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कहानी- परकटा पक्षी (Short Story- Parkata Pakshi)

अनिकेत की आंखें बह चलीं. लगा जैसे उसकी स्थिति एक परकटे पक्षी सी हो गई है. उड़ने की तमन्ना तो है पर पंख नहीं है. पंख की ही तमन्ना लेकर तो वह नागपुर चला आया था पर कदाचित उसके पंख मुंबई में ही बिखरे पड़े थे.

ट्रेन की गड़गड़ाहट के साथ कंपार्टमेंट में भरी भीड़ की चीख-पुकार, तेज वार्तालाप, बच्चों का रुदन और सन्नाटे को चीरती सीटी की आवाज़ कुछ भी अनिकेत को उसके विचारों से तटस्थ नहीं करा पा रहा था.

ट्रेन के बाहर के प्राकृतिक दृश्य भी आज इतने आकर्षक नहीं लग रहे थे कि वे अनिकेत के विचारों पर हावी हो सकें. पल-पल एक उधेड़बुन में डूबा दिमाग़ और आने वाले कल में होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन को काबू में रखने को जैसे असमर्थ होता जा रहा था अनिकेत. और निःसंदेह यही वो कारण था जिसकी वजह से आसपास घटित होने वाली हर प्रक्रिया अनिकेत के लिए अर्थहीन थी.

नींद आने की कोई संभावना नहीं थी. सवेरे छह बजे ट्रेन नागपुर पहुंच जाएगी. अनिकेत को लग रहा था कि स्टेशन पर सभी होंगे मिनी, अरुण, बाबूजी और शायद विभा भी. वास्तविकता में नागपुर पहुंचने में अभी ८ घंटे बाकी थे, पर अपनी कल्पना में जाने कितनी बार अनिकेत ने अपने आपको नागपुर स्टेशन पर खड़ा पाया

था और हर बार मां को छोड़कर बाकी सभी को वहां खड़ा पाया. मां-बाबूजी को का मन तड़प रहा था. मां-बाबूजी के हृदय पर, फिर भी देर से सही पर उसकी आंखों में अपलक निहारती रागिनी ने उसे पल भर में ही सारे बंधनों से मुक्त कराकर ऐसे स्वप्न लोक में ले गई जहां‌ न दमे के मरीज़ बाबूजी थे, न गृहस्थी की चक्की में पिसती मां थी न कॉलेज की फीस के लिए परेशान छोटा-भाई अरुण था...

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देखने के लिए अनिकेत अपनी ऊंची आकांक्षा के अधीन होकर कितना कहर बरपा था उसने. माफ़ तो कर दिया उन्होंने उसे, इसीलिए आज माफ़ी मिलने के महीनों बाद वह साहस जुटा पाया कि अपनों के बीच लौट जाए.

तीन साल पहले सभी नाराज़ थे अनिकेत से. नाराज़ होना उचित भी था. अनिकेत ने मनमानी जो की थी और मनमानी करने के बाद बड़े शान से मां को अपनी धृष्टता से अवगत भी करा दिया था.

पत्र के जवाब में मां ने लिखा था, "तू इतना बेशर्म निकलेगा, मैंने सोचा भी नहीं था."

अपने विलासी प्रेम की ख़ातिर पूरे घर की भावनाओं को कुचल डालना शायद एक छोटा सा अपराध होता होगा, लेकिन अनिकेत द्वारा किया गया यही अपराध क्षमा योग्य नहीं था, क्योंकि अनिकेत ने जब यह साहसिक कार्य किया तब परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं. तब स्वार्थ की नहीं त्याग की उम्मीद थी सबको अनिकेत से.

कितना सच है महापुरुषों का यह कथन कि सच्चा प्रेम त्याग होता है स्वार्थ नहीं. अनिकेत ने जिस प्रेम में पगलाकर अपनों का दिल दुखाया था, वो प्रेम था ही कहां, वो तो वासना थी. प्रेम तो पूनम ने किया था अनिकेत से, निस्वार्थ प्रेम. पूनम की याद आते ही अनिकेत के मुंह से आह निकल गई.

तीन साल पहले जब अनिकेत की मुलाक़ात अपने बॉस की बेटी रागिनी से हुई थी तब वह अचंभित ताकता रह गया था. सौंदर्य और चंचलता की प्रतिमूर्ति उस फैशनपरस्त युवती के शरीर में अजीब सा लोच था. गज़ब की नज़ाकत थी. तभी तो सब कुछ भूल गया था.

अनिकेत, उसकी आंखों में अपलक निहारती रागिनी ने उसे पल भर में ही सारे बंधनों से मुक्त कराकर ऐसे स्वप्न लोक में ले गई जहां न दमे के मरीज़ बाबूजी थे, न गृहस्थी की चक्की में पिसती मां थी, न कॉलेज की फीस के लिए परेशान छोटा भाई अरुण था, न चिंतामुक्त फूल सी चहकती युवा बहन मिनी थी. अनिकेत और रागिनी का प्रेम होटल, क्लब, पार्क और सड़क पर ही परवान चढ़ने लगा. उन्होंने महसूस किया कि अब एक दूसरे के बगैर उनका रह पाना असंभव था.

रागिनी का आकर्षण अनिकेत की अंतर्रात्मा पर ऐसे पसर गया था कि वो यह भी भूल गया कि उसकी सगाई हो चुकी है पूनम से. पूनम जो उसे सिर्फ़ प्यार ही नहीं करती, पूजती भी है.

अनिकेत अपने जीवन में रागिनी के प्रवेश के पूर्व पूनम से सगाई हो जाने को एक हादसा मानता था, पर दरअसल हादसा तो रागिनी से मिलना था. सच्चाई से अनभिज्ञ अनिकेत ने जब रागिनी की बात सबको बताते हुए पूनम से सगाई तोड़ने की बात की तो मां बिलख-बिलख कर रो पड़ीं.

"भूल जा उस लड़की को अनिकेत और लात मार दे उस नौकरी को. तू हमारे बारे में भले ही न सोच पर उस बेचारी पूनम के लिए तो सोच जो तेरी पूजा करती है. पूनम के अलावा कोई और इस घर में बहू बनकर नहीं आ सकती है."

अनिकेत ने भी प्रयास किया था कि रागिनी को भूल जाए. इसीलिए उसने रागिनी के पापा के दफ़्तर में अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. और उसी रोज़ से दूसरी नौकरी की तलाश शुरू कर दी. पर, इसी प्रयास के दौरान रागिनी से अनिकेत की एक और मुलाक़ात हो गई. रागिनी अनिकेत को अपने साथ शहर से दूर एकांत में खींच ले गई.

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"अनिकेत..." अपनी बड़ी-बड़ी आकर्षक आंखों में आंसू भरकर वो अपलक अनिकेत को ताकती रही, "क्यों किया तुमने ऐसा?" और अनिकेत को लगा कि वो बह जाएगा उस अप्सरा के आंसुओं की धार में.

"रागिनी, मुझे क्षमा कर दो, मेरी सगाई हो चुकी थी. ग़लती मेरी ही थी, जो मैंने तुम्हें सच्चाई नहीं बताई."

"अनिकेत, हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने जा रहे हैं. और तुम ऐसी घिसी पीटी बातें कहकर मुझे बहलाने का प्रयास कर रहे हो. देखो अनिकेत, इस वक़्त मेरे पास बैंक बैलेंस में पचास हज़ार रुपए हैं, चलो हम मुंबई भाग चलते हैं, वहां जाकर शादी कर लेंगे और एक नई ज़िंदगी शुरू करेंगे." रागिनी ने अपने मुलायम, सफ़ेद हाथों को अनिकेत के हाथों पर धरकर कहा तो अनिकेत उस हाथ को जोरों से थाम लेने के आकर्षण से अपने आपको नहीं बचा पाया.

"बोलो अनिकेत, चलोगे न मेरे साथ?" रागिनी ने बेझिझक अपने रेशम सी बांहों को अनिकेत के गले में डालते हुए पूछा, तो रागिनी को सशरीर पा लेने की कामना में अंधे होकर अनिकेत ने तत्काल सहमति दे दी.

नागपुर छोड़कर भागने का सारा नियोजन उसी रोज़ कर लिया गया. रागिनी अपनी पूरी जमा पूंजी बैंक से निकाल लाई और रागिनी के मोहपाश में बंधा अनिकेत मुंबई पहुंच गया.

मुंबई में रागिनी की एक सखी सपरिवार रहती थी, उसी को साक्षी बनाकर अनिकेत और रागिनी ने कोर्ट मैरिज कर लिया और शादी के तुरंत बाद अनिकेत ने अपने माता-पिता को अपने विवाह की सूचना भेज दी. और इसी पत्र के जवाब में मां ने अनिकेत को 'बेशर्म' की उपाधि से अलंकृत कर दिया था. अनिकेत और रागिनी अब तक बड़ी सहजता से ज़िंदगी जी रहे थे, इसी बीच अनिकेत को एक विज्ञापन कंपनी में स्क्रिप्ट राइटर की नौकरी मिल गई.

एक महीने के बाद एक कार्ड आया था, जो पूनम की शादी का था. जिसमें वर के स्थान पर अनिकेत के छोटे भाई अरुण का नाम था. ज़रूर अनिकेत के पिताजी ने ही लड़की वालों की इज्ज़त का ख़्याल करते हुए अरुण को पूनम के लिए मना लिया होगा.

शादी के कार्ड को रखकर अनिकेत ने एक टेलिग्राम भेज दिया जिसके जवाब में मां का एक पत्र आया, जो रोंगटे खड़े कर देने वाला था.

मां ने लिखा था कि पूनम अरुण के साथ अपने विवाह को किसी भी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रही थी. इसीलिए उसने हंसना-बोलना छोड़ दिया था और शादी के रोज़ ही उसे दौरा पड़ा और उसे मानसिक चिकित्सालय में भर्ती कर देना पड़ा था. पूनम पागल हो गई थी. तब दरवाज़े पर दूल्हा बनकर खड़े अरुण का ब्याह पूनम की छोटी बहन विभा से कर देना पड़ा था. सब कुछ कितना उल्टा-पुल्टा हो गया था. सोचते सोचते स्वयं के प्रति शर्मिंदगी से भर उठता था अनिकेत.

पर, रागिनी की घनी जुल्फ़ों का साया मिलते ही वह फिर से अपनों की पीड़ा से मुक्त हो जाता. लेकिन रागिनी ज़्यादा दिनों तक उसके दर्द की दवा नहीं बन सकी.

रागिनी की तो मस्तमौला सी ज़िंदगी थी, भला वो कब तक अनिकेत के साथ एक छोटे से कमरे में सिमटी उसके लिए चाय-नाश्ता बनाती रहती.

रागिनी ने कई क्लबों की सदस्यता ले ली थी, जहां से वो जुआ खेलकर अपने श्रृंगार और पहनावे के लिए पैसा जीत लाती. धीरे-धीरे रागिनी की अनुशासनहीनता उसके व्यवहार से स्पष्ट झलकने लगी. कई बार अनिकेत दफ़्तर से लौटने पर रागिनी को किसी पुरुष मित्र के साथ आपत्ति जनक मुद्रा में पाता.

"रागिनी, कैसी हो गई हो तुम ? छीः, तुम्हारी ख़ातिर मैंने अपने माता-पिता को दुख पहुंचाया, एक लड़की को सिर्फ़ तुम्हारे ख़ातिर पागल बनने को छोड़ दिया मैंने और तुम जुआ, शराब और क्लब के पीछे भाग रही हो."

"ना भागूं तो क्या करूं अनिकेत." बेहद सहजता से कह जाती रागिनी, "तुम इतना पैसा कमा नहीं सकते कि मेरे शौक पूरे कर सको, तो मुझे ही घर से बाहर निकलना पड़ा. मजबूर थी मैं, मुझसे नहीं होता अनिकेत कि मैं एक साधारण सी सूती साड़ी पहनकर तुम्हारे इस कमरे में क़ैदी सी ज़िंदगी जिऊं."

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"नहीं जी सकती तो मेरे साथ भाग क्यों आई थी, वहीं रहती अपने रईस बाप के पास."

"तुम्हारे साथ भागी थी अनिकेत पर अपने आप पर विश्वास करके मैं जुआ खेलना जानती हूं और खेलकर जीतती भी हूं. तुम मेरे शौक पूरे कर पाओगे, ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था."

रागिनी के ऊटपटांग तर्क से घबराकर अनिकेत ने बम्बई में रागिनी के पापा को फोन करके उन्हें पूरी सूचना दी और उनसे आग्रह किया कि वे बम्बई आकर बेटी को समझाएं.

"अनिकेत तुमने रागिनी को पसंद कैसे किया, यह तो मैं नहीं जानता. पर मुझे तुमसे इतनी बड़ी मूर्खता की उम्मीद नहीं थी. वो आज़ाद ख़्याल की लड़की है इसीलिए तो मेरे और उसकी मां द्वारा लगाई जाने वाली पाबंदियां से भी वो मुक्ति चाहती थी. मेरा ख़्याल है इसी कारण वो तुम्हारे साथ भागी होगी, तुम उसे सुधारने के लिए जैसा भी कठोर व्यवहार करना चाहते हो कर सकते हो. उसके लिए मैं और उसकी मां कभी खेद नहीं करेंगे, क्योंकि हमारे लिए तो वह उसी दिन मर गई जिस दिन वह घर से भाग गई थी."

अनिकेत को लग रहा था कि वो एक अजनबी शहर में बेहद असहाय सा हो गया है. रागिनी को समझाना वा सम्हालना उसके बस में नहीं रह गया था. अनिकेत सुबह ९ बजे अपने घर से निकलता और शाम ६ बजे तक कलम घिसता रहता, इस बीच रागिनी क्या करती है, कहां जाती है इस पर ध्यान रखना उसके लिए संभव नहीं था.

एक दिन तो हद हो गई. जब अनिकेत दफ़्तर पहुंचा, तो एक नए मॉडल की चर्चा सबकी ज़ुबान पर थी. जिसकी एक अर्चना गस्थीर एक पाउडर के विज्ञापन के लिए तैयार हो चुकी थी और अनिकेत के बॉस का आदेश था कि पाउडर के नीचे कोई ऐसा फड़कता हुआ स्लोगन लिखे जो मॉडल के शारीरिक सौंदर्य के साथ घुल-मिलकर एक सशक्त प्रभाव जनमानस पर छोड जाए.

मॉडल की तस्वीर देखकर वो दंग रह गया, वो मॉडल कोई और नहीं बल्कि रागिनी थी. अनिकेत को लगा जैसे उसका सिर चकरा रहा है. इस हद तक गिर जाएगी रागिनी उसने कभी सोचा भी नहीं था.

तबियत खराब होने का बहाना करके जब अनिकेत घर लौटा तो रागिनी घर पर नहीं थी, उस रोज वह देर रात तक घर लौटी, आते ही अनिकेत बरस पड़ा उस पर, "छी, बेहया तुम इतनी गिर सकती हो मैंने ऐसा सोचा भी नहीं

"मैं गिरी नहीं हूं अनिकेत, बल्कि अपने पैरों पर खड़ी हो गई हूं." बेहयाई से हंसती हुई रागिनी बोली, "तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारी पत्नी कितनी बड़ी मॉडल बन गई है."

एक तो शर्मनाक कृत्य और उस पर से उसकी हंसी, अनिकेत‌ आपा खो बैठा और पूरी ताकत से एक तमाचा उसके गालों पर जड दिया,

अनिकेत का अपराधबोध बढ़ता ही जा रहा था और मन की आत्मग्लानि जब असहनीय हो गई, तो उसने अपनी इस वेदना का सारांश मां को लिख दिया. और, अपनी सारी ग़लतियों के लिए माफी मांग ली.

अनिकेत के इस व्यवहार पर कुछ क्षण के लिए तो स्तब्ध खड़ी रह गई रागिनी फिर बिलख-बिलख कर रोते हुए अपना सामान सूटकेस में पैक किया और घर से निकल पड़ी, अनिकेत ने भी उसे रोकने का प्रयास नहीं किया, वो आत्महत्या नहीं करेगी इसका अनिकेत को पूर्ण विश्वास था.

कई बार अनिकेत को लगता था कि रागिनी जब बाहर की दुनिया में ठोकर खायेगी तब उसे घर की अहमियत का पता चलेगा और वह पूरी तरह से बदलकर लौट आएगी, पर अनिकेत ने तो कभी रागिनी को समझा ही नहीं था. जल्दी डी उसे इस बात की ख़बर मिल गई कि रागिनी एक रईस के साथ रहने लगी है.

अनिकेत का अपराधबोध बढ़ता ही जा रहा था और मन की आत्मग्लानि जब असहनीय हो गई, तो उसने अपनी इस वेदना का सारांश मां को लिख दिया, और, अपनी सारी गलतियों के लिए माफी मांग ली.

अनिकेत की नाकामयाबी से शायद घर में सभी प्रसन्न थे इसीलिए मां, मिनी और अरुण ने जल्दी-जल्दी कई पत्र लिखे और आग्रह किया कि अनिकेत जल्द से जल्द नागपुर लौट आये. मां ने लिस्खा, "बेटा, विलंब न करना, हमें तुमसे शिकायत है ही नहीं और फिर सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते."

कुछ दिनों बाद पुनः मां का एक पथ आया कि पूनम अस्पताल से लौट चुकी है और अब पूरी तरह से ठीक हो चली है.

पूनम के ठीक होने की खबर सुनकर अनिकेत अपने आपको नहीं रोक पाया और नागपुर जाने का निर्णय ले लिया.

ट्रेन समय पर नागपुर स्टेशन पहुंच गई. देखा तो सिर्फ़ मिनी और बाबूजी ही आये थे. अरुण नहीं आया था इसीलिए विभा भी नहीं थी, निढाल से बाबूजी के शरीर में अनिकेत को सामने पाते ही एक थरथराहट सी होने लगी और अनिकेत का मन टुकड़े टुकड़े में कटने लगा.

पहले बाबूजी के हाथ में छड़ी नहीं रहती थी, पर अब एक छड़ी थी जो उनका सहारा बनी, उन्हीं के साथ-साथ स्वयं भी थरथरा रही थी.

"मैया..." कहते हुए जरा सी लंबी हो गई मिनी गले से लगी, तो भी अनिकेत अपना ध्यान बाबूजी के कमजोर शरीर से हटा नहीं पाया.

अनिकेत बाबूजी के पैरों पर झुका तो वे इतने जोरों से बिलख पड़े कि अनिकेत को भ्रम हुआ कि अब वो अपने शरीर को सम्हालने में असमर्थ हो गिर पड़ेंगे, अनिकेत ने उन्हें अपनी सशक्त बांहों में थाम लिया. स्टेशन पर ही अनिकेत को पता चल गया कि अरुण कार्यालय के काम से दौरे पर बाहर गया हुआ है.

घर पहुंचते ही मां भी बाबूजी की ही भांति विलख-बिलख कर रो रही थी. मां के पीछे खड़ी विभा भी आंचल को मुंह में ठूंसे रो रही श्री. पूनम से सगाई होते ही जिस विभा ने अनिकेत को 'जीजा जी' कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया था आज वही विभा अरुण की पत्नी के रूप में कितनी अलग लग रही थी.

घर के हर कोने से अनिकेत की कुछ यादें जुड़ी हुई थीं. आज अपने घर आकर वो भाव विभोर हो रहा था. बस, एक ही बात उसे रह रह कर कचोट रही थी कि मां, बाबूजी और मिनी सभी कुछ शांत शांत से लग रहे थे, मानो किसी गहरी चिंता में हों.

वह अकेला पूरे घर में इधर-उधर टहलता हुआ पूनम के बारे में सोचता रहा, कितनी मानसिक पीड़ा सही थी उस बेचारी ने.

अनिकेत की इच्छा हो रही थी कि कहीं विभा अकेली मिल जाए तो वो उससे पूछ ले कि कैसी है पूनम, वैसे तो मिनी और मां से भी पूछा जा सकता था, पर उनसे पूछने में अनिकेत को झिझक सी हो रही थी. उसे लग रहा था कि कहीं मां और मिनी उसके इस व्यवहार को भी स्वार्थपूर्ण न समझा लें.

"बड़े भइया..." रात खाना खाकर जब अनिकेत किसी पत्रिका के पन्ने पलट रहा था तब विभा की आवाज पर चौंक पड़ा वो. हड़बड़ाकर पलंग से उतर गया. विभा सर झुकाए किसी अपराधी की भांति खड़ी थी, उसके हाथ में एक लिफ़ाफ़ा था जिसे उसने अनिकेत की तरफ़ बढ़ा दिया.

अनिकेत की आंख बह चली लगा जैसे उसकी स्थिति एक परकटे पक्षी सी हो गई है. उड़ने की तमन्ना तो है पर पंख नहीं है. पंख की ही तमन्ना लेकर तो वह नागपुर चला आया था पर कदाचित उसके पंख बम्बई में ही बिखरे पड़े थे.

"पूनम दीदी की शादी है. जिस डॉक्टर ने दीदी का इलाज किया था उन्हीं के साथ."

सुनकर स्तब्ध रह गया अनिकेत. लगा पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी और वह लड़खड़ाकर गिरने वाला है. जैसे तैसे अपने आपको सम्हाला, "आपके लिए लिफ़ाफ़े में एक चिट्ठी है, पढ़ लीजिएगा." कहते हुए विभा लौट गई. धड़कते दिल और कंपकंपाते हाथों से अनिकेत ने लिफ़ाफ़ा खोला.

प्रिय अनिकेत,

मैं शादी नहीं करना चाहती थी, फिर भी कर रही हूं, क्योंकि डॉक्टर साहब मुझे प्यार करते हैं और मैं जानती हूं कि प्यार कितना दुख देता है. विभा ने मुझे तुम्हारे और रागिनी के बारे में बताया तो सुनकर दुख हुआ कि तुम अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ रहे हो,व. तुम्हें इस वक़्त मुंबई से नहीं आना चाहिए था. जब रागिनी वहां दरिन्दों के बीच हो. सोच कर देखो अनिकेत, क्या लोग रागिनी को नोंच-नोंचकर खा नहीं जाएंगे. रागिनी तुम्हारी पत्नी है. उसे उसकी नादानी की सज़ा मत देना. क्षमा दान देना.‌ तुम मेरे ससुराल आना रागिनी को साथ लेकर, आओगे ना?..

- पूनम

अनिकेत की आंखें बह चलीं. लगा जैसे उसकी स्थिति एक परकटे पक्षी सी हो गई है. उड़ने की तमन्ना तो है पर पंख नहीं है. पंख की ही तमन्ना लेकर तो वह नागपुर चला आया था पर कदाचित उसके पंख मुंबई में ही बिखरे पड़े थे.

- निर्मला सुरेंद्रन

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