई थी, पर उस दिन चाची के सामने एक औरत टूट गई थी, जो अपने पति की ज्यादती से नहीं बिखरी, वह औरत के सामने अपने सारे ताप से पिघल रही थी.
"चाची, तुमने पति को पाया है, किसी पुरुष को नहीं और मैंने... बहुत फ़र्क़ होता है पति और पुरुष में." वह बोले जा रही थी. आवाज़ भीगी थी, आंखें सजल थी. उसका रूप और भी अविश्वसनीय लगा. अब तक अर्पित्ता को जिस तरह परखा था उसके विपरीत दमक रही थी. जिस ढांचे में ढालकर उसके चरित्र और व्यक्तित्व को देखा था उस ढांचे को तोड़ नया रूप दे रही थी.
चाची ने क्षमा-याचना मांगते हुए कहा, "अर्पिता मेरी बातों से तुम्हें दुख पहुंचा, वैरी सॉरी, आई रियलाइज, मुझे ऐसा नहीं पता था, वरना मैं ऐसा नहीं कहती. सॉरी अर्पिता- मुझे माफ़..."
यह भी पढ़ें: एलिमनी और डिवोर्स- क्या बन रहा है ईज़ी मनी का सोर्स? (Alimony and Divorce Is it becoming a source of easy money?)
"नहीं चाची, माफ़ी मत मांगो, मुझे सुनो. मैं अपना दर्द सुनाना चाहती हूं. यह मुझ पर एहसान होगा, आज थोड़ा हल्का होना चाहती हूं... मैं तरस गई थी किसी से बतियाने के लिए."
आज स्वयं अर्पिता ही अपना सीना चीर कर सारे ज़ख़्मों को दिखा रही थी, जो उसे विश्वजीत ने, उसके पति ने, जिस पर उसने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, दिए थे.
चाची और अर्पिता के बीच मैं मौजूद होकर भी अदृश्य थी. उन दोनों की लम्बी बातचीत के दौरान मेरी सांस रुक-रुक कर चल रही थी. बीच में बोलकर मैंने उनकी कड़ी को तोड़ना नहीं चाहा.
अर्पिता ने वह पुराने पृष्ठ चाची के सामने खोल दिए. एक-एक करके वह वाक्य याद दिला रही थी, "चाची मोनू की शादी की याद है. मौसी ने आशीर्वाद दिया था मुझे "सदा सुहागिन रहो" तब भी मैंने पूछना चाहा था कि "यह आशीर्वाद इसे दे रही हो मौसी या मुझे..." पर पास में लेटी बीमार बूढ़ी मां पर तरस आ गया. उन्हें कष्ट होगा बेटी का दर्द जानकर, गूंगी, लकवाग्रस्त मां बोल नहीं पाती, परंतु भीतर ही भीतर बेटी के दुख से घुटती रहती. मां की वह मूक अव्यक्त वेदना की अनुभूति मेरे लिए अपने दुख से कहीं अधिक असहनीय होती. और मैं मौसी से प्रश्न करती-करती शान्त रह गई.
मां ने अपनी सुन्दर इकलौती बेटी के लिए अति सुन्दर दामाद ढूंढ़ा था.
बारात के आते ही सब तरफ़ से बधाई-मुबारकबाद मिलने लगे.
"अर्पिता का भाग्य बड़ा तेज है, कितना सुन्दर पति पाया है." मां को चारों तरफ़ से बधाई मिलने लगी. अर्पिता भी ख़ुश थी अपनी सहेलियों में उसका पति सुन्दर था.
सुन्दर होना और बात है. वफादार रहना और. विश्वजीत सुन्दर था, पर मन का सुन्दर साबित नहीं हुआ."
"रूप से पेट नहीं भरता अर्पिता, गृहस्थी के लिये धन भी चाहिए."
"विश्वजीत में धन की लोलुपता बढ़ती जा रही थी. एक घर था, अच्छी-खासी तनख्वाह थी, जिसमें दो बच्चों के साथ अर्पिता ख़ुश थी, बेहद ख़ुश पर धीरे धीर विश्वजीत ने विस्फोटक घोषणा कर ही दी. विश्वजीत अत्यंत महत्वाकांक्षी तो पहले से ही था.
"अर्पिता, मैं इस छोटे घर में थोड़े से पैसों से सन्तुष्ट नहीं, मुझे और चाहिए, पैसा, दौलत, बंगला, कार, फैक्टरी, जो इस तनख्वाह में सारी उम्र नहीं पा सकता. तुमको बताना ज़रूरी है, क्योंकि तुम मेरी पहली पत्नी हो."
"पहली, यानी..?" अर्पिता के हाथ आटा गूंथते थम गए थे. सारा वार्तालाप रसोईघर में हो रहा था. दोनों बच्चे कमरे में पढ़ रहे थे.
"हां, मैं रश्मि को पत्नी बनाना चाहता हूं." एक झटके में पूरा वाक्य कह गया. अर्पिता की मुट्ठी कसती गई, यहां तक कि उसकी हथेली खाली रह गई. मन हुआ परात उठा कर सारा आटा उसके माथे पर मार दे, पर नहीं, अब क्या अधिकार है उसका पति पर रौब दिखाने का. अधिपत्य इस वाक्य ने तत्काल समाप्त कर दिया.
"... तुम चाहो तो मैं कभी-कभी तुम्हारे पास आता रहूंगा." विश्वजीत ने प्यार जताना चाहा.
"ख़बरदार जो फिर इस तरफ़ मुंह भी किया!" पता नहीं वह ऐसा कैसे बोल गई थी?
रश्मि को उसने पहली बार बाज़ार में देखा था, विश्वजीत के साथ. वह अपनी शादी की दसवीं सालगिरह पर साड़ी लेने गई थी. उसी दुकान पर वह सूट का कपड़ा ख़रीद रही थी. रेमन्ड का सूट उसे अजीब लगा था. यह अकेली औरत मर्दाना सूट कैसे ख़रीद रही है? जिसे यह भी नहीं पता कि आदमी के थ्री पीस सूट में कपड़ा कितना लगता है? उसके आदमी को कैसा रंग और डिज़ाइन पसन्द है? मर्दों के कपड़ों रंगों की उसे पहचान नहीं थी. दुकानदार के पूछने पर कि "कितना कपड़ा काटू?"
उसने कहा, "छह फुट की लम्बाई वाले व्यक्ति जितना कपड़ा लगता हो."
ऐसे ही उसने तब कहा था, जब दुकान पर सूट का कपड़ा दिखाने को कहा था.
"जो भी क़ीमती ज्यादा पैसों वाला कपड़ा हो, वही दिखाइएगा." उसके पर्स में नोटों की गड्डियां थीं. घर आकर अर्पिता विश्वजीत से उस बेवकूफ़ औरत की बातें कह कर हंस रही थी.
विश्वजीत ने झिड़क दिया था, "क्यों हंस रही हो उस महिला पर, यह नहीं देखा उसे कितना प्यार है उस मर्द से, पैसे की परवाह नहीं की."
अर्पिता सुनते ही एक झटके से शान्त हो गई. उसे पता था विश्वजीत का प्रहार कहां है. शादी की चौथी या पांचवीं सालगिरह थी. दोनों एक-दूसरे के लिए अनुपम उपहार लाए थे. अर्पिता विश्वजीत की पसन्द वाली टाई नहीं ख़रीद पाई थी, क्योंकि उसके पास उतने रुपए नहीं थे तो सस्ती टाई लानी पड़ी. वही बात विश्वजीत ने चुभाई थी उसे.
कुछ दिनों बाद वही रेमन्ड का सूट पहने एक रात विश्वजीत लौटा. बच्चे सो चुके थे. दफ़्तर में मीटिंग थी. तो क्या मीटिंग में सूट बूट?
अर्पिता सोच रही थी, सूट का ठीक यही कपड़ा तो था जो उस दिन उस औरत ने ख़रीदा था. छह फिट लम्बा कहते-कहते उसने दुकानदार से कहा था, "ठीक इतनी लम्बाई है." उसका पूरा इशारा अर्पिता के पास खड़े विश्वजीत की तरफ़ था. दुकानदार ने दर्जी को बुला नाप लिया था. अर्पिता अवाक् देखती रही. तब विश्वजीत ने ही बदलाव का परिचय दे दिया. जानते हुए भी अनजान बनी रहकर अर्पिता अपने को भुलाए हुए थी. परिवार के लिए, बच्चों के लिए, पर कब तक आने वाले दुर्दिनों को टाले रखती.
विश्वजीत क़ानूनी अधिकार ले अर्पिता व बच्चों को छोड़ लखपति विधवा रश्मि के साथ पति के रूप में रहने लगा. वहां बहुत सन्तुष्ट था. मानो ज़िन्दगी की सारी मंजिलें मिल गयीं. विधवा रश्मि के दोनों बच्चे हो अब उसके अपने थे. अपने बच्चों से अपना अधिकार छोड़ अर्पिता को पूरी तरह सौंप आया था. चलते-चलते विश्वजीत ने एक काम अच्छा किया था. अर्पिता को टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी दिला दी थी, पर अर्पिता ने उस नौकरी को यह कहकर त्याग दिया कि, "मैं जीवनभर विश्वजीत का यह दान ले कर जी नहीं सकती." उसने दूसरी जगह एक अच्छा काम ढूंढ़ लिया था.
विश्वजीत अब एक रबड़ फैक्टरी, कार, बंगला, आदि का मालिक बन गया था. अर्पिता और उसके बच्चे तो बहुत पीछे छूट गए थे. पर अर्पिता विश्वजीत को नहीं भुला सकी. एक ही शहर में रहते विश्वजीत के खिले चेहरे पर नज़र पड़ते ही उसके सारे शरीर में सिहरन सी दौड़ पड़ती थी.
यह भी पढ़ें: अलग अलग होते हैं पुरुषों और महिलाओं के दिमाग़ (The brains of men and women are different)
अर्पिता की ज़िन्दगी का यह पृष्ठ क़रीब-क़रीब सभी जानते थे, पर कनाडा वाली चाची को अर्पिता ने कभी कुछ नहीं बताया था. किसी और रिश्तेदार ने भी कभी कुछ नहीं बताया. आज स्वयं अर्पिता ही अपना सीना चीर कर सारे ज़ख़्मों को दिखा रही थी, जो उसे विश्वजीत ने, उसके पति ने, जिस पर उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, दिए थे.
एक झटके से अर्पिता ने बन्द गले के ब्लाउज़ का बटन खोला, झिलमिलाता मंगलसूत्र निकाल कर चाची को दिखाकर बोली, "यह देखो चाची आज भी मैं विश्वजीत के नाम का मंगलसूत्र पहने हूं. विश्वास व आशा की एक किरण के सहारे धारण किए हूं. आज भी सुहागिनों की नज़र से बचाकर करवा चौथ का व्रत भी रखती हूं, विश्वजीत ने ही तोड़ा है संबंध, मैंने नहीं. मैं आज तक उससे अपने को अलग नहीं समझ पाई. भावना के स्तर पर मैं अब भी उतनी ही जुड़ी हूं, जितनी तलाक़ से क्षण भर पहले. वह कहीं भी किसी के भी पास रहे उसे मैं आज भी अपने पास महसूस करती हूं. चाची इन चूड़ियों की खनखनाहट, बिन्दी की लालिमा और दुनिया की नज़र से छिपाकर पहने इस मंगलसूत्र की गरिमा में उसकी गंध पाती हूं, पर जब मैं सोचती हूं की विश्वजीत अब मेरा नहीं. रश्मि, जो लखपति है, उसका पति है तब मैं बेकाबू हो जाती हूं. भीतर तूफ़ान उठने लगता है. जी करता है कि मंगलसूत्र तोड़ दूं, चूड़ियां फोड़ दूं, सिन्दूर-बिन्दी का रंग पोंछ दूं पर तभी संस्कार की फुहार मुझे कमज़ोर-निर्जीव बना डालती है चाची."
उस दिन के बाद मैं काफ़ी दिनों तक अर्पिता से नहीं मिल सकी. एक दिन पता चला वह बीमार है, देखने चली गई. सचमुच कमज़ोर-बीमार लगी. "क्या बात है अर्पिता बहुत थकी-थकी सी दिख रही है."
"हां, शशी झूठ ढोते ढोते थक गई हूं न! विश्वजीत समझता है मैंने नया मंगलसूत्र पहना है. मेरा सच
लोगों की दृष्टि में अविश्वसनीय बन गया है शशी."
वह अपने अटूट विश्वास के बावजूद चारों तरफ़ से बेतरह टूट कर रह गई थी.
- उमा शर्मा
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
