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कहानी- घर के अंदर (Short Story- Ghar Ke Andar)

उसकी आंखें भर आईं .एक बार पुनः उसका हाथ कांप उठा. ग्लास धीरे-धीरे होंठों की ओर बढ़ने लगा तभी उसे सुनाई दिया, "बापू, मीठे तेल की रोटी खाए महीनों बीत गए. आज खिलाएंगे ना?" एक क्षण को उसका हाथ रुका, फिर होंठों से जा लगा.

आदत सी बन गई है पीने की. एक दिन भी चूका नहीं कि पेट में दर्द शुरू हो जाता है. उस दिन ऐसा ही हुआ, न चाहते हुए भी ख़ूब पी गया. होश ही न रहा कि किसने घर पहुंचाया. सब कुछ खुली आंखों से देख कर भी पत्नी ने कुछ न कहा. थूक का घूंट गले से नीचे उतरा, तो लगा कई घूंट खून गले के नीचे उतर गया.

दिनभर हड्डी तोड़ मेहनत की. शाम को लगा कि जोड़-जोड़ उखड़ा जा रहा है. एक अनबुझ सी प्यास उसे परेशान कर रही थी. वह तड़प उठा.

शराब की तलब ने उसके पांव भट्ठी की ओर मोड़ दिए. देखा साथियों ने पहले से ख़ूब चढ़ा रही है. वह भी साथ हो लिया.

दिनभर की कड़ी मेहनत, अधिक पैसे कमा लेने की गरज से कुछ खाया पीया नहीं था. अंतड़ियां भूख से जब-जब ऐंठती, सार्वजनिक नल से पानी के चंद घूंट पी कर जीभ तर लेता था.

पेट में दो दाना न था. देशी दारू ने अपना ज़ोर बताया था. तब उसे पता ही न चला था कि अंतिम घूंट के बाद क्या हुआ.

सुबह होश आने पर सुना डॉक्टर उसकी पत्नी से कह रहे थे, "आज के बाद शराब का एक घूंट कभी भी जान ले सकता है." सुनकर वह तडप उठी थी. उसने भी सुना, लेकिन कहा कुछ नहीं.

तीसरे दिन जब अच्छा हुआ, चौराहे पर पहुंचा, तब साथियों ने कुछ इस तरह स्वागत किया, मानो इलेक्शन पेटिशन में पुनः जीत कर कोई नेता आया है.

सुबह पत्नी की आंखों की उदासी और बच्चों के चेहरे पर उभर आए भविष्य को देखा था. तब उसने मन ही मन संकल्प किया था कि अब शराब को हाथ नहीं लगाएगा.

दिनभर ठेले में माल भर कर यहां से वहां पहुंचाने लगा. शरीर में कमज़ोरी थी ही. माथे से टपकते पसीने को देख कर महसूस करता था जिस्म का सारा खून बूंद बूंद कर टपक रहा है. ऊंची चढ़ाइयों में लगता ठेला गाड़ी उसे पीछे बहुत पीछे खींच रही है. ढलान में लगता तेज़ चाल के कारण सांस उखड़ने ही वाली है और गाड़ी उसे वक़्त से पहले मंज़िल तक पहुंचाने वाली है.

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जैसे तैसे दिन कटा. शाम का सूरज अस्त होने चला था. उसने आज पहली बार गौर से देखा. आकाश लाल-लाल दिखाई दे रहा है. धीरे-धीरे अंधेरा घिर रहा है. तारे निकल कर टिमटिमाने लगे हैं. थोड़ी देर में सूरज छिप जाएगा, रह जाएंगे छोटे-छोटे तारे और घना अंधेरा.

उसे लगा वह सूरज है, जो धीरे-धीरे अस्त हो रहा है और छोटे-छोटे तारे उसके बच्चे हैं, जो अंधेरे के आंचल तले अपने भविष्य की तलाश में मां के साथ निकल पड़े हैं.

चलते चलते वह ठिठक कर खड़ा हो गया. देखा-कचरे के ढेर के पास एक कुतिया लेटी है... वह पिल्ला कुतिया का दूध पी रहा है जबकि दूसरा कुतिया की पूंछ से खेल रहा है. उसे अपने बच्चे याद आ गए.

चौराहे पर ठेला गाड़ी को ठिकाने लगा, जल्दी-जल्दी घर की ओर चल पड़ा. आज उसने अच्छे पैसे कमा लिए थे. बड़े दिनों से पत्नी कह रही थी कि उसका मन खट्टी चीज़ खाने को कर रहा है. बच्चे भी रोज़ कहते थे, "बापू, मीठे तेल की रोटी खाए महीनों बीत गए... आज खिलाएंगे ना?"

हर रोज़ वह बच्चों को छोटा सा आश्वासन का घुनघुना थमा देता था. हां, आज ज़रूर खिलाएंगे, लेकिन बच्चों के लिए कभी भी आज नहीं आया. हर बार वह बापू के लिए शराब की बोतल में उतर जाता.

वह ज्यों ही गली की ओर मुड़ा, देखा- बहुत से साथी उसकी प्रतीक्षा में खड़े हैं. उसे देख कर सबका चेहरा खिल गया. एक ने दौड़ कर बांहों में उठाते हुए कहा, "आ गया अपना शेर, आ गया..."

"युग युग जियो मेरे यार." दूसरे ने कहा.

"अब मज़ा आएगा." तीसरा बोला.

"फिर हो जाए इसी ख़ुशी में..." चौथा बोला.

"नहीं..." वह बोला, "अब कभी नहीं..."

"अरे यार..." एक ने हाथ पकड़ घसीटते हुए कहा, "तेरे अच्छे होने की ख़ुशी में हम यहां कब से खड़े हैं और तू महिलाओं की तरह नहीं... नहीं... बोल रहा है."

"नहीं भाई." उसने इनकार करते हुए कहा, "मैं नहीं पीयूंगा."

"लो, सुनो." एक ने चुटकी ली, "अपना देवदास कहता है नहीं पीयूंगा." और ज़ोर से हंस पड़ा.

"बेटा पिएगा नहीं तो जीएगा कैसे?" किसी ने बीच में कहा.

वह नहीं-नहीं... कहता रहा, लेकिन वे ठहाके लगाते हुए भट्ठी की और घसीट ले गए. वह अनमने भाव में इधर-उधर देखने लगा. उसे लगा भेड़ियों के बीच मेमना फंस गया है. उसका मन कह रहा था कि सब को रौंदता हुआ भाग खड़ा हो. रात हो रही है, पत्नी राह देख रही होगी. बच्चे दरवाज़े पर बैठे होंगे.

अभी वह इसी उधेड़बुन में था कि शराब की पूरी बोतल लिए एक साथी आ गया. शराब की बोतल देखते ही उसके दिमाग़ में तरह-तरह के विचार उठने लगे. दूसरा जल्दी से चार कांच के ग्लास और पानी ले आया. फिर किसी ने भुने हुए चने भी लाकर पास रख दिए. आज वह अपने आप को कोस रहा था कि क्यों उसने शराब पीनी शुरू की थी. उसे स्वयं पर बड़ी घृणा हो रही थी. मन कर रहा था कि उठ कर भाग जाए.

"लो यार." एक ने शराब का भरा हुआ ग्लास उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "खीच लो एक सांस में."

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सुन कर उसका ध्यान टूटा. उसने देखा ठीक उसके मुंह के सामने शराब से भरा ग्लास है. शराब का भभका नाक के अन्दर घुसते ही उसे बड़ी ज़ोर की उबकाई आई. लगा पेट फाड़ कर अन्दर का सब कुछ बाहर निकल आएगा.

"नहीं..." उसने इनकार किया.

उसकी बात सुनकर सब हंस पड़े. एक ने लगभग गाली देते हुए कहा, "हम अपने बच्चों का पेट काट कर तेरे अच्छे होने की ख़ुशी में पिला रहे हैं और तू नखरे कर रहा है."

वह उसकी ओर ग़ुस्से से देखने लगा और शराब का ग्लास लेने से इंकार कर दिया. इस पर एक ने ज़बरदस्ती उसके हाथ में ग्लास थमा कर कहा, "पी ले यार... भाभी को हम मना लेंगे."

इस पर सभी ने एक स्वर में कहा, "हां हां पी ले... भाभी को मना लेंगे."

वे उस पर ज़ोर देने लगे. न चाहते हुए भी वह ग्लास को हाथ में लेकर देखने लगा. इच्छा हो रही थी शराब का ग्लास किसी के मुंह पर दे मारे. देवदास कहने वाले के सिर पर शराब की बोतल दे मारे.

"पी जा मिट्टी के शेर..." एक ने बगल से कहा. सभी उसे बढ़ावा देने लगे. उसके हाथ कांपने लगे थे, जिससे भरा हुआ ग्लास भी कांप रहा था. वे उत्सुकता से उसकी ओर देख रहे थे. वह शराब को देख रहा था. शराब का रंग लाल था बिल्कुल शाम के आकाश की तरह, "पीता है कि नहीं..." किसी ने ज़ोर से डांटा.

डांट सुनते ही हाथ से ग्लास गिरते-गिरते बचा. "पीता हूं..." उसने रुंधे स्वर में कहा.

उसकी आंखें भर आईं .एक बार पुनः उसका हाथ कांप उठा. ग्लास धीरे-धीरे होंठों की ओर बढ़ने लगा तभी उसे सुनाई दिया, "बापू, मीठे तेल की रोटी खाए महीनों बीत गए. आज खिलाएंगे ना?"

एक क्षण को उसका हाथ रुका, फिर होंठों से जा लगा.

हर घूंट के साथ हलक नीचे ऊपर होने लगा. वे ख़ुश हो रहे थे कि प‌ट्ठा बिना पानी मिलाए ही पी रहा है. अंतिम घूंट हलक के नीचे उतरने को था कि किसी ने कहा, "खट्टा खाने को मन कर रहा है." उसे लगा जैसे किसी ने ऊपर से नीचे गिरा दिया हो.

शराब का अंतिम घूंट उसे ज़हर से भी ज़्यादा कड़वा लगा. मुंह का स्वाद बिगड़ गया और ढेर सा थूंक मुंह से बाहर निकाल फेंका.

उसकी इस हरकत को सभी आश्चर्य में देखने लगे. कुछ तो ठहाके लगाने लगे. इस बीच एक ने चारों ग्लास में शराब भरी और अपना-अपना ग्लास उठाया और आपस में टकरा कर कहने लगे, "अपने यार के अच्छे होने की ख़ुशी में."

पश्चाताप की मुद्रा में सिर झुकाए वह सोच रहा था कि पत्नी को क्या मुंह दिखाएगा, बच्चों के प्रश्न का क्या जवाब देगा. फिर डॉक्टर ने भी तो कहा था कि अब एक बूंद शराब कभी भी जान ले सकती है.

"ले यार." एक ने कहा.

उसने हड़बड़ा कर देखा. शराब से भरा दूसरा ग्लास सामने था. उसने सबको खा जाने वाली नज़रों से देखा, जिसकी प्रतिक्रिया किसी पर भी न हुई. उसने स्पष्ट देखा जिसके हाथ में ग्लास था उसके दांत बड़े-बड़े और पीले रंग के हैं. एक बार उन दांतों को देख कर वह डर सा गया, लगा खूंखार भेड़िये के दांत उसकी गर्दन पर गड़ने ही वाले हैं. वह पीछे हट गया जिसे देख कर वे सब पहले से कहीं अधिक ज़ोर से ठहाके लगाते हुए हंसने लगे.

शराब अब तक पेट में पहुंच कर असर दिखाने लगी थी. आंखों में लाल डोरे पड़ गए थे और भुजाओं में खून का तेज़ दौरा शुरू हो गया था. पांव इतने सख्त हो गए थे कि यदि किसी चट्टान पर रख दे तो पानी निकल आए.

सबने देखा, उसने झपट कर ग्लास ले लिया और एक ही सांस में पी गया. किसी को पता ही न चला कि पीने और पिलाने का दौर कब ख़त्म हुआ. भट्ठी वाले ने जब कहा, "चलो अपने-अपने घर... दुकान बंद होने वाली है."

तब वे लड़खड़ाते गिरते उठने लगे. उससे तो उठा ही न गया. भट्ठी वाला एक मोटी सी गाली देकर चला गया.

रात के चौथे पहर जब ठंडी-ठंडी हवा चली, उसके बदन में हरकत हुई. ठंड से बचने के लिए दोनों हाथों को जांघ के बीच दबा कर गोल हो गया. ठंडी हवा का एक झोंका उसे छूते हुए निकल गया. वह दोनों हाथों से कुछ टटोलने लगा. जब उसके हाथ कुछ न लगा, तब उसे एहसास हुआ कि वह घर में नहीं कहीं और है. वह हडबडा कर उठ बैठा.

देखा- उसके सभी साथी जा चुके हैं. शराब का नशा उस पर बुरी तरह हावी था. उसे लग रहा था जैसे कोई उसे पीछे बार-बार खींच रहा है, लेकिन वहां कोई नहीं था. भट्ठी में थोडी देर आकर वह रुक गया. लघु शंका के बाद उसने काफ़ी हत्कापन सा महसूस किया. अब वह ठीक से खड़ा हो सकता था.

सड़क के किनारे दूर-दूर तक बिजली के खंभों में लगे ट्यूबलाइट की रोशनी से सारा इलाका दुधिया हो गया था. इक्के-दुक्के आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी. रात को गश्त लगाने वाले गोरखे की सीटी की आवाज़ वातावरण में भय पैदा कर देती थी.

गिरते-पड़ते वह घर पहुंचा. टूटी-फूटी पटनियों से बने दरवाज़े से उसने देखा- छोटा बच्चा मां के स्तन को मुंह में दबाए अर्ध सुप्त अवस्था में है. बड़ा अपनी मां के पीछे सोया पड़ा है. चूल्हा ठंडा है और खाना पकाने का बर्तन औंधा रखा है. धीरे से दरवाज़ा खोल कर वह अंदर गया. थोड़ी देर तक पत्नी और बच्चों को अजीब नज़रों से देखता रहा. बच्चों का पेट पिचका हुआ है. उनके गालों पर सूखे आंसुओं की धार स्पष्ट दिखाई दे रही है. उसकी आंखें भर आईं. धीरे से झुक कर उसने छोटे बच्चे के माथे को चूमना चाहा ही था कि उसकी पत्नी हड़बड़ा कर उठ बैठी.

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देखा- उसका पति सामने ही झुका हुआ बैठा है. उसके मुंह से शराब की गंध आ रही है. आंखें चढ़ी हुई हैं और कपड़ों में धूल लगी है. पत्नी की आंखों से आंख मिलते ही वह अपराध भाव से सिर नीचे कर वहीं पसर गया.

यकायक वह चीख पड़ी और रोने लगी. चीख सुनते ही बच्चे डर कर उठ गए और मां के सीने से जा लगे. भयभीत नज़रों से वे पिता की ओर देख रहे थे.

पत्नी को गला फाड़ रोते देख उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसे चुप करा सके. न चाहते हुए भी उसने हिम्मत जुटा कर पत्नी की ओर देखा. तभी वह चीख पड़ी, "शर्म नहीं आती फिर पी कर आ गए. जानते नहीं, डॉक्टर ने क्या कहा था?" कहते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी. वह पत्थर के बूत की तरह चुप.

"अरे..." उसने पति के दोनों बाजुओं को पकड़ कर झिंझोडते हुए कहा, "अपनी चिन्ता न करो, मेरी चिन्ता न करो, लेकिन इन बच्चों का तो ख़्याल करो... भगवान न करें, कल तुम्हें कुछ हो गया तो इनका क्या होगा..." कहने के पश्चात् बच्चों को सीने से लगा कर रोने लगी.

मां को रोते देख बच्चे भी रोने लगे. घर में एक अजीब सा वातावरण व्याप्त था. वह धीरे से उठा, छोटे बच्चे को गोद में लेते हुए पत्नी से कहा, "मुझे माफ़ कर दो.. अब मैं कभी नहीं पियूंगा. मैंने फिर कभी शराब को हाथ लगाया तो मुझे तेरी क़सम है. इन बच्चों की क़सम है." कहकर बच्चों से प्यार करने लगा.

दूर कहीं से सूरज निकल रहा था और रोशनी की एक छोटी सी किरण उसके घर के अन्दर भी आ रही थी.

- महेश राजा

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