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Children’s Day Special: स्पेशल बच्चों के प्रति कितने सेंसिटिव हैं हम? (Society Needs To Be Sensitive Towards Specially Abled Children)

कहीं नन्हीं-सी मासूम हथेलियां हैं, तो कहीं नन्हें लड़खड़ाते क़दम, कहीं ख़ामोशियों को बयां करती आंखें हैं, तो कहीं चीख में सब कुछ कह देने की जद्दोज़ेहद, कहीं ख़ुद से लड़ती ज़िंदगियां हैं, तो कहीं ज़िंदगी को नया आयाम देने की मशक्कत... ख़ुद के वजूद को तलाशने के इनके सफ़र की हक़ीक़त को कितना जानते हैं हम? समाज के इन स्पेशल बच्चों की ज़िंदगियों को कितना समझते हैं हम? ख़ुद को सोशल एनिमल कहनेवाले हम क्या इन बच्चों के प्रति भी उतने ही सेंसिटिव हैं, जितना ख़ुद के प्रति? आइए जानते हैं अपनी और अपने समाज की संवेदनशीलता.

Sensitive Towards Specially Abled Children

स्पेशल बच्चे

जिनकी सोचने-समझने की क्षमता उनकी उम्र के सामान्य बच्चों से कम होती है और जो न्यूरोडेवलपमेंटल डिसऑर्डर के शिकार होते हैं. ऐसे बच्चों को हम स्पेशल बच्चे कहते हैं. बच्चों के ऐसे होने के और भी कई कारण हो सकते हैं- - गर्भावस्था के दौरान कोई संक्रामक रोग - नवजात अवस्था में ही किसी इंफेक्शन का शिकार - प्रेग्नेंसी के दौरान शारीरिक-मानसिक विसंगतियां - प्रेग्नेंसी के दौरान और जन्म के बाद भी पोषण की कमी यहां हमने शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के प्रति परिवार, समाज और देश की संवेदनशीलता को टटोलने की कोशिश की है. स्पेशल बच्चों में ख़ासतौर से मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की स्थिति ज़्यादा दयनीय है. ऐसे में इनकी देखभाल, इनके लिए साधन व सुविधाएं जुटाना जितना मुश्किल है, उससे भी ज़्यादा मुश्किल है उनकी शिक्षा-दीक्षा.

परिवार की चुनौतियां

स्पेशल बच्चों की परवरिश आसान नहीं होती. ख़ासतौर से मानसिक विकलांग बच्चों पर अतिरिक्त ध्यान देना पड़ता है. ऐसे में पैरेंट्स की चुनौतियां किस तरह बढ़ जाती हैं, आइए जानें. - सबसे पहले किसी भी पैरेंट्स के लिए यह स्वीकार करना कि उनका बच्चा मानसिक रूप से विकलांग है बहुत मुश्किल होता है. पर जब वो स्वीकार कर लेते हैं, तो हमेशा इसी कोशिश में रहते हैं कि उसे नॉर्मल फील कराएं. - कुछ पैरेंट्स इसके लिए ख़ुद को दोषी मानने लगते हैं. उन्हें लगता है कि शायद प्रेग्नेंसी के दौरान या डिलीवरी के बाद उनसे ही कोई भूल हुई होगी, इसलिए उनका बच्चा ऐसा हो गया है, पर यह ग़लत है. मानसिक विकलांगता के मेडिकल कारण होते हैं, इसलिए पैरेंट्स को ख़ुद को दोषी नहीं समझना चाहिए. - कुछ पैरेंट्स इसे सामाजिक कलंक मानकर बच्चे को घर से बाहर ही नहीं निकलने देते. पड़ोसियों के मज़ाक से बचने के लिए पैरेंट्स ऐसा करते हैं. - स्पेशल बच्चों के मामलों में कई बार पैरेंट्स असहाय महसूस करते हैं, उन्हें समझ ही नहीं आता कि वो बच्चे की परवरिश किस प्रकार करें. कभी-कभी मेडिकल प्रोफेशनल्स भी पैरेंट्स को  उतनी अच्छी तरह सपोर्ट नहीं करते, जितना उन्हें करना चाहिए. - कुछ पैरेंट्स स्पेशल बच्चों के व्यवहार को संभालने में ख़ुद को असमर्थ पाते हैं. ऐसे बच्चों का चीखना-चिल्लाना, लगातार रोना, चुप रहना,  ज़िद्दीपन और ग़ुस्सैल व्यवहार पैरेंट्स के लिए एक चुनौती बन जाती है. - ऐसे भी पैरेंट्स हैं, जो स्पेशल बच्चों से अवास्तविक अपेक्षाएं रखते हैं, जैसे कि वो नॉर्मल बच्चों की तरह व्यवहार करें, चीज़ों को जल्द से जल्द समझें.प पैरेंट्स में यह डर भी बना रहता है कि अगर कल को उन्हें कुछ हो गया, तो उनके बच्चे का ख़्याल कौन रखेगा. - स्पेशल बच्चों की देखभाल के लिए पैरेंट्स को एक्स्ट्रा एफर्ट लेने पड़ते हैं, जिससे धीरे-धीरे वो भी चिड़चिड़े और तनावग्रस्त रहने लगते हैं. - बहुत से लोग अपने स्पेशल बच्चों को घर पर ही रखते हैं. उन्हें अगर स्पेशल स्कूल्स, ट्रेनिंग सेंटर्स, रिहैबिलिटेशन सेंटर्स में भेजा जाए, तो बच्चे बहुत कुछ सीख सकते हैं.

असंवेदनशील सामाजिक रवैया

- शारीरिक या मानसिक अक्षमता को आज भी हमारे समाज में पिछले जन्म में किए बुरे कर्मों का फल माना जाता है. - स्पेशल बच्चों के प्रति भी लोग दया व सहानुभूति दिखाते हैं, पर कहीं न कहीं उनके मन में कर्मफलवाली सोच इतनी हावी होती है कि उन्हें हमेशा बाकी बच्चों से अलग-थलग रखा जाता है. - कुछ असंवेदनशील लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने मनोरंजन के लिए इन बच्चों को टारगेट करते हैं, उनका मज़ाक बनाते हैं.

लड़कियों से जुड़े चौंकानेवाले मामले

शारीरिक-मानसिक अक्षम बच्चों में लड़कियों की स्थिति और भी बदतर है. - ऐसी लड़कियां ह्यूमन ट्रैफिकिंग की शिकार आसानी से हो जाती हैं, क्योंकि ये ईज़ी टारगेट होती हैं. - वर्ल्ड बैंक और येले यूनिवर्सिटी द्वारा किए गए सर्वे में यह बात सामने आई है, क्योंकि ये लड़कियां सेक्सुअली एक्टिव नहीं होतीं, इसलिए इनके साथ बलात्कार के मामले ज़्यादा देखे जाते हैं. - अपराधियों के अलावा ऐसे भी मामले देखे गए हैं, जहां परिवार के लोगों और रिश्तेदारों ने ही इन बच्चियों का शोषण किया. - इन बच्चों के लिए बने रिहैबिलिटेशन सेंटर्स भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं. - यह बहुत ही दुखद है कि ऐसी घिनौनी सोच के लोग आज भी हमारी इस सो कॉल्ड सिविलाइज़्ड सोसाइटी का हिस्सा हैं.

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स्पेशल बच्चों से जुड़े अपराध

- ये बच्चे क्रिमिनल्स के लिए ईज़ी टारगेट होते हैं. - ख़ासतौर से ग़रीब बच्चों को ये निशाना बनाते हैं. - आपराधिक प्रवृत्ति के लोग इन बच्चों को किडनैप करके भीख मंगाने और वेश्यावृत्ति आदि में धकेल देते हैं. - बच्चों का अपहरण करके उन्हें दूसरे देशों में बेच दिया जाता है, जहां उनके साथ बहुत बुरे सुलूक किए जाते हैं. - कुछ पैरेंट्स इनसे छुटकारा पाने के लिए इन्हें किसी अनाथालय या आश्रम में छोड़ आते हैं. हेल्थ केयर सुविधाओं की कमीप स्पेशल बच्चों के लिए हेल्थ केयर सुविधाओं की आज भी बेहद कमी है. गिने-चुने शहरों को छोड़ दिया जाए, तो कस्बों और गांवों की हालत अभी भी ख़राब ही है. - इनके लिए मनोचिकित्सक, क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट्स और काउंसलर्स की मदद की ज़रूरत होती है, जो हर शहर में आसानी से उपलब्ध नहीं हैं. - अमीर घरों में तो फिर भी नर्स आदि की मदद से इन बच्चों की देखभाल हो जाती है, पर ग़रीबों के लिए हालात बदतर हो जाते हैं. - हर ज़िले में कम से कम एक स्पेशलाइज़्ड हॉस्पिटल, रिहैबिलिटेशन सेंटर और थेरेपी सेंटर  होना चाहिए. - सही ट्रेनिंग से डिफरेंटली एबल्ड बच्चों को भी थोड़ा-बहुत इंडिपेंडेंट बनाया जा सकता है. यह भी पढ़ें: शाहिद कपूर की बेटी मीशा के इस पिक पर आलिया भी हुईं फिदा

Sensitive Towards Specially Abled Children

स्कूल व लर्निंग सेंटर्स की कमी

- स्पेशल बच्चों के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है, पर  न तो हमारे यहां ऐसे स्कूल हैं और न ही टीचर्स. - शहरों में जो स्कूल हैं भी, उनकी फीस इतनी ज़्यादा है कि वो सबकी पहुंच के बाहर है. - आम स्कूलों में भी सिलेबस इस तरह तैयार किया जाता है, जहां इनकी शिक्षा मुश्किल है और आम बच्चों के साथ पढ़ना सभी दिव्यांगों के लिए आसान नहीं. - हालांकि कुछ समाजसेवी संस्थाएं ऐसे बच्चों के लिए काम कर रही हैं, पर उनकी भी संख्या बहुत ही कम है.

स्पेशल ऑर्गेनाइज़ेशंस व एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन्स

कुछ ऐसे समाज सेवी संस्थान व स्पेशल स्कूल्स हैं, जो स्पेशल बच्चों के बेहतर विकास में पैरेंट्स की मदद करते हैं, ताकि वो मेनस्ट्रीम से जुड़े रहें. इनसे जुड़ी अधिक जानकारी के लिए आप इनकी वेबसाइट पर जा सकते हैं. 1. उम्मीद चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर- मुंबई Website: www.ummeed.org Email: [email protected] Contact Numbers: +91 22 65528310, 65564054, 23002006 2. एक्शन फॉर ऑटिज़्म- दिल्ली Website: www.autism-india.org Email: [email protected] 3. उमंग- जयपुर Website: http://www.umangindia.org/ Email: [email protected] 4. तमना- नई दिल्ली Website: http://www.tamana.org/ Email: [email protected] 5. समर्थनम- बैंगलुरू, मुंबई, दिल्ली, आंध्रप्रदेश, सिकंदराबाद, हरियाणा, कर्नाटक  Website:http://www.samarthanam.org Email: [email protected]

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कैसे बदलेंगे हालात?

- सबसे पहले तो समाज को अपनी सोच बदलनी होगी. स्पेशल बच्चों के प्रति सभी को जागरूक करना होगा. - गर्भावस्था के दौरान मां को ज़रूरी पोषण मिले और किसी भी तरह की कॉम्प्लीकेशंस के लिए हेल्थ केयर सर्विसेज़ की अच्छी सुविधा हो. - घर से बाहर निकलने, कहीं आने-जाने के लिए ट्रांसपोर्ट की सुविधा भी इनके लिए बहुत मुश्किल हो जाती है, क्योंकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट में इनकी सुविधाओं का ख़्याल नहीं रखा जाता. - अस्पताल से लेकर बस अड्डों, रेलवे, मार्केट- ऐसी सभी जगहों पर वॉक वे और व्हीलचेयर रैंप्स की सुविधा होनी चाहिए. - सरकार को स्पेशल बच्चों के लिए अस्पताल और स्कूलों की सुविधा बढ़ानी होगी, तभी ये समाज और मेनस्ट्रीम का हिस्सा बन पाएंगे. - राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर सामाजिक जागरूकता के साथ-साथ स्वास्थ्य के प्रति लोगों को सचेत करें, ताकि संक्रामक बीमारियों से मां और उसके भू्रण को बचाया जा सके.

स्पेशल बच्चों के लिए ‘उम्मीद’ की किरण

मुंबई के उम्मीद चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर की सामाजिक कार्यकर्ता अदिति झा और कैंडिस मेंज़ेस से हमने स्पेशल बच्चों की स्थिति, परिवार की चुनौतियों और सरकारी योजनाओं के बारे में बात की. - अदिति ने बताया कि हमारे देश में स्पेशल बच्चों के प्रति जागरूकता की बेहद कमी है और उसी कमी को दूर करने के लिए डॉ. विभा कृष्णमूर्ति ने इसकी शुरुआत की. यहां डेवलपमेंटल पीडियाट्रिशियन से लेकर अलग-अलग थेरेपीज़ के लिए टीम और सोशल वर्क टीम है. - समाज में जागरूकता की कमी का ही नतीजा है कि ऐसे बच्चों के पैरेंट्स को भी बच्चों की देखभाल, शिक्षा, ट्रेनिंग आदि की कोई जानकारी नहीं होती. उम्मीद में पैरेंट्स को काउंसलिंग, ट्रेनिंग आदि के ज़रिए इस तरह सशक्त बनाया जाता है कि वो अपने बच्चे की आवाज़ बन सकें. - बच्चों को तरह-तरह की थेरेपीज़ दी जाती हैं, ताकि वो ख़ुद आत्मनिर्भर बन सकें. - पैरेंट्स की मदद के लिए कई सरकारी योजनाएं हैं, पर ज़्यादातर लोगों को इनकी जानकारी ही नहीं, क्योंकि न सरकार ने इनका प्रचार-प्रसार किया, न ही लोगों ने. - बस, ट्रेन में ट्रैवलिंग छूट के अलावा अगर दोनों ही पैरेंट्स वर्किंग हैं, तो इंकम टैक्स में भी उन्हें छूट मिलती है. - सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की ओर से निरामया हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम उपलब्ध है, जिसमें 1 लाख तक का इंश्योरेंस कवर मिलता है. अधिक जानकारी के लिए http://www.thenationaltrust.gov.in/content/scheme/niramaya.php इस लिंक पर जाएं. - राइट टु एजुकेशन एक्ट (Right To Education Act)) के तहत हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार है, लेकिन फिर भी बहुत से स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएं नहीं कि इन बच्चों को बाकी बच्चों के साथ रखकर पढ़ाया जा सके. सरकार को सभी स्कूलों में ऐसे बच्चों के लिए अलग से फंड देना चाहिए. - इन बच्चों को शोषण से बचाने व मेनस्ट्रीम से जोड़ने के लिए फोरम फॉर ऑटिज़्म और अर्पण जैसे सामाजिक संस्थान बच्चों व पैरेंट्स को जागरूक करते हैं.प उन्होंने बताया कि 3 दिसंबर को वर्ल्ड डिसैबिलिटी डे मनाया जाता है, पर अफ़सोस बहुत कम लोग इस बारे में जानते हैं. सरकार को इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए, ताकि लोगों में जागरूकता बढ़े. यह भी पढ़ें: तैमूर अली खान की पहली बर्थडे पार्टी होगी कुछ ऐसी, करिश्मा ने बताए बर्थडे प्लान्स!

क्या कहते हैं आंकड़े?

- हमारे देश में 0-6 साल के लगभग 20 लाख बच्चे विकलांग हैं, जिसमें से 71% यानी 14.52 लाख बच्चे गांवों में हैं. - शहरों के मुक़ाबले गांवों में स्पेशल बच्चों की तादाद ज़्यादा होने का कारण गांवों में पीडियाट्रीशियन की कमी मानी जाती है. - आज इस इक्कीसवीं सदी में भी गांवों में बड़ी-बूढ़ी औरतें या दाई मां ही बच्चे पैदा कराती हैं. ऐसे में गर्भवती महिलाएं प्रेग्नेंसी के दौरान कई समस्याओं से गुज़रती हैं, जिसके कारण कई बार बच्चे मानसिक विकलांगता के शिकार हो जाते हैं. - हमारे देश में ऑटिज़्म और सेरेबल पाल्सी के शिकार बच्चे लगभग 5.80 लाख हैं. - उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा दिव्यांग (विकलांग) बच्चे हैं. उसके बाद बिहार दूसरे नंबर पर, महाराष्ट्र तीसरे और फिर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल का नंबर आता है. देश में बढ़ती जनसंख्या के साथ ही दिव्यांगों की संख्या भी बढ़ी है, पर न तो सामाजिक स्तर पर उनके सुधार के लिए कुछ ख़ास किया गया, न ही क़ानूनी क्षेत्र में.

- अनीता सिंह

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