पूजा श्रीराम बिजारनिया ने दिया पिता को अपना लिवर (Pooja Bijarnia Donate Her Liver To Save Her Father)
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कौन कहता है कि बेटियां सहारा नहीं बन सकतीं. पूजा श्रीराम बिजारनिया न सिर्फ़ अपने पिता का गौरव हैं, बल्कि अपना लिवर पिता को देकर पूजा ने ये साबित कर दिया है कि बेटियां अब किसी भी तरह से कमज़ोर नहीं हैं. बेटियों को यदि सही माहौल और हौसला मिले, तो वो कामयाबी की बुलंदियों को छू सकती हैं. चिल्ड्रन डे के ख़ास मौ़के पर आइए, हम आपको मिलाते हैं एक ऐसी बेटी से, जिसने न स़िर्फ अपने पिता को नई ज़िंदगी दी है, बल्कि परिवार का हौसला भी बढ़ाया.
पूजा, आपके पापा को क्या बीमारी थी और कैसे आपने उन्हें नई ज़िंदगी दी?
मेरे डैड पिछले तीन सालों से हेल्थ प्रॉब्लम्स झेल रहे हैं. उन्हें लिवर सोराइसिस हुआ था. दरअसल, उनकी बीमारी की शुरुआत जॉडिंस (पीलिया) से हुई थी, जिसके बारे में काफ़ी समय तक पता नहीं चल पाया था. सही डॉक्टर न मिलने के कारण बीमारी बढ़ती चली गई. पहले डैड का शरीर पीला था, फिर एकदम काला पड़ गया. दवाइयों के ओवर डोज़ से वो हर समय जैसे नींद में रहते थे. हम उन्हें उसी हालत में दवाइयां देते जा रहे थे.
आपके पापा की सेहत में सुधार कब और कैसे आया?
हम डैड को जसलोक हॉस्पिटल ले गए. वहां डॉक्टर आभा नागराल की देखरेख में उनकी हालत सुधरने लगी. लेकिन उस समय तक डैड का लिवर डैमेज हो चुका था और लिवर ट्रांसप्लांट के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. इस बीच उनके गॉल ब्लेडर और किडनी में भी प्रॉब्लम आने लगी थी, उन्हें डायबिटीज़ भी हो गया था. बार-बार डैड को लेकर नवी मुंबई से जसलोक हॉस्पिटल जाना बहुत मुश्किल हो रहा था इसलिए डॉक्टर आभा ने हमें नवी मुंबई के अपोलो हॉस्पिटल में पापा को ले जाने के लिए कहा. वो वहां की विज़िटिंग फेकल्टी भी हैं इसलिए हमारे लिए ट्रैवलिंग आसान हो गई. पापा का आगे का ट्रीटमेंट वहीं हुआ. फिर जनवरी 2017 में डॉक्टर ने कहा कि अगले दो-तीन महीने में हमें उनका लिवर ट्रांसप्लांट करना होगा. हमने बहुत कोशिश की, लेकिन हमें लिवर नहीं मिल पाया इसलिए हमने फैसला किया कि हम में से ही कोई पापा को लिवर दे देगा. मेरी बहन का लिवर छोटा था इसलिए वो नहीं दे पाई. मेरे लिवर का साइज़ सही था और मैं हर तरह से फिट थी इसलिए मैंने लिवर देने का फैसला किया.
लिवर देते समय आपको डर नहीं लगा?
मुझे तो डर नहीं लगा, लेकिन मेरी मां बहुत डरी हुई थी. उनके पति और बेटी दोनों की ज़िंदगी दांव पर थी. ऐसे केसेस में दोनों लोग बच भी सकते हैं, कोई एक भी बच सकता है या दोनों की जान भी जा सकती है. लेकिन हमारे पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था. आख़िरकार ऑपरेशन सक्सेसफुल रहा और हम दोनों को कोई नुक़सान नहीं हुआ. हमारे डैड चाहे कितने ही बीमार थे, लेकिन हमने कभी हार नहीं मानी और न ही कभी कुछ निगेटिव सोचा. इस बीच इतने पैसे ख़र्च हुए कि हमें अपनी प्रॉपर्टी तक बेचनी पड़ी. हां, टाटा फाउंडेशन, रिलायंस फाउंडेशन, सिद्धिविनायक ट्रस्ट आदि ने हमें फाटनेंशियली बहुत मदद की. हमने इन तीन सालों में भले ही बहुत तकली़फें देखीं, लेकिन पापा के ऑपरेशन के बाद हमारी ज़िंदगी में फिर से ख़ुशियां लौट आई हैं.
पापा के ऑपरेशन के बाद घर का माहौल कैसा है?
इन तीन सालों में हमने जितना झेला है, वैसा कोई दुश्मन भी न झेले. हां, इस बीच हमारी बॉन्डिंग इतनी बढ़ गई है कि अब हम हर काम साथ मिलकर करते हैं. मैं ऑफिस से सीधे घर आ जाती हूं ताकि अपने पैरेंट्स के साथ समय बिता सकूं. छुट्टी के दिन भी मैं अपने परिवार के साथ ही रहती हूं.
लिवर डोनेट करने से क्या आपकी हेल्थ पर कोई असर होगा?
नहीं, लिवर बहुत जल्दी अपने शेप में फिर से आ जाता है. हां, कुछ रिश्तेदारों ने ये ज़रूर कहा कि अब इसकी शादी कैसे होगी, तो मेरा जवाब ये था कि जिस लड़के को इतनी समझ न हो कि अपने पैरेंट्स के लिए बच्चों को क्या करना चाहिए, उसे मेरा जीवनसाथी बनने का कोई हक़ नहीं है.
अपने परिवार के बारे में बताइए, कैसे माहौल में हुई है आपकी परवरिश?
हम सिकर, राजस्थान के रहनेवाले हैं. डैड ने रोजी-रोटी की तलाश में बहुत पहले ही गांव छोड़ दिया था, लेकिन हमारे काका, मौसी सब गांव में रहते हैं. हम ख़ुशनसीब हैं कि हमारे पैरेंट्स ने हमारी परवरिश बहुत अच्छे माहौल में की है. हम पांच भाई-बहन हैं, चार बहनें और एक भाई. भाई सबसे छोटा है, आप कह सकती हैं कि सोशल प्रेशर में मेरे पैरेंट्स को चार बेटियों तक बेटे का इंतज़ार करना पड़ा, लेकिन उन्होंने हम बहनों की परवरिश में कभी कोई भेदभाव नहीं किया. परिवार, रिश्तेदार कहते थे कि बेटियों पर इतना ख़र्च क्यों करते हो, इन्हें तो एक दिन पराए घर जाना है, लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी हमारे लिए ऐसा नहीं सोचा. उन्होंने हमें बेटा-बेटी की तरह नहीं, औलाद की तरह पाला और हमें सारी सुविधाएं दी. रिश्तेदारों का तो ये हाल है कि डैड की बिमारी में मदद करने की बजाय उन्होंने गांव में ये अफवाह फैला दी थी कि अब डैड की बचने की कोई गुंजाइश नहीं है. लेकिन मेरी मां बहुत स्ट्रॉन्ग हैं, मां ने कभी हार नहीं मानी. उन्हें पूरा विश्वास था कि डैड ठीक हो जाएंगे.
क्या राजस्थान में आज भी बाल विवाह होते हैं?
हां, राजस्थान में आज भी चोरी-छिपे बाल विवाह होते हैं. लोग बेटियों को जल्दी से जल्दी विदा कर देना चाहते हैं. उनके भविष्य के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते. जब हम छुट्टियों में गांव जाते थे, तो लोगों की मानसिकता देखकर दंग रह जाते थे. तब मैं कोई 10 साल की रही होगी, हमारी एक रिश्तेदार मां से कहने लगीं, "लड़की अब बड़ी हो गई है, इसका रिश्ता पक्का कर दो", जबकि हम बहनों में मैं तीसरे नंबर की हूं. उनकी बात सुनकर मां ने साफ़ मना कर दिया और कहा, "मैं इतनी जल्दी अपनी बेटियों की शादी नहीं कर सकती."
क्या आपके परिवार पर समाज का प्रेशर नहीं है?
पहले मेरे माता-पिता परिवार या समाज के सामने खुलकर अपनी बात नहीं रख पाते थे, लेकिन अब जब उन्होंने देखा कि मुसीबत के समय कोई काम नहीं आता, हमें अपनी तकलीफ़ ख़ुद ही झलेनी होती है, तो वे अब इस बात को लेकर और स्ट्रॉन्ग हो गए हैं कि बेटियों को आत्मनिर्भर बनाना है, ताकि उन्हें कभी किसी का मुंह न देखना पड़े.
- कमला बडोनी
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