परछत्ती ने तो कमाल कर दिया, पहले बवाल मचाया. दो खानदानों की इज़्ज़त को दांव पर लगा दिया. झगड़े और तनाव का माहौल पैदा कर दिया और फिर रिश्तों की उन डोरियों में बांध दिया, जो अटूट, पवित्र और पावन है.
पति के घर में घुसते ही गीता ने घबराहट भरे स्वर में कहा "मीता तीन घंटे से गायब है."
"कहां गई?"
"मुझे पता होता तो तुमसे पूछती."
"ताई, नानी, कंदरन चाचा किसी के घर गई होगी, इतना क्यों घबराती हो? मिल जाएगी. कोई दूध पीती बच्ची नहीं है."
"इसलिए, तो मैं अधिक परेशान हूं कि अब वह दूध पीती बच्ची नहीं, सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की है."
"फिर इतनी क्यों परेशान होती हो? पढ़ी-लिखी है अपना नाम, पता बता सकती है. लिख सकती है."
"सब कुछ है, पर मेरा तो जी घबरा रहा है. न जाने क्या हो? ज़माना बुरा है."
"होगा कुछ नहीं, कुछ हुआ भी तो उसे भी तुम्हारे जैसा पति मिल जाएगा और मौज़ करेगी. भूल गई क्या वह दिन जब तुम घर से भाग गई थीं." पति-पत्नी दोनों इस बात पर हंसते-हंसते लोटपोट हो गए.
हंसी के नीचे अतीत की परतें उघड़ती चली गई. एक क्षण में ही गीता ज़िंदगी के बीस वर्ष पीछे खड़ी हो गई. नटखट बचपन अभी पूरी तरह विदा भी नहीं हुआ था. वह न तो बहुत सुंदर ही थी न बुद्धिमान, साधारण मध्यम परिवार की बेटी. पिता की डांट तथा मां और दादी के निर्देशन में बड़ी हो रही थी.
ज़रा ज़रा सी बात पर बड़ों की टोका-टाकी उसे अच्छी नहीं लगती थी. मन-मर्ज़ी से घूमने-फिरने की तो बात दूर मर्ज़ी से पहन ओढ़ भी नहीं सकती थी. बालों में कभी पिन टांक ली या टेढ़ी मांग निकाल ली, तो दादी-बुआ हाय-तौबा मचा देतीं, कहतीं, "फैशन करके कहां उड़ी जा रही है? ज़रा दब कर रहना सीख." गीता आग उगलती नज़रों से अपने इन अभिभावकों को देखती रहती. इन्हीं लोगों के लाड़ में मन उमंगों से भी भर जाता था. वह आठवीं कक्षा में पढ़ती भी थी, सीधे स्कूल जाना और घर समय पर आना मां की सख्त हिदायत थी.
कुछ दिन पूर्व गीता के बाबूजी ने मकान के पिछवाड़े पड़ी खाली ज़मीन पर एक नया कमरा बनवाया था. इसी कमरे की आधी छत में एक परछत्ती भी उन्होंने बनवा ली थी. घर-गृहस्थी का बहुत सा काड़-कबाड़ उसमें भरा रहता था.
एक दिन गीता रात आठ बजे कोई पुरानी किताब ढूंढ़ने परछत्ती में चढ़ी. पुरानी पुस्तकें, जो हर वर्ष परीक्षा देने के बाद बेकार हो जाती थीं, परछत्ती में डाल दी जातीं. पिताजी के ज़माने की पुस्तकें भी उसमें पड़ी थीं. इन्हीं पुस्तकों में गीता के हाथ पंचतंत्र और चंद्रकांता संतति पुस्तकें लग गईं. अपने कोर्स के अतिरिक्त उसने आज ही ये पुस्तकें देखी थीं. पढ़ना आरंभ किया तो डेढ़ घंटा चुटकी में बीत गया. जिस मोमबत्ती को जलाकर वह परछत्ती में घुसी थी, समाप्त हो गई. अब वहीं बिछी एक बोरी पर वह लुढ़क गई. अल्हड़ बालपन को नींद कब घेर गई पता ही न चला उसे. आंगन पार घर में मचे कुहराम को सुन उसकी आंख खुली. उसके बाबूजी अम्मा पर बुरी तरह बरस रहे थे.
"जब शाम से लड़की नहीं है घर में तो तुम्हें ढूंढ़ने की सुध नहीं आई?"
"मुझे कुछ नहीं पता. मैंने तो रोटी खाते समय उसे आवाज़ दी थी. तभी से ढूंढ़ रही हूं." मां बिल्कुल रोने को हो रही थीं.
"कहां-कहां ढूंढ़ा तुमने उसे?"
"पास पड़ोस, छोटी चाची, गेंदा, गुलब्बों सबसे पूछ लिया."
सिर ठोकते हुए पिता ने कहा, "बड़ी बदनामी की बात है. क्या मुंह दिखाएंगे सवेरे उठकर."
पिता के थे शब्द सुन गीता कांप गई. नीचे उतरने को बढ़े उसके पांव वहीं रुक गए. बाबूजी का ग़ुस्सा वह जानती है. बिना बात के भी ग़ुस्सा दिखाते रहते हैं, फिर आज तो मेरी अकल मारी गई. मुई नींद भी कैसी घेर लेती है. डर के मारे वह और दुबक गई.
गीता के पिता फिर गरजे, "वो मुआ मोहन घर में ही है पूछा उसे."
"उससे तो नहीं पूछा फिर वो क्या करेगा?"
"क्या करेगा? उसी की करामात न हो यह. मुआ जब-तब किताब कॉपी मांगने चला आता है. पड़ोस में रहने का मतलब यह तो नहीं कि हर दूसरे-तीसरे दिन लड़की से कुछ मांगने चले आओ."
"उस लड़के के साथ मैंने तो कभी इतना मेल मिलाप देखा नहीं गीता का, जो घर छोड़ कर भाग जाए."
"तुम औरतों की अकल चोटी में रहती है, ध्यान दिया होता तो आज यह नौबत नहीं आती."
रोते हुए गीता की मां ने कहा, "अब मुझे ही डांटते रहोगे या लड़की का भी पता लगाओगे. हे भगवान, मेरी बेटी मिल जाए तो प्रसाद चढ़ाऊंगी सुबह."
छोटे भाई को मोहन के घर का पता लगाने भेजा. उसने आकर सूचना दी कि मोहन भी घर में नहीं है. अब तो गीता के माता-पिता को पक्का विश्वास हो गया कि हो न हो गीता को मोहन ही बहकाकर भगा ले गया है. वे आग उगलते मोहन के घर पहुंचे, उसके पिता को खूब खरी-खोटी सुनाई.
"ऐसे लफंगे लड़के मुहल्ले में रहेंगे तो क्या शरीफ बहू-बेटियों की इज़्ज़त बचेगी? यही शिक्षा दी है लड़के को तुमने."
मोहन के पिता भी तैश में आ गए, "तुमने अपनी लड़की को बड़ी अच्छी शिक्षा दी है, फिर वह क्यों भाग गई."
शोरसुन सुन सारा मुहल्ला इकट्ठा हो गया. लोग दो दलों में विभक्त हो अपनी-अपनी बोलने लगे. कुछ ने तो यहां तक सलाह दे डाली कि "ऐसी बदनामी से तो शादी कर देना अच्छा है."
लोग अपनी-अपनी हांक रहे थे कि सामने से मोहन साइकिल पर आता दिखाई दिया. घर के सामने मुहल्ले वालों की इतनी भीड़ देख वह घबरा गया. कुछ समझ नहीं सका. मोहन को देखते ही गीता के पिता ने आगे बढ़ उसका गला पकड़ लिया, "बता गीता कहां है?"
मोहन की तो धिग्धी बंध गई वह घबराते हुए बोला, "चाचाजी मुझे नहीं मालूम, क़सम से मैंने गीता को दो दिन से देखा तक नहीं."
"देख सच-सच बता दें नहीं तो पुलिस के हवाले कर दूंगा."
"आप कुछ भी करे चाचाजी पर मैं कुछ नहीं जानता."
मोहन के पिता और कुछ मुहल्ले के लोगों ने बीच बचाव किया. लोग अपने-अपने घर चले गए.
इस सारे कुहराम में रात के तीन बज गए. छोटे भाई-बहन जहां-तहां लुढ़क कर सो गए थे. मां भगवान के आगे हाथ जोड़ मनौतियों पर मनौतियों किए जा रही थी. गीता के पिता आराम कुर्सी पर चिंता मान अधलेटे पड़े थे. रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड जिन लोगों को दौड़ाया था वे अभी लौटकर नहीं आए थे.
गीता दबे पांव परछती से उतरी और कमरे में भाई-बहनों के बीच सो गई. जब गीता की बड़ी बुआ बच्चों को कुछ उड़ा देने के लिए कमरे में पहुंची, तो वहां गीता को सोया देख ख़ुशी से उछल पड़ीं.
अब तो डांट, मार, लाड़-प्यार और प्रश्नों की बौछारों के बीच गीता घिरी खड़ी थी. ख़ैर, बड़ी मुश्किल से सब परिवारवालों को यह विश्वास हो पाया कि गीता कहीं गई नहीं थी परछत्ती में थी. इस घटना के बाद से गीता और मोहन का एक दूसरे की ओर देखना भी बदनामी बन गया. दोनों के परिवारवालों को जान-पहचान, मुहल्लेवालों के ताने दिन-रात सुनने पड़ते. अधिकांश लोगों का यह मत था कि बदनामी से बचने के लिए घर वालों ने यह बात बना डाली कि गीता परछत्ती में थी. सारा घर ढूंढ़ा तो परछत्ती क्यों नहीं ढूंढ़ी भला. आदि आदि बातें.
कई हितैषियों ने मोहन के पिता को भी यह बेबाक़ सलाह दे डाली कि अब गीता और मोहन की शादी कर देने में ही भलाई है. दोनों कुल बदनामी के कलंक से बच जाएंगे.
बात यहां तक बढ़ी कि बिचौलियों ने दोनों परिवारों में समझौता सुलह कराकर छह मास के अंदर मोहन और गीता की शादी करा दी. मोहन के पिता ने यह शर्त रखी कि शादी तो किए देता हूं, पर बहू को अपने घर तभी लाऊंगा जब लड़का बी.एस.सी. पास कर लेगा. बदनामी से बचने के लिए गीता के माता-पिता ने सब कुछ स्वीकार कर लिया.
नवीं कक्षा पास दूल्हा और आठवीं में पढ़ने वाली दुल्हन अब पढ़ाई को ताक पर रखकर एक-दूसरे के पास आने को आकुल रहने लगे.
माता-पिता के पहरे इन पर लगे हुए थे. गीता के लिए मोहन अब प्राण और भगवान था. चार माह बाद दसवीं की परीक्षा के बाद मोहन के पिता पढ़ाई के लिए उसे मुंबई भेज देंगे. फिर चार वर्ष तक वह वहीं होस्टल में रहकर पढ़ेगा. छुट्टियों में वे दो दिन से अधिक उसे अपने पास नहीं बुलाएंगे. वे स्वयं ही उससे होस्टल में मिल आया करेंगे.
"कहां खो गई?" गीता के पति ने झकझोरते हुए गीता से कहा.
"कहीं नहीं, याद आ रहे हैं वे दिन, जब तुम मुंबई पढ़ने चले गए और तुम्हारी याद में मैं बीमार पड़ गई."
"बीमार पड़ गई थी, तो मैं भी भागा आया था मु़बई से ज़ोरदार बहाना बनाकर."
"कितने भी बहाने बनाए पर चार दिन से अधिक नहीं रुक सके थे."
"उन चार दिनों में ही मैंने तुम्हारी कितनी सेवा कर डाली थी. चोरी से पिछले दरवाज़े से आकर तुम्हें जूस पिला जाता. तुम्हें प्यार कर जाता. ओह सच! क्या तड़प थी उन दिनों तुमसे मिलने की. रोज़ पत्र लिखते थे."
"हां उस समय तो हम यह भूल गए थे कि हमारी शादी एक दुर्घटना का परिणाम है. मुझे तो लगने लगा था मैं कई जन्मों से तुम्हारी हूं तुम्हारे लिए ही बनी हूं."
"अब नहीं लगता क्या? कहते हुए मोहन ने गीता का चेहरा दोनों हाथों में भर लिया." गीता मुस्करा कर मोहन के सीने में समा गई.
"हर क्षण तुम्हें देख लगता है, मैं अभी चौदह वर्ष की किशोरी हूं और तुम वहीं अल्हड़ उछलते कूदते."
"मम्मी..." बाहर से मीता की आवाज़ सुन दोनों वर्तमान में आ खड़े हुए.
"कहां गई थी बेटी?"
"अरुण से एक सवाल पूछने गई थी पापा." "अच्छा, अरुण तुम्हें बहुत अच्छा लगता है?"
"बहुत! बहुत अच्छा." मीता पापा के गले में बांहें डाल झूल गई.
मोहन की आंखें पत्नी की ओर उठ गई, वह भी मुस्कुरा रही थी.
"अब पहरे बिठाने की बजाय हमें मार्गदर्शक बनना होगा अपनी बिटिया का."
- उर्मि कृष्ण

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